कर्जदार – विनय कुमार मिश्रा

“सरिता! वो कपड़े की दुकान वाले भाई साहब ने उधार देने से मना कर दिया।कहा कि अभी शादी की खरीदारी के ही थोड़े पैसे बाकी हैं” मैंने मायूस होकर धीरे से कहा।दामाद बाबू दूसरे कमरे में थे। शादी के बाद पहली बार नीरू को लेकर आये हैं। बड़े साधारण तरीके से शादी निपटाई फिर भी रिश्तेदारों और संबधियों की खातिरदारी में सर पर थोड़ा उधार हो गया है। दामाद बाबू अच्छी नौकरी में हैं मगर वो और उनके घर वाले इतने अच्छे हैं कि हमसे कुछ मांगा नहीं। पर हमारा कुछ फर्ज तो बनता ही है। पहली बार आये हैं तो खाली हाथ कैसे विदा करूं। एक छोटे से कर्मचारी के लिए ये बड़ी मुश्किल वक़्त है। मैं अपने माथे पर आए पसीने को पोछ ही रहा था कि पत्नी ने सुझाव दिया

“पड़ोस के गुप्ता जी से कुछ पैसे उधार ले लो..दामाद बाबू जाने के लिए तैयार हो रहे हैं। खाली हाथ नहीं भेज सकते उन्हें”

हमारे लिए किसी से उधार लेना कोई नई बात नहीं थी।मेरे कदम फिर से बढ़ चले अपनी शर्मिंदगी को किनारे रखने,कि तभी सामने दामाद बाबू को देख मैं ठिठक गया

“दामाद जी आप!” शायद उन्होंने पूरी बात सुन ली थी।

“आप मुझे देने के लिए किसी से उधार लेने जा रहे हैं पापा?मैं अब आपका अपना हूँ !अब आपकी परेशानी मेरी अपनी है। आपका यूँ किसी के आगे शर्मिंदा होना क्या मुझे अच्छा लगेगा?”

मैं उनसे नज़रे भी नहीं मिला पा रहा था। ये सोचकर कि अब नीरू और हमारी क्या इज़्जत रह गई इनकी नज़र में

“वो.. दरअसल ..मैं..”

अपनी झूठी शान को छुपाते हुए मेरी जुबान साथ नहीं दे रही थी

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या जवाब दूँ।

“पापा दिखावे से कहीं ज्यादा अच्छा अपनी खुद की स्थिति देखना होता है! आप बड़े हैं।आपसे ये सब कहते अच्छा नहीं लग रहा है। पर एक बेटे के नाते आप आज अपनी सारी उधारी बताएंगे”

“बस बेटे..बस”  मेरे आँसू बह निकले। उन्होंने गले लगा लिया

“आप मुझे अपने आशीर्वाद और इस वादे के साथ विदा कीजिये पापा कि फिर कभी दिखावे के लिए कर्ज नहीं लेंगे”

मैंने वादा किया कि कभी कर्ज नहीं लूंगा, मगर  इस रूप में एक बेटा देकर, मेरी किस्मत ने मुझे कर्जदार जरूर बना दिया..!

विनय कुमार मिश्रा

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