आस्था घर के बाहर बगीचे की सीढ़ियों पर बैठी थी, काले बादलों की अठखेलियाँ देखकर उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी, कितना अच्छा लगता था उसको कभी काले बादलों का घुमड़ घुमड़ कर आना,
जिंदगी की आपाधापी में वो इन काले बादलों को भूल गयी हवा की सनसनाहट को तो कबसे महसूस ही नहीं हुई थी आस्था को,
शांता को आवाज़ देकर चाय के लिए बोला ( शांता उसकी एकमात्र साथी थी जो ग्रहसेविका कम सखी ज्यादा थी)
जतिन से जब मिली थी तब भी तो काले बादल घुमड़ कर बरस रहे थे और आस्था पानी से बचने को एक टपरी पर खड़ी थी वहां पहली मुलाकात हुई थी जतिन से, शर्ट के बटन खुले थे बड़ी बड़ी आँखों से आसमान को देख रहा था पानी से भीगी जुल्फें माथे पर चिपकी हुई थी, आस्था ने कुछ पल जतिन को देखा और फिर इधर-उधर देखने लगी, जतिन की नजरे आसमान से होती हुई आस्था पर ठहर गयी साँवली सी आस्था उसको बहुत अच्छी लगी, बारिश हल्की हुई और आस्था चली गयी ।
दो दिन की छुट्टी के बाद आस्था ऑफिस गयी काम कर रही थी उसकी मेज को किसीने बजाया आंखे ऊपर की तो पीले दांतों से भद्दी हँसी हसते हुए यादव जी खड़े थे जो कि आस्था के कॉलीग थे, उनकी शिकायत ना जाने कितनी बार आस्था ने मिश्रा जी से की पर कुछ हुआ नहीं, आस्था ने सिर नीचे किया और अपना काम पूरा करने लगी,
शाम को ऑफिस से निकली तो नजर सामने टपरी पर गयी वो आज भी वहीं खड़ा था, आस्था ने ऑटो लिया और घर चली गयी,
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अब तो जैसे ये रोज का काम ही हो गया, रोज ही जतिन आस्था को टपरी पर दिखता, 6 महीने बाद सर्दी की गुलाबी शाम में जब आस्था ऑफिस से निकली और टपरी की तरफ चल दी, वो आज भी वहीं था बिल्कुल बेपरवाह अंदाज ने जैसे कि रोज होता है, आस्था ने चाय के लिए बोला और एक तरफ खड़ी हो गयी, जतिन पास आया और बोला मेरा नाम जतिन है आपकी आंखे मुझे बहुत अच्छी लगती है, आज मैं इस शहर से जा रहा हूं ईश्वर से कामना की थी कि एक बार आपसे बात कर लूं और भगवान ने मेरी सुन ली,
आस्था को समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या कहे क्यूंकि रोज जतिन को वंहा देखने की उसकी आदत बन गयी थी ,उसका दिल कब टपरी की तरफ देखते देखते धड़कने लगता उसको पता ही नहीं चलता,
पर आज जतिन के बोलने से उसको अह्सास हुआ अपनी खामोश मोहब्बत का,
जतिन चला गया एक ना लौटने वाले मुसाफिर की तरह,
आस्था की जिंदगी की शाम चली आयी 15 साल पूरे 15 साल हो गये जब जतिन को पहली बार देखा था ।
शांता चाय लेकर आयी और आस्था के पास ही बैठ गयी ” दीदी चाय ले लो ” आस्था की आंखे छलछला गयी,
चाय पीते हुए बादलों को देखते हुए पलकें बंद कर ली आस्था ने क्यूंकि उसकी यादो पर सिर्फ उसका हक था।
शुभांगी
इसी नाम से लिखती हूँ