Moral stories in hindi : सास ने भी अमृता की भावना को ना समझते हुए दिव्या का ही साथ दिया। सुधाकर ने भी अमृता की तरफ से बोलना चाहा तो सास ने उनको भी चुप करा दिया। सास ने अमृता को बहू के कर्तव्य याद दिलाते हुए वो झुमके दिव्या को दिला दिए। बेटे के जन्म के बाद भी चालीस दिन के जापे में दोनों सास-ननद ने अमृता को बहुत तंग किया।
इस तरह अमृता के दिल पर ना मिटने वाली कई सारी खरोंच लग चुकी थी।वो तो गनीमत रही कि बेटे के एक साल होते होते सुधाकर का ट्रांसफर दूसरे शहर हो गया और वो अपने एक साल के बेटे को लेकर अपनी नई दुनिया बसाने आ गई। यहां आकर उसको कलहपूर्ण वातावरण से छुटकारा मिल गया।
दो साल बाद प्यारी सी बेटी भी उसकी गोद में आ गई। उसने अपनी सास और ननद से कोई अपेक्षा ना रखते हुए सुधाकर का साथ और वहां पर उपलब्ध कामवाली बाई की मदद से इस बार सही मायने में गर्भावस्था के सुंदर समय को बिताया था।
समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। देखते- देखते पांच-छः वर्ष बीत गए अब अच्छा घर देखकर दिव्या की भी शादी कर दी गई। शादी में भी सुधाकर और अमृता ने बड़े भाई-भाभी के सभी कर्तव्य अच्छे से निभाए वो अलग बात थी कि इतने समय के बाद भी अमृता को घर की बहू के अधिकार प्राप्त नहीं थे।
शादी के बाद भी दिव्या और सासू मां के व्यवहार में अमृता के प्रति कोई बदलाव नहीं था। बस इतना जरूर था अब दिव्या अपनी ससुराल में व्यस्त हो गई थी और एक बेटी की मां भी बन गई थी। सासू मां की भी उम्र हो चली थी अब स्वास्थ्य पहले जैसा साथ नहीं देता था। ससुर जी भी सेवा निवृत हो गए थे तब जबरदस्ती जाकर सुधाकर उन दोनों को अपने साथ ले आए थे।
बच्चे भी बड़े हो रहे थे। अमृता ने पिछली बातों में दिमाग ना लगाने की जगह घर और बच्चों की देखभाल के साथ साथ पेंटिंग्स के रंगों और ब्रश के साथ दोस्ती कर ली थी। पर कहते हैं ना कि समय की गति अभेद होती है,हम अचार भले ही सालों के लिए डाल लें लेकिन पता हमें अगले पल का भी नहीं होता है।
ऐसे ही पूरे विश्व में करोना रूपी महामारी ने अपना जाल बिछा दिया था। पूरे देश में लॉकडाउन लग गया था। पहली लहर तो किसी तरह निकल गई थी पर दूसरी लहर में काफ़ी परिवारों ने अपने लोगों को खो दिया था। एक छोटे से वायरस के आगे बड़े से बड़े डॉक्टर और वैज्ञानिक भी असमर्थ थे। बहुत भयावह समय था। इसी बीमारी की दूसरी लहर की चपेट में दिव्या और इसके पति भी आ गए थे।
दोनों पति-पत्नी चार पांच दिन के अंतराल पर काल गलवित हो गए थे पीछे मासूम सी बच्ची पीहू को अकेली रह गई थी। पीहू मुश्किल से नौ-दस साल की होगी। वो तो एक सहृदय पड़ोसी परिवार में पीहू को अपने यहां शरण दी हुई थी। उन्होंने ही किसी तरह से सुधाकर को फोन करके सारी स्थिति से अवगत कराया था।
अपनी इकलौती छोटी बहन और बहनोई का इस तरह से जाना सुधाकर के लिए हृदय विदारक था। अमृता के सास- ससुर की तो मानों किसी ने दुनिया ही छीन ली थी। जो भी उस छोटी सी बच्ची का सुनता तो कलेजा मुंह को आता। दिव्या के ससुराल में उसके जेठ और देवर ने अपनी जिम्मादारियों के चलते पीहू को अपने पास रखने से मना कर दिया था।
यहां अमृता भी दिव्या और सास के कहे हुए जहरीले शब्दबाण को भूल नहीं पाई थी। उसने कहा जिस घर में आजतक उसे बहू होने का अधिकार ना मिला हो वो उस घर की नाती को कैसे अपना सकती है? वो भी पीहू को अपने पास रखने को तैयार नहीं थी पर सुधाकर की अश्रुपूरित आंखें और ससुर जी की मौन याचना ने उसे चुप्पी साधने पर विवश कर दिया।
सुधाकर जाकर अपने साथ मासूम सी पीहू को ले आए। कहते हैं पीड़ा सबसे बड़ी शिक्षक होती है। वो लड़की पहले भी अपने मामा मामी के यहां आई थी पर तब और आज की पीहू में ज़मीन-आसमान का अंतर था। वो बहुत सहमी सी लग रही थी। उसकी हालत देखकर अमृता का दिल भर आया फिर भी उसने पीहू के प्रति अपने जज्बातों पर नियंत्रण रखा। कुछ दिनों बाद पीहू का एडमिशन भी बेटे और बेटी के साथ उनके स्कूल में करवा दिया गया। वैसे भी इस बार बेटी का दसवीं और बेटे का बारहवीं की परीक्षा थी।
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कलाकृति (भाग 1 )
डॉ पारुल अग्रवाल,
नोएडा
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