“अरे यार, ये बाबूजी फिर लैट्रीन में गिर गए हैं, जाओ ,उठाओ उनको” चित्रा ने खिसियाते हुए कहा।
“अरे यार, मुझसे नहीं होगा, वो लथपथ हो जाते हैं, मेरा जी घबराता है,मितली आने लगती है, भिकन को फोन लगाता हूं, अभी मोहल्ले की झाड़ू लगा रहा होगा ” विवेक ने नाक भौं सिकोड़ते हुए कहा।
“नहीं है, निकल गया, मैंने फोन किया था, अब तुम ही उठाओ जाकर, कब तक टॉयलेट में पड़े रहेंगे” चित्रा तुनक कर बोली।
“नहीं यार, मुझसे नहीं होगा, तुम कुछ कर सकती हो” विवेक ने उम्मीद से पूछा।
“कुछ अक्ल है तुममें, मैं क्या कर सकती हूं, तुम्हारे पिता हैं, तुम्हें ही करना होगा चलो अब जल्दी करो”चित्रा ने आदेशात्मक लहज़े में कहा।
“ठीक है , कोशिश करता हूं “विवेक ने मुंह पर कपड़ा बांधते हुए कहा।
” ओ..ओ.., क्या मुसीबत है, मुझसे नहीं होगा यार, बाबूजी आपने बहुत परेशान करके रख दिया है, जब देखो, गंदगी मचा देते हो, संभलकर क्यों नहीं बैठते” विवेक टॉयलेट के दरवाजे पर खड़ा होकर बड़बड़ा रहा था, बाबूजी असहाय से बहती आंखों से करुण याचना कर रहे थे।
“हटिए पापा, यह सब क्या लगा रखा है, दादाजी कोई जानबूझकर तो नहीं गिरते, गंदगी में, उनकी उम्र देखिए, हटिए आप, मैं कर लूंगा सब, आप शायद भूल गए, लेकिन मैं नहीं भूला हूं, जब आप बीमार थे तो दादाजी , आपकी उल्टियां , अपने हाथों में झेल लेते थे, और जैसे आप मुझे बताते हैं कि, आपने मेरे बचपन में , कैसे मेरी सूसू पॉटी साफ़ की है, वैसे ही दादाजी ने भी तो आपके लिए किया होगा, क्या उन्होंने कभी ऐसे नाकभौं सिकोड़ा है, नहीं न, दादाजी की उम्र, अब वही बच्चों वाली है, बल्कि उससे भी नाज़ुक, ऐसे में क्या हम उनको , बदहाल छोड़ देंगे ” विवेक के बेटे विश्वास ने अपने दादाजी को उठाते हुए कहा और उनकी साफ़ सफाई में लग गया।
“बेटा, मुझे माफ़ कर दे, बहुत स्वार्थी हो गया था मैं, तूने मेरी आंखें खोल दी ” कहते हुए विवेक भी अपने पिता की सफाई करने में लग गया। दादाजी की आंखों से अविरल अश्रु धारा बह रही थी।
“दादाजी, रोइए मत, देखिए आपके दोनों बाजू आपको मजबूती से थामें हैं न, अब आपको कभी गिरने नहीं देंगे, मम्मी दादाजी के लिए कॉफी बनाओ” विश्वास दादाजी के आंसू पोंछते हुए बोला।
“हां बेटा ” चित्रा ने कहा,मन आत्मग्लानि से भरा हुआ था, सोच रही थी कि “बच्चे ने आज , आंखें खोल दी, वरना हम अपने बच्चों की नज़रों में गिर जाते “
*नम्रता सरन”सोना”*
भोपाल मध्यप्रदेश