शुभा जब भी बाहर निकलती,हर अपरिचित से संवाद करना आरंभ कर देती थी।इस स्वभाव से कभी नुकसान पहुंचा हो ऐसा भी नहीं,पर परिवार में उसकी इस आदत से सभी उस पर हंसते थे। सब्ज़ी वाला,ऑटो वाला,रेहड़ी वाला,अखबार देने वाला या ब्रेड बेचने वाला ,हर किसी से सुख -दुख की बात कर लेती थी वह।सब्जी वाला बाबा बिना उसे सब्जियां दिए जाता ही नहीं था।कभी बिहार से लाया हुआ मिरचा का अचार,कभी घर की छोटी-छोटी भिंडी-तरोई बड़े चाव से लेकर आता था। ब्रेड वाले लड़के को तो उसने अपने बेटे की किताबें दीं थीं दसवीं की पढ़ाई के लिए।
एक शिक्षिका होने के कारण बहुत सम्मान था शुभा का,छात्रों की प्रिय थी वह।पति अक्सर चिढ़ाते थे”तुम्हारे साथ कहीं जाना मतलब स्कूल खुल जाना।कितना बात करती हो?”
शुभा खुश होकर चुप ही रहती।बचपन से ऐसी ही थी,सबकी लाड़ली।सब की मदद करने वाली।
आज ट्रेन में बैठकर जब इधर उधर नजर दौड़ाई तो कोई भी परिचित चेहरा नहीं दिखा उसे।एक नॉवेल निकालकर पढ़ना शुरू कर दिया उसने।तभी एक सुंदर सी लड़की उस कंपार्टमेंट में चढ़ी। दुपट्टे से चेहरा ढंका हुआ था,बस आंखें खुलीं थी।आदतन जैसे ही उन आंखों की तरफ देखा, बड़ी जानी-पहचानी सी लगी आंखें।दिमाग पर जोर देने लगी शुभा,किस बैच की है यह लड़की?मैंने पढ़ाया है क्या?या कहीं मिली हूं क्या पहले इससे?
कुछ भी याद नहीं आ रहा था।लड़की संयत होकर बैठ गई थी।अपना दुपट्टा हटा दिया उसने चेहरे से।बहुत खूबसूरत लग रही थी।संवाद तो करना ही पड़ेगा,सोचकर शुभा ने शुरुआत की”कहां जा रहे हो बेटा?”
“मैं कलकत्ता जा रहीं हूं,आंटी।उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।”अरे वाह कलकत्ता,क्या तुम बंगाली हो?शुभा ने पूछा तो उसने कहा” नहीं-नहीं ,मैं ठाकुर हूं। दार्जिलिंग में रहती हूं।”
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“कौन- कौन हैं घर पर”शुभा की उसमें दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी।
“मां और एक छोटा भाई है”।वह ज्यादा कुछ बताने को उत्सुक नहीं थी।अचानक बहुत सारे फोन कॉल्स आने लगे उसे।एक दम से असहज हो गई थी वह।अगले स्टेशन पर एक बुजुर्ग पुरुष आकर बैठा उसके पास।शुभा को उसे देखकर भी लगा,जैसे पहले कहीं देखा है।दोनों की बातचीत होने लगी।लड़की की बातों में बगावत झलक रही थी और पुरूष की बातों में सख्ती लगी शुभा को।
अपनी याददाश्त पर जोर देने के लिए शुभा ने अपनी आंखें बंद जैसे ही की,उन दोनों को लगा, वह सो गई।उनकी बातचीत से यही निष्कर्ष निकल रहा था कि लड़की कई सालों के बादअपने घर जा रही थी।वह पुरुष उसका रिश्तेदार नहीं बल्कि मालिक था।कुछ काम करती थी लड़की उसके लिए,और उसकी मर्जी के ख़िलाफ़ घर जा रही थी।
शुभा ने खाने का सामान निकालकर खाना शुरू किया और उस लड़की को भी दिया।पहले तो लड़की ने मना किया पर आग्रह करने पर मान गई।वेंडर से कुछ खरीदा उसने और शुभा की तरफ बढ़ाया।अपनी कुर्ती की आस्तीन उठाई थी उसने,खाने के पहले।शुभा की नजर उसके दाहिने बाजू पर जैसे ही पड़ी ,उसको यकीन हो गया कि इस लड़की को पहले कहीं देखा है।
कैसे पूछे,क्या पूछे?सोच ही रही थी शुभा कि वह बुजुर्ग वॉशरूम जाने के लिए उठा।उसके जाते ही शुभा ने लड़की से कहा”देखो बेटा,मैं शायद मिली हूं तुमसे पहले कहीं।कहां यह मुझे याद नहीं आ रहा।तुम्हें नहीं लग रहा ऐसा? यह आदमी कौन है बेटा?तुम्हारा कोई रिश्तेदार हैं क्या??”
