कौन अपना कौन पराया” – ऋतु अग्रवाल

    राजीव और दिव्या दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे। दोनों एक दूसरे से शादी करना चाहते थे पर दोनों के परिवार वाले इसके सख्त खिलाफ थे क्योंकि राजीव पंजाबी था और दिव्या मारवाड़ी। परिवार वाले इस अंतर्जातीय विवाह के सख्त खिलाफ थे। दिव्या और राजीव ने उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की पर घरवालों की जिद ने उन्हें कोर्ट मैरिज करने के लिए मजबूर कर दिया।

     विवाह के बाद दोनों ने अपने परिवार वालों को मनाने की आखिरी कोशिश की पर दोनों के परिवार वालों ने उनसे अपने सभी संबंध खत्म कर दिए। परिवार की तरफ से निराश होकर दोनों अपना नया आशियाँ बनाने निकल पड़े। राजीव और दिव्या के पास आर्थिक सहारे के रूप में थी तो केवल राजीव और दिव्या की नौकरी। पर ऐसे समय में दोनों के मित्रों ने उनका बहुत सहयोग किया। जैसे तैसे एक बस्ती में एक कमरे के मकान में उनकी गृहस्थी की शुरुआत हुई। मित्रों से उधार लेकर घर का जरूरी सामान जुटाया गया।

       सुबह से शाम तक ऑफिस में खटने के बाद राजीव और दिव्या शाम को थके हारे घर लौटते। फिर थोड़ी देर आराम कर कपड़े,बर्तन, खाना बनाने का काम मिलजुल करते। यूँ ही समय बीत रहा था। बड़ी मितव्ययिता से घर खर्च चलाकर दोनों घर में एक-एक सामान जोड़ रहे थे। इस बीच दोनों के ही परिवार वाले ना कभी उनसे मिलने आए और ना ही कभी फोन पर उनका हाल-चाल ही पूछा।

       कभी-कभी दिव्या बहुत उदास हो जाती थी तो राजीव उसे समझाता कि समय बीतने के साथ सब सही हो जाएगा। इसी बीच दिव्या की तबीयत खराब रहने लगी। राजीव और दिव्या डॉक्टर के पास गए तो पता चला कि दिव्या माँ बनने वाली है। राजीव की खुशी का ठिकाना नहीं था। दिव्या की हाई रिस्क प्रेगनेंसी थी इसलिए राजीव ने दिव्या से नौकरी छोड़ देने को कहा।

      एक तो वैसे ही तंगहाली उस पर दिव्या का नौकरी छोड़ना और दवाइयों और अस्पताल के खर्चे। दिव्या और राजीव को रह रह कर अपने घरवाले याद आते पर उन लोगों ने दिव्या और राजीव से सारा संपर्क खत्म कर दिया था। पर कहते हैं ना, ईश्वर किसी को असहाय नहीं छोड़ते। राजीव और दिव्या के मित्रों ने अस्पताल का सारा खर्च अपने सिर ले लिया।

     उससे भी प्यारा साथ मिला मकान मालकिन काकी का और बस्ती वालों का। कभी पड़ोस की कोई काकी दिव्या के सिर की मालिश कर देती तो कभी कोई आँटी खट्टे मीठे अचार डाल कर ले आती,कभी किसी के यहाँ से कोई व्यंजन आ रहा है तो कभी कोई बड़ी बूढ़ी आकर ऐसी हालत में रखने वाली सावधानियाँ और गुर बताने लगती। और तो और आसपास के बच्चे भी दिव्या से बतियाने चले आते ताकि दिव्या को सूनापन महसूस ना हो। यूँ ही हँसते बतियाते कब नौ माह बीत गए, दिव्या को पता ही नहीं चला।



       डिलीवरी के समय भी उनकी मकान मालकिन काकी  पूरे समय दिव्या के साथ अस्पताल में रही। आज दिव्या अपनी प्यारी सी बच्ची के साथ घर वापस आई है। सब ने मिलकर पूरा मोहल्ला सजा दिया और उत्सव का माहौल बना दिया। दिव्या ऑटो रिक्शा से उतरी तो सामने ही उसकी पापा, मम्मी,भाई और राजीव के पापा, मम्मी खड़े थे जो बच्ची के होने की खबर सुनकर आए थे।

        दिव्या के मायके और ससुराल वाले बच्ची की छठी की रस्में निभाने आगे बढ़े तो काकी पीछे हो गई। दिव्या की माँ बच्ची के लिए मायरे का सामान निकालने लगी और दिव्या की सास बच्ची को कपड़े और कंगन पहनाने के लिए आगे बढ़ी।

     “रूक जाइए, आप लोग!  सबसे पहले काकी गुड़िया को गोद में लेकर शहद चटाएँगी और नानी और दादी की सारी रस्में भी वही पूरी करेंगी।” राजीव की आवाज से माहौल में निस्तब्धता छा गई।

      “पर बेटा! रस्म तो हम नानी और दादी ही पूरी करेंगे।” राजीव की माँ ने कहा।

       “जी माँ! रस्म तो बच्ची की नानी और दादी ही पूरी करेंगी जो कि हमारी काकी माँ है जिन्होंने पूरे नौ महीने दिव्या को एक सास और माँ दोनों का प्यार दिया है। मेरे पीछे से काकी माँ और बस्ती के लोगों ने दिव्या का इतना ख्याल रखा जितना मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था और आप लोग जो बच्चे होने पर चले आए हो, आप लोगों ने एक बार भी हमारे बारे में यह पता किया कि हम जिंदा भी है या मर गए।” राजीव का स्वर बिल्कुल ठंडा था।

      “पर बेटा, हम तुम्हारे अपने हैं।” दिव्या की माँ ने आगे बढ़कर कहा।

       “नहीं माँ! अपने वह होते हैं जो तकलीफ में साथ खड़े होते हैं। जो दुख में साथ ना दे वोसुख के साथी भी नहीं हो सकते। माना, राजीव और मैंने अपनी मर्जी से शादी की पर हम आपका आशीर्वाद चाहते थे पर आपने तो हमें मरा ही समझ लिया। अगर इन लोगों का साथ नहीं होता तो ना जाने हम कहाँ ठोकरें खा रहे होते। माँ यह समय ही बताता है कि कौन अपना है कौन पराया है।” दिव्या ने गुड़िया को काकी माँ की गोद में देते हुए कहा। 

#पराये _रिश्ते _अपना _सा _लगे 

@सर्वाधिकार सुरक्षित 

मौलिक सृजन 

ऋतु अग्रवाल 

मेरठ

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