“कहाँ खोई हो अपेक्षा?”
“इन तितलियों में।”गार्डन में फूलों पर मंडराती तितलियों की ओर इशारा कर अपेक्षा ने जवाब दिया।
“बहुत सुंदर हैं।”श्रुति ने तितलियों को निहारते हुए कहा।
“यह कितनी स्वतंत्र है ना!बेखौफ उन्मुक्त और खिलखिलाती।”अपेक्षा ने कहा।
“हाँ….बिल्कुल हम स्त्रियों की तरह ना!”
“स्त्रियों की तरह!!क्या बोल रही हो श्रुति! स्त्रियों के लिए यह दुनिया सुरक्षित नहीं है उन्हें कोई स्वतंत्रता नहीं….भूल गई यह दुनिया पुरुषों की बनाई है!!”एक अनकहा दर्द उसके शब्दों में कराह उठा।
“पुरूषों ने नहीं।यह दुनिया स्त्री और पुरुष ने मिलकर बनाई है और यह दुनिया इतनी डरावनी भी नहीं!”श्रुति ने अपनी बात रखी।
“नहीं….स्त्रियों का इसमें कोई सहयोग नहीं.. वह तो पुरुषों की सत्ता में बस जी रही है।पितृसत्तात्मक समाज में खुद को टटोल रही है।”
“इस पितृसत्तात्मक समाज की नींव भी स्त्री के सहयोग से पड़ी होगी, वरना ईश्वर ने दोनों को बराबर ही बनाया है।”श्रुति ने कहा।
“बकवास…..स्त्री की बौद्धिक क्षमता को दबाने के लिए पुरुष ने अपने बल से उसके शरीर में उसकी आत्मा को सदैव मसलने का प्रयास किया।”अपेक्षा का स्वर कंपित हो गया।
“इस बल ने ही परिवार की नींव रखी है यह मत भूलो!”श्रुति ने अपेक्षा को समझाते हुए कहा।
“परिवार की जरूरत उसे अपनी इच्छा पूर्ति के लिए है।मेरा बस चले तो यह दुनिया पुरुष विहीन कर दूँ।अपेक्षा ने रोष से कहा।
“पुरुष न होंगे तो प्रेम किसे करोगी अपेक्षा!!”श्रुति ने प्रश्न किया।
“प्रेम….हा….हा….प्रेम मात्र छलावा है जो स्त्री के जिस्म और आत्मा को जख्मी…।”शब्दों को अधूरा छोड़ वह सिसक उठी।
” प्रेम छलावा नहीं होता अपेक्षा!बल्कि हम छलावे को प्रेम समझ लेते हैं…..बिल्कुल उसी पानी की तरह जो मरुस्थल में दिखाई देता है।”
“मैं खुद मरुस्थल बन चुकी हूँ।उसकी आँखों से पीड़ा बहने लगी।
“मरुस्थल में भी पौधे उगते हैं।”
“हाँ …कैक्टस… जैसे मेरे जीवन में उग आया है।”अपेक्षा ने कहा और केस की फाइल को हाथों में उठा लिया।
“कैक्टस मरुस्थल में एकमात्र हरित होता है यह बात न भूलना।और तुम तितलियों को देख रही थी ना!बताओ..फूलो के बिना तितली के जीवन की कल्पना की जा सकती है?”
कहकर श्रुति ने उसके हाथों से फाइल ली और मेज पर रख दी।
“एक बार दोबारा इस केस को सोचो।शुरुआत से।जर्रा जर्रा खंगालो इसका।श्रुति ने कहा और बाहर निकल गयी।
श्रुति ने जैसे उसके हृदय पर पड़ी काई को किरच कर उसमें छिपे बैठे असंख्य केचुओं को छेड़ दिया।वह रेंगते हुए उसके हृदय से निकल कर उसके मस्तिष्क में चले गए।
उन शिराओं को कुरेदने लगे जहाँ उसने बुरी यादों को ईंट से दबा दिया था।
उसकी आँखों पर जमा प्लास्टर झड़ने लगा।लेकिन झड़ते हुए प्लास्टर की चुभन उसकी आँखों में दर्द कर रही थी।कतरा कतरा हूई यादें उसके सामने आने लगी।
…………..
