कर्ज़ नहीं, फ़र्ज है – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

  ” इसमें बड़ी बात क्या है मामाजी!… मैं तो उनका बेटा हूँ…पाल-पोसकर बड़ा किया तो इसमें अपनों का एहसान कैसा? ये तो उनका फ़र्ज़ था जो उन्होंने किया।” नितिन ने लापरवाही से कहा।

  मामाजी बोले,” पर बेटा….।” द्वारिकानाथ जी ने उनके कंधे पर हाथ रखकर धीरे-से थपथपाया जैसे कह रहें हों, रहने दो…कहने से कोई फ़ायदा नहीं है।

          द्वारिकानाथ जी बैंक में कैशियर थे।अपनी सीमित आमदनी में उन्होंने तीन बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा देने में कोई कमी नहीं की थी।पत्नी सुमित्रा एक सुघड़ गृहिणी थी जो पति के सुख-दुख में साथ निभाना बखूबी जानती थी।दो बेटियों के बाद जब नितिन का जन्म हुआ तब उन्होंने पत्नी से कहा था,” सुमित्रा…अब हमारा परिवार पूरा हो गया है।”

         बड़ी बेटी अंजू की पढ़ाई में विशेष रुचि नहीं थी लेकिन खाना पकाने और सिलाई-बुनाई में इतनी कुशल थी कि उनके मित्र ने खुद आगे बढ़कर अपने बेटे के लिये अंजू का हाथ माँग लिया था।छोटी बेटी मंजू बीएड करके स्कूल में पढ़ाने लगी।साल भर बाद द्वारिकानाथ जी उसका विवाह कराकर एक ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये।

      नितिन महत्वाकांक्षी था।बीटेक करने के बाद उसने पिता से एमबीए करने की इच्छा ज़ाहिर की।दो बेटियों के विवाह के बाद द्वारिकानाथ जी के हाथ ज़रा तंग हो गये थें, घर बनवाने का लोन तो चल ही रहा था तो अब…।तब उन्होंने गाँव की ज़मीन का आधा हिस्सा बेच दिया ताकि नितिन एमबीए की पढ़ाई कर सके।

       नितिन मेहनती तो था ही, उसे मुंबई की ही एक बड़ी कंपनी में ज़ाॅब मिल गई।डेढ़ साल बाद उसने अपनी ही क्लासमेट रुचि के साथ कोर्ट-मैरिज़ कर लिया और वहीं सेट हो गया।बेटे की खुशी में माता-पिता को खुश होना ही पड़ता है, यही सोचकर द्वारिकानाथ और उनकी पत्नी ने अपने मन को समझा लिया।

     नितिन की जब भी याद आती तो दोनों मुंबई जाकर मिल आते।पोते मनु के पहले जन्मदिन जब दोनों मुंबई गये तो बहू ने कहा कि आप लोग यहीं क्यों नहीं रह जाते।नितिन ने कहा कि हाँ पापा..तीन महीने बाद तो आप रिटायर हो ही रहें तो…।तब उन्होंने हँसकर कह दिया कि ये महानगर की लाइफ़ हमें रास नहीं आयेगी।

       रिटायर होने के बाद द्वारिकानाथ जी पत्नी संग अपनी खेती-बाड़ी देखते और एक-दूसरे के साथ समय बिताते।फिर उनकी पत्नी अस्वस्थ रहने लगीं।बहुत इलाज़ कराया लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ और एक दिन उन्हें अकेला छोड़कर उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

     खाली घर द्वारिकानाथ जी को काटने लगा।फ़ोन पर बेटे-बहू से बात कर लेते तो जी हल्का हो जाता लेकिन उसके बाद फिर से उन्हें उदासी घेरने लगती।तब नितिन ने उनसे कहा कि पापा…माँ अब रहीं नहीं और दोनों दीदी भी अपने-अपने घर में खुश हैं तो आप हमारे पास आ जाइये।खेती के काम के लिये मैं एक आदमी रख देता हूँ।इस बार में वो बेटे को ना नहीं कह पाये और घर में ताला लगाकर मुंबई चले आये।