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लड़की ने आश्चर्य से शुभा की तरफ देखा,”मैं पिछले सात सालों के बाद बाहर निकली हूं आंटी।मुझे याद नहीं आ रहा कि मैं आपसे मिली हूं कि नहीं।”
“अच्छा-अच्छा,तुम पिछली बार कहां गई थी ट्रेन से?याद है कुछ?”शुभा ने संवाद बनाए रखा।
“आंटी ,सात साल पहले यह आदमी मुझे दार्जिलिंग से जबरदस्ती उठाकर लाया था, कलकत्ता में बेचने के लिए।मेरे भाई को अपने किसी खास आदमी के पास बांधकर रखा था इसने।मां बीमार रहती थी मेरी,इससे कुछ रुपए लिए थे उधार उन्होंने।इस आदमी ने मेरे भाई को जान से मारने की धमकी देकर मुझे अगवा कर लिया ,और कलकत्ता में बेच दिया था।सात साल तक मैं निकल नहीं पाई।अभी मां के मरने की खबर मिलने पर दो दिन के लिए जाने की अनुमति दिलवाई है इसने हमारी मालकिन से।”
“ओह !!!!!सात साल पहले तुम क्या जलपाईगुड़ी एक्सप्रेस में बैठी थी?”शुभा ने पूछा अचंभित होकर।”हां आंटी,उसी ट्रेन में लेकर आया था यह मुझे।”
“तुमने हरे रंग की फ्राक पहनी थी क्या?तुम्हारे बाजू में चोट लगी थी उस वक्त क्या???शुभा का दिल बैठने लगा था।” “हां शायद आंटी।मेरे बाजू में इसने ही लकड़ी से दागा था।मेरे भाई को मारने की धमकी देकर,मुझे जबरदस्ती लेकर आया था।मैं किस मुंह से वापस घर जाती?बस पैसे भिजवाती रही मां को।”लड़की ने शांत होकर जवाब दिया।
“अच्छा सुनो,अब निकलना चाहती हो इसके चंगुल से तुम?”शुभा का मन पसीजने लगा था।”
“नहीं आंटी,अब कोई और काम कर नहीं पाऊंगी।मां भी नहीं रही।भाई मुझे पहचानने से इंकार करता है।मैं ब्यूटी पार्लर का काम भी कर लेती हूं।अब कहीं और जाकर कोई फ़ायदा नहीं।”
इतने में ही वह बुजुर्ग वापस आ गया।
अब शुभा को सात साल पहले की घटना अच्छी तरह से याद आ गई।अपनी बेटी को लेकर अपने मामा के घर आई थी घूमने। दुर्गापुर, बर्धमान,कटवा, बैरकपुर में रिश्तेदारों से मिलकर और कुछ दिन रहकर सिलीगुड़ी जा रही थी अपनी छोटी मौसी के पास।तभी इस लड़की को देखा था ,इस आदमी के साथ।लड़की के बाजू में ताज़ा घाव था और आंखें रो-रोकर सूजी हुई थी। कंपार्टमेंट में ज्यादा भीड़ नहीं थी।महिलाएं एक भी नहीं थी।शुभा की बेटी तब नौंवी की परीक्षा दे चुकी थी।लड़की को देखकर मन में बार-बार ख्याल आया था तब,कि सब ठीक नहीं है।लड़की की आंखों में सूखे हुए आंसू उसे चीर रहे थे अंदर तक।अपनी बेटी को भी बताया था उसने।बेटी ने तब समझाया था कि हम खुद नई जगह में हैं।साथ में कोई पुरुष भी नहीं।बगैर सोचे-समझे किसी इंसान पर उंगली कैसे उठा सकती हैं आप? शुभा को यह भी याद आ गया कि लड़की के एक पैर में चप्पल नहीं थी। बार-बार अपनी सीट से उठ जा रही थी।इस आदमी ने कसकर पकड़ा हुआ था हांथ।
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हे भगवान!तब भी मेरे दिल ने सही इशारा किया था कुछ ग़लत होने का।इस लड़की का चेहरा कभी नहीं भूला मुझे।उसकी रोकर मुरझाई हुई आंखें अक्सर दिखती थीं रातों को।परिवारमें सिर्फ बेटी को ही पता था ,इस बात का।
आज सात साल के बाद फिर से उसी सफ़र में आना और उसी लड़की से मुलाकात होना क्या पूर्व नियोजित था।आज पहली बार पछतावा हो रहा था कि तब मैंने अपने दिल की बात मान ली होती, तो शायद एक बेटी यूं घर से बेघर नहीं होती।क्यों मैंने हिम्मत नहीं की तब इस गुड़िया से बात करने की?शायद अपनी बेटी के साथ अकेले सफ़र की असुरक्षा ने दिल की समझाइश को अनदेखा कर दिया था।एक बेटी हारी थी उस दिन और शायद एक मां भी।उसके सिर पर प्यार से हांथ फेरकर हांथ में सौ का एक नोट दिया शुभा ने खूब आशीर्वाद के साथ।वह अवाक थी, अनभिज्ञ थी।शुभा को आज ईश्वर ने पछताने का मौका देकर सीख दी ।।
शुभ्रा बैनर्जी