“मधु मक्खी भी अपनी संतान को खुद जन्म देती है खुद पालन पोषण करती है उसकी संतान को पिता की आवश्यकता नहीं होती, जानती हो क्यों?”शोभा ने अपेक्षा की आँखों में देखते हुए कहा।
अपेक्षा ने इंकार में सिर हिला दिया।
“क्योंकि नर मक्खी इस योग्य नहीं।वह खुद को नष्ट कर देता है मात्र संभोग के लिए।”
“मैं समझी नहीं?”शोभा की ओर देखकर अपेक्षा ने आश्चर्य से कहा।
“बस इतना समझ लो जो पुरूष स्त्री को मात्र भोगने के लिए क्रिया करता है वह पिता नहीं होता।न ही उसकी चेष्टाएं संतान के लिए होती है।”शोभना ने चेहरे पर घृणात्मक भाव लाकर कहा।
“तो..इसका मतलब..आप ..माँ…।”कुछ शब्दों को गले में ही रोक लिए अपेक्षा ने।
अपने प्रश्नों के उत्तर आज इस रूप में मिलेंगे वह नहीं जानती थी।उसकी निगाहें शोभा के चेहरे पर टिक गई।
उसके चेहरे पर आते जाते भाव अपेक्षा की परिपक्व हो चुकी बुद्धि में लावे की तरह प्रवेश करने लगे।
“तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर आज इस प्रकार तुम्हें दूंगी यह सोचा न था।परंतु आज सच जरूर बताऊंगी।क्योंकि वह तुम्हें मुझसे छीनना चाहता है।”शोभा की आँखों का तरल अब निकलने के लिए तैयार था लग रहा था कि जैसे कुछ रेतीले बांधों से बंधा यह तरल अब स्वतंत्र होना चाहता हो।
” जो तुम सोच रही हो वैसा कुछ नहीं है ।पूरे समाज के सामने रीतिरिवाजों के साथ मुझे विदा किया था मेरे माता पिता ने…..।”
“मेरे मन में भी वही स्वप्न थे जो आम लड़कियों की आँखों में….परंतु सपने तो टूटने के लिए ही आते हैं यह शादी की पहली रात ही जान गई थी।”शोभा आज अपनी खौलन को मन के बर्तन से निकाल बेटी के सामने परोस रही थी।इक्कीस सालों का दर्द बहुत पक चुका था।
“वहां सिर्फ एक पुरुष रहता था जिसे हर रात बस औरत चाहिए और वह औरत मैं थी।हर रात मेरी नजर में वह.थोडा थोडा मर रहा था।बस इंतजार पूरे मरने का था और वह भी पूरा हो गया तुम्हारे जन्म के बाद।”
“मेरे जन्म!क्या मेरा जन्म लेना आपको पापा से दूर कर गया?”
“तुम्हारे जन्म लेने से उसकी आवश्कताएं बाधित हो रही थी इसलिए जल्द ही उसने उपाय ढूंढ लिया अन्य स्त्री के रूप में।”
गर्म लावा अपेक्षा के कानों से हो उसके मन में प्रवेश कर गया।
“तो इसलिए आप वहां से…।।”
“यह इतना जल्दी नहीं हुआ, बस मेरे मन की कमजोर रस्सी को मैने मजबूत करना शुरू कर दिया,उसके रेशे रेशे दोबारा गूथने शुरू किए।”
“पर माँ!क्या यह बात आपके पिता को पता नहीं चली?और आपने कभी यह भी नहीं बताया कि मेरा ननिहाल कहाँ है।”
“हुँऊ… तुम्हारा कोई ननिहाल नहीं।
पिता मजबूर थे…वह कर ही क्या सकते थे?उनके लिए समाज में इज्ज़त बहुत जरूरी थी।आखिर बिना पति के औरत की इज्ज़त क्या होती?”
“पर…माँ…।”
“जिस आदमी को अपनी संतान के आने की खुशी से ज्यादा अपनी जरूरत का ख्याल जरूरी था उसके साथ एक इंसान के तौर पर मैं नहीं रह सकती थी।”शोभा ने गांठ खोलते हुए कहा।
………माँ को हमेशा मजबूत देखा लेकिन आज इस तरह देख अपेक्षा दुखी हो गई।
“”पुरूष इतना निष्ठुर क्यों होता है माँ?”
“निष्ठुर नहीं.. कायर होता है।”दो बूंद ढूलक आई शोभा के गाल पर।
“और वह कायर हमारे जीवन से खेलता रहता है।”अपेक्षा ने कहा।
“तभी तो वापस हमारी जिंदगी में आ गया।”ठंडी सी आह भर शोभा ने कहा।
“मैं हमेशा आपके पास रहूंगी माँ।”शोभा की हथेलियों को अपने हथेलियों के बीच लेकर वह बोली।लेकिन एक डंक जैसे उसके दिल में गहरा गड़ गया… पुरुष खराब होते हैं।
माँ के मन शुष्कता उसके जीवन में भरती जा रही थी।और यह शुष्कता उसकी वकालत में काम आती।
अपेक्षा निर्ममता से अपने केस लड़ती और उन औरतों के हक आवाज बन चुकी थी जो दुनिया के शोर में गूंगी बनी जख्म सह रही थी।
मन में विद्रोह मचा रहता।उसके लिए हर पुरुष अत्याचारी था लेकिन एक घटना ने उसकी इस सोच को चुनौती दे दी थी।
इस चुनौती को वह अस्वीकार करना चाहती थी लेकिन उसकी जिद सामने आ कर खड़ी हो गई।
यही जिद उसे सच से दूर ले गई और वह अपनी नजरों से सच तलाश रही थी लेकिन कहीं कुछ ऐसा था जो उसे बार बार खुरच रहा था।
वह मासूम आँखें……हाँ मुग्धा नाम है उस लड़की का जिसके हक के लिए वह लड़ रही है।
सच में मुग्धा मासूम है?यह यकीन उसे क्यों नहीं हो पा रहा!आदमी …वह तो हमेशा से औरत को नोंचता आया है।
………….लेकिन उसका पति!वह हर सुनवाई में खामोश बैठा रहता है।उसकी आँखों में माँ की तरह खौलता दरिया क्यों दिखाई देता है मुझे!!
नहीं,मुझे सारी कड़ियों को जोड़ना होगा।अपेक्षा ने कार की चाबी उठाई और मुग्धा के घर की ओर चल पड़ी।
……….
शाम होने लगी थी।सड़कों पर जुगनू चमक रहे थे।कुछ देर में वह मुग्धा के घर के सामने थी।कार को पार्क कर वह बाहर निकल जाती है।
यह निम्न मध्यम वर्गीय कॉलोनी थी।घरों के बाहर कुछ औरतें खड़ी बातें कर रही थी।
वह उन पर नजर डाल मुग्धा के घर के दरवाजे पर नॉक करती है।
“आ….आप!इस वक्त..।”दरवाजा खोलते ही वह चौंक जाती है।
“जरूरी था मिलना।अंदर आ जाऊं?”अपेक्षा ने कहा।
“हाँ..वो..हाँ आइए।”एक तरफ होकर मुग्धा ने कहा।
“अंकल आंटी नजर नहीं आ रहे?”
“हाँ..वो गाँव गए हैं।कल तक आ जायेंगे।”मुग्धा ने कहा।
अपेक्षा ने सरसरी निगाह घर में चारों तरफ डाली।एक जगह उसकी आँखें ठहर गई।
“ड्रिंक …!!घर में कोई और भी है?”अपेक्षा ने पूछा।
“न..नही कोई नहीं है।”वह हकलाते हुए बोली।
अपेक्षा ने उससे कुछ सवाल किए।
“आशा करती हूं कल फैसला हो जायेगा।”अपेक्षा ने कहा और वापस गाडी में आकर बैठ गई।
अपेक्षा ने महसूस किया कि आस पास खड़ी औरतों की भावभंगिमा मुग्धा को देखकर टेडी हो गई थी।
उसने कुछ दूर कार रोकी और वापस उसके घर की तरफ पैदल चल दी।
औरतों के हुजूम से कुछ बातचीत करने लगी।
…………………
कोर्ट परिसर में काले कोट में इधर उधर घूमते वकीलों के बीच अपेक्षा धीरे धीरे कदमों से आगे बढ़ रही थी।
“आप मेरे पापा को परेशान क्यों कर रही हैं?”किसी ने उसके पल्लू को खींच कर कहा।
उसके कदम रूक जाते हैं और वह पलटती है।
एक छह सात साल की प्यारी सी बच्ची के हाथों में उसकी साड़ी का पल्लू था।
“बेटा!मैं तो आपके पापा को जानती भी नहीं,फिर परेशान कैसे करूंगी?”