कलंक – डाॅक्टर संजु झा : Moral Stories in Hindi

कभी-कभी अनजाने में ही व्यक्ति के हाथों कुछ ऐसी घटना  हो जाती है,जिसका कलंक उसके सिर से ताउम्र नहीं मिटता है।सुनील सिंह के हाथों बचपन में ऐसी  ही घटना अनजाने में घटित हो गई थी और उस घटना का कलंक जब-तब उनके जीवन को काली स्याही से रंग देता है।

आज भी सुनील सिंह जब किसी के हाथों में बंदूक देख लेते हैं,तो उनके मन पर भय और आतंक का साया मँड़राने लगता है।उस घटना को याद कर भय से उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं।वही खौफनाक  मंजर उनकी आँखों में उतर जाता है।पत्नी रीना उन्हें बार-बार समझाते हुए कहती है-” सुनील!उस घटना का कलंक आप अपने सर पर मत लो।वो एक हादसा था।उसके लिए आप खुद को दोषी मत मानो।”

सुनील सिंह पत्नी से कहते हैं -” रीना!भाई की हत्या का कलंक तो जिन्दगी भर के लिए मुझ पर लग ही चुका है।उस घटना के बीस वर्ष गुजरने के बावजूद मैं  भूल नहीं पाता हूँ।यदा-कदा वो घटना सपने में आकर मुझे दहला जाया करती है।अपने छोटे भाई की मौत का कलंक मेरे सिर पर मँड़राता रहता है।कैसे भूल जाऊँ?”

उस घटना को समझने के लिए सुनील सिंह की पारिवारिक पृष्ठभूमि समझना आवश्यक है।सुनील सिंह के पिता ठाकुर शमशेर सिंह  बहुत ही संपन्न घराने से ताल्लुक रखते थे।बाप-दादों की जमींदारी थी।घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।घर में नौकर-चाकर भरे-पड़े रहते थे।

उनके पिता और दादा जंगलों में शिकार करने जाया करते थे।बाद में जानवरों का शिकार प्रतिबंधित होने पर भी उस परिवार का बंदूक के प्रति मोहभंग नहीं हुआ था। अभी भी घर में पाँच बंदूकें थीं,जो शादी-ब्याह तथा अन्य जलसों में  शान प्रदर्शन  हेतु चला करतीं थीं।

ठाकुर शमशेर सिंह की पत्नी का नाम नीता  सिंह और  दस वर्षीय पुत्र  का नाम  सुनील सिंह  था।दस बर्ष के बाद  ठाकुर शमशेर सिंह  को दूसरे पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई थी।इस मौके पर ठाकुर साहब की हवेली में जश्न का माहौल था।उनकी हवेली दुल्हन की तरह रोशनियों से जगमगा रही थी।

खुशी के मौके पर ठाकुर साहब तथा उनके सगे-सम्बन्धी बन्दूक से हवाई फायरिंग करते हुए झूम रहे थे।ठाकुर साहब का बड़ा पुत्र सुनील छोटे भाई के रुप  में नया खिलौना पाकर उसे एकटक प्यार से देख रहा था।

परिवार में काफी दिनों बाद नए मेहमान  आने से काफी खुशी थी।सभी की नजरें छोटू पर ही लगीं रहती थीं। बालक सुनील भी स्कूल से आने के बाद उसी के इर्द-गिर्द घूमता रहता था।परिवार में छोटू सभी की आँखों का तारा बना हुआ था।

वक्त बदलते देर नहीं लगती है।देखते -देखते छोटू तीन साल का हो गया।सुनील के  स्कूल  से आने के बाद  छोटू उसी के साथ खेलता रहता।उस हादसे के दिन छुट्टी थी।सुबह-सुबह नीता ने अपने दोनों बेटों को नाश्ता करवा दिया और सुनील से कहा -” बेटा!मैं अन्य काम करने जा रही हूँ।तुम छोटू का ख्याल  रखना। बाहर मत जाना”।

माँ की बात सुनकर सुनील घर में ही दोनों भाई खेलने लगें।इधर सुनील के पिता ठाकुर शमशेर सिंह  ने एक  नौकर से बंदूकों की सफाई के काम आदेश दिया।बीच-बीच में बंदूकों की सफाई होती रहती थी।नौकर ने आलमारी से पाँचों बंदूक निकालकर बाहर सफाई के लिए  रख दी।उसी समय किसी ने उसे आवाज दी।नौकर को पता था कि बंदूकें खाली रहतीं हैं,इस कारण  वह आवाज देने पर बाहर चला गया।