    घर में पोते के साथ खेलने और उससे बतियाने में उनका मन लगने लगा था।कभी-कभी नितिन भी उनके पास बैठ जाता था।फिर मनु स्कूल जाने लगा तो वो फिर से अकेले पड़ गये।नितिन भी अपने काम में व्यस्त हो गया और बहू अपनी किटी पार्टी में।वो किससे बात करे.. घर की दीवारों से वो क्या बात करें। उन्होंने बेटे से अपनी व्यथा कही तो उसने कहा,” पापा..बैठने के लिये टाइम किसके पास है।” और वो निरुत्तर हो गये।

        एक दिन नितिन के मामाजी आये, उन्होंने अपने जीजाजी को घुटते देखा तो नितिन से बोले कि अपने पिता को भी थोड़ा समय दो…।जवाब में नितिन भड़क गया और…।दो दिन के बाद मामाजी चले गये और द्वारिकानाथ जी ने भी अपनी ज़िंदगी के साथ समझौता कर लिया।

     एक दिन मनु अपनी आया चंदा के साथ पार्क में खेलने गया था।न जाने कैसे…झूले से उतरते समय वह गिर गया।सिर में चोट लगी, खून बहने लगा और दाहिने पैर में खरोंचे भी आईं।चंदा तो घबरा गई, उसने तुरंत द्वारिकानाथ जी को फ़ोन किया।फिर नितिन को सारी बात बताकर बोली कि दादाजी के साथ सिटी हाॅस्पीटल जा रहें हैं।

     नितिन ने तुरंत रुचि को फ़ोन किया और हाॅस्पीटल दौड़ा।ट्रैफ़िक के कारण उसे हाॅस्पीटल पहुँचने में आधा घंटा लग गया।रिसेप्शन पर पेशेंट का नाम बोला और वार्ड में जाने लगा तो डाॅक्टर को देखते ही पूछा,” डाॅक्टर साहब, मनु कैसा है…ज़्यादा चोट तो नहीं आई…।”

     डाॅक्टर हँसते हुए बोले,” सब ठीक है।आपके पिता ने फ़ुर्ती दिखाई, इसीलिए ब्लीडिंग ज़्यादा नहीं हुई।कल आप उसे घर ले जा सकते हैं।वैसे मिस्टर नितिन..,आप बहुत लकी हैं जो इतने केयर करने वाले पिता मिले हैं।वो देखिये…मनु अपने दादू के साथ कितना खुश है।”

     नितिन कुछ नहीं बोल पाया।कुछ दिन पहले ही तो वो द्वारिकानाथ जी बोला था कि आपसे कुछ नहीं होने वाला…आप सठिया गये हैं।और आज उसी पिता ने उसके मनु की…।वह अपने पिता के पैरों पर गिरकर रोने लगा।बोला,” पापा..आपने मनु की जान बचाकर बहुत बड़ा उपकार किया है।आपका ये एहसान…।”

   द्वारिकानाथ जी ने बेटे को उठाया और बोले,” अपनों का एहसान कैसा..ये तो मेरा फ़र्ज़ था बेटा।तुम जो मनु के लिये करते हो, क्या वह कर्ज़ है? नहीं ना..बेटा…माता-पिता जो अपने बच्चों के लिये करते हैं वो कर्ज़ नहीं उनका फ़र्ज होता है।बस…अपने व्यस्त जीवन में से थोड़ा वक्त मनु के निकालो और थोड़ा इस बूढ़े के लिये…।” कहते हुए मुस्कुराये और नितिन को अपने सीने-से लगा लिया।तब तक रुचि भी आ गई।आज उसे भी अपनी गलती का एहसास हो गया था।

      मनु जो काफ़ी देर से अपने पिता को रोते देख रहा था, अचानक ताली बजाते हुए बोल पड़ा, “आ..हा…आज तो पापा को भी डाँट पड़ी है।” फिर तो सभी हँस पड़े।वहाँ खड़े नर्स और वार्ड-बाॅय भी मनु की बात पर अपनी हँसी नहीं रोक सके।

                              विभा गुप्ता

                                स्वरचित 

# अपनों का एहसान कैसा? ये तो मेरा फ़र्ज़ था

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