“कोरोनमा” – डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा 

मैं एक शिक्षिका हूँ, तो आप जानते ही होंगे की शिक्षक की आदत होती है शिक्षा देते रहना।कोई ले या न ले उसकी मर्जी।सो मैं भी आदत से मजबूर थी।

मेरे घर हमेशा एक सब्जीवाली आती थी सबसे अन्त में।  एक दिन मैंने पुछ लिया कि तुम सारे मुहल्ले में घूम लेती हो तो तुम्हें मेरी याद आती है!!

वह हँसने लगी,”ना दीदी ऐहन बात न हय।हम जान बुझ के अंत में आते है।आहाँ के बुद्धि वाला बात हमको बढ़िया लगता है येही से अन्तिम में आते हैं।दिन-दुनियां के ज्ञान मिल जाता इहाँ बईठ के।प्रेम -भाव भी एगो चीज है।”

मैं भाव -बिभोर हो गई।उसका यह सिलसिला जारी रहा।मुझे भी उससे लगाव हो गया था।सब्जी तो एक बहाना था।इधर कोरोना का प्रकोप बढ़ने लगा था।  मैंने उसे लाख समझाया। पर वह समझने को तैयार नही जिद पर अड़ी थी कि कुछ नही होगा।

मैं बोली,” ठीक है, लेकिन तुम अब कुछ दिन आना छोड़ दो।कोरोना का खतरा है,उसमें भी तुम्हारा पैर भारी है  कहीं कुछ हो गया तो…!!

वह बोली ,”अरे दीदी गरीब सब को कुछो नहीं होगा।”ई सब बर-बेमारी धनिक सब को होता है ‘हम तो लुट लाते हैं कुट ,खाते हैं ।घर में बैठकर कैसे काम चलीं अँही बताऊ?”

मेरे बहुत समझाने पर मान गई।मैनें कुछ पैसे दिये और  जरूरत पड़ी तो मदद करने का बीरा उठाया।तब जाके मानी।मुझे अपने ज्ञान पर नाज हो रहा था।कम से कम किसी को तो बचाया इस निष्ठुर महामारी से।धीरे-धीरे सरकार ने ही पूरी तरह से बन्दी की घोषणा कर दी।मुझे खुशी हुई चलो अच्छा हुआ बेचारी अब नहीं घूमेगी ।एक तो सर पर भारी टोकरी ऊपर से पावँ भारी…..।

 



लग -भग तीन महीने हो गए थे।सारे मुहल्ले में साग- सब्जी ठेले वाले लेकर आ रहे थे। मेरा ध्यान सब्जी वाली पर टिका हुआ था।मन में सोच रही थी कि क्या हुआ होगा…या होने वाला होगा।फिर सोचा किसी दिन उधर जाना हुआ तो मिल लुंगी। पता नहीं क्यूँ अपनापन सा हो जाता है कभी-कभी किसी से।शायद इन्सान हैं हम सब इसिलिए इंसानियत के नाते होता होगा।एक यही तो अंतर है हममें और जीव जंतु में।

ऊपर वाले की कृपा देखिये मुझे मौका मिल गया। मैं एक आवश्यक कार्य से जा रही थी। पता चला कि एक एक्सिडेंट के कारण मेन रोड जाम हो गया है। मैनें वापस लौटने के बदले पिछे की गली से निकलने का मन बनाया।

अचानक से मुझे याद आया कि इसी गली में तो उस सब्जीवाली का  घर है ,मिल लेती हूँ मैं खुद को रोक नहीं पाई। अगल- बगल वाले से पूछ कर मैं उसके दरवाजे पर पहुँच गई। दरवाजा खटखटाया तो सामने वह गोद में बच्चा लिये खड़ी थी। मुझे देखते निहाल हो गई।

आखें भर गई उसकी कहने लगी दीदी,” आहाँ हमरा घरे!”

मैने कहा ,”अरे क्यूँ नहीं आ सकती?”

प्रेम घर देखकर होता है क्या! उसने अंदर बुलाया जिसपर सोती थी उसी चौकी को झाड़-पोछ कर बैठाया।

मैं बोली,” पहले बताओ बेटा है कि बेटी? उसके मुहँ का जैसे रंग ही उड़ गया!

रोआँसी होकर बोली…बेटी है दीदी।

मेरे अंदर का शिक्षक फिर से जग गया। उसे मन -भर समझाया।चलते- चलते बच्ची के हाथ में कुछ शगुन देते हुए पुछा,क्या नाम रखा है बेटी का…?

जी “कोरोनवा”……

मेरे मुँह से निकला-क्या कहा?

यही नाम मिला तुमको…बीमारीवाला! वह झट से बोली, “दीदी  बेटी आ बेमारी में कोनो अन्तर थोड़े है”।

मेरा ज्ञान हँसता हुआ वापस गठरी में समा गया। और अंदर से आवाज आई, “हीरा तहां ना खोलिये ज्यूं हो खोटी हाट कस के बांधो गाठरी उठ कर चल दो बाट।”

 

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा 

मुजफ्फरपुर, बिहार

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