कुसंयोगवश दोनों भाई खेलते-खेलते बंदूकवाली जगह पर पहुँच गए। सुनील ने खेल-खेल में एक बंदूक उठा ली और दोनों भाई  चोर -पुलिस खेलने लगें।सुनील ने अपने छोटे भाई की तरफ बंदूक तानते हुए  कहा -“छोटू!तुम चोर हो,तुमने चोरी की है।मैं पुलिस हूँ,तुम्हें गोली मार दूँगा!”

इतना कहते ही सुनील की अंगुली बंदूक की ट्रिगर पर चली जाती है और अनजाने में दब जाती है।अचानक से गोली लगने से छोटू खून से लथपथ हो जमीन पर गिर जाता है।यह देखकर सुनील के होश-हवास गुम हो जाते हैं। हाथ से बंदूक फेंकते हुए उसने जोर से माँ को पुकारा।

बंदूक की आवाज सुनते ही उसकी माँ दौड़ी आ ही रही थी।उसने अपने लाडले को को पलभर में अंक में समेट लिया।छोटू भाई की तरफ उँगली उठाते हुए कुछ कहना चाहता था,परन्तु पलभर में नन्हीं-सी जान के प्राण-पखेरु उड़ चुके थे।

उस हादसे से अचानक हवेली में मौत का हाहाकार मच गया।देखते-देखते ही हँसते-खेलते परिवार में मौत कहर बनकर टूट पड़ी।सुनील के सिर पर छोटे भाई की हत्या का कलंक लग चुका था।सुनील हतप्रभ-सा हो गया था।उसे समझ में नहीं आ रहा था कि

खाली बंदूक से उसके भाई की मौत कैसे हो गई?परन्तु बाद में पता चला कि  किसी नौकर की लापरवाही से एक गोली बंदूक में ही रह गई थी,जिसके बारे में किसी को पता नहीं था।सुनील को बस इतनी समझ आ रही थी कि उसके हाथों बंदूक चलने से छोटू की मौत हुई है।माँ की गोद में  छोटू का खून से सना शरीर देखकर वह बेतहाशा रोने जा रहा था।

परिवार के समक्ष बड़ी विकट घड़ी थी।एक बेटा तो गुजर ही चुका था,दूसरा रोते-बिलखते अर्द्ध-विक्षिप्त अवस्था में पहुंच चुका था।कोई समझ नहीं पा रहा था कि एक भरे-पूरे परिवार को किसकी नजर लग गई!घरवाले अचानक हुए इस हादसे से सँभल नहीं पा रहे थे।

पल भर में बिना बीमारी के छोटू ने दम तोड़ दिया था।नीता अपनी गोद में छोटू को समेटे हुए  आशाओं के न टूटने का भ्रम पाले बैठी थी।वह किसी हालत में छोटू को गोद से उतारने को तैयार नहीं थी।बार-बार छोटू को चूमते हुए उसे जगाने की कोशिश कर रही थी।बच्चे के साथ उसका शरीर भी खून से लथपथ हो चुका था।वही स्तब्ध-सा खड़ा सुनील माँ और छोटू को विस्फरित नयनों से देख रहा था।

परिवार के मुखिया ठाकुर शमशेर सिंह ने कलेजे पर पत्थर रखते  हुए  पत्नी और सुनील को सँभाला।ठाकुर  शमशेर सिंह बहुत रसूख वाले थे,इस कारण उन्होंने किसी तरह नाबालिग सुनील को पुलिस के पचड़े से बचा लिया,परन्तु सुनील को सँभालना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा था।

सुनील के मस्तिष्क  में माँ की गोद में खून से लथपथ छोटू का शरीर चित्रित हो चुका था।उस हादसे से सुनील को बाहर निकालना परिवार के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी।दिनभर परिवार सुनील को चारों ओर घेरकर बैठा रहता।परिवार के लिए बड़ी ही विषम परीक्षा की घड़ी थी।एक बच्चा असमय ही काल-कवलित हो चुका था और दूसरा सदमे में था।उस घटना की याद आते ही रात में सुनील सिसकियाँ भरकर रो उठता।आँसुओं के सैलाब से उसका तकिया भींग उठता।वह पसीने से लथपथ होकर चिल्ला उठता -” मैंने छोटू को नहीं मारा!”

माँ उसे सीने से लगाकर कहती -” हाँ!बेटा,तुमने छोटू को नहीं मारा।”

परन्तु परिवार के लाख कोशिशों के बावजूद सुनील के मस्तिष्क से वो बात नहीं निकल पाए रही थी। 

छोटे भाई की हत्या का कलंक सुनील के सिर पर लग चुका था,इस कारण उसमें आत्मग्लानि और अपराध-बोध की भावना बढ़ती ही जा रही थी।उसकी स्थिति देखकर  माता-पिता कलेजे पर पत्थर रखकर छोटू को भूलकर सुनील को सँभालने की कोशिश करते।उन्हें भय था कि छोटू की तरह बड़ा बेटा भी कहीं उनके हाथ से न निकल जाएँ।

माता-पिता की लाख कोशिशों के बाद  भी सुनील उस हादसे से उबर नहीं पा रहा था।उसकी आँखों के आगे सदैव छोटू घूमता रहता।एकांत में वह खुद को धिक्कारते हुए कहता कि मेरी एक छोटी-सी भूल ने मेरे भाई की जान ले ली।माता-पिता उसे समझाते हुए कहते -” बेटा!होनी को कौन रोक सकता है?अगर तुम हिम्मत हार जाओगे,तो हम किसके सहारे जिंदा रहेंगे?”

सुनील उनकी बातों का कोई जबाव नहीं देता,परन्तु उसकी आँखें आँसुओं से भींग उठतीं।

आखिरकार  निराश होकर  सुनील के माता-पिता ने उसे शहर के बड़े मनोचिकित्सक से दिखाया।मनोचिकित्सक ने उन्हें सलाह देते हुए कहा -” यादों से पीछा छुड़ाने के लिए सुनील का स्थान परिवर्त्तन आवश्यक है तथा उसकी नजरों से बंदूक ओझल हो जानी चाहिए। “

मनोचिकित्सक की बात मानते हुए उसके माता-पिता उसे लेकर दूसरे शहर चले गए। 

समय के साथ सुनील की स्थिति बेहतर होने लगी।उसकी कटू यादों पर धूल की पर्तें फैलने लगीं।धीरे-धीरे उसके जीवन में उदासी के बादल छँटने लगें।अब वह पढ़-लिखकर नौकरी करने लगा।शादी और एक बेटा हो जाने के बाद से उसकी जिंदगी में आशा की किरण नए सवेरा के साथ उजाला फैला रही थी।एक दिन सुनील अपने रिश्तेदार की शादी में गया,वहाँ बरातियों के स्वागत में बंदूकें चल रहीं थीं।पत्नी और बेटा उसका हाथ पकड़े हुए थे।उस समय तो वह बिल्कुल नार्मल लग रहा था,परन्तु रात में  उसके सपने में वही मंजर उपस्थित हो गया।वह अपने बेटे को पकड़कर जोर-जोर से चिल्लाते हुए कह रहा था -” छोटू!मैंने तुम्हें नहीं मारा!”

पत्नी उसे झिंझोडकर उठाते हुए कहती है- “सुनील!आँखें खोलो।सब सही सलामत हैं।अतीत की भयानक यादों को अब सदा के लिए  दफन कर दो।”

सुनील आँखें खोलकर देखता है कि उसका बेटा उसे देखकर मुस्करा रहा है।वह भी बेटे के गले लगकर मुस्करा उठा।पत्नी उसे कहती है -” सुनील  तुम पर कोई कलंक नहीं लगा है।वो हादसा एक गुजरा हुआ  अतीत है,जिसे तुमसे अनजाने में हो गया था।अब हमारे परिवार की मुस्कराहट  और बेटा वर्त्तमान है।”

सुनील एक बार फिर से कलंक को पीछे ढ़केलकर वर्त्तमान को सुखद बनाने के प्रयास में लग जाता है।पत्नी और बेटे को अमूल्य संचित निधि समझकर बाँहों में भर लेता है।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)

सत्य घटनाओं से प्रेरित  कहानी।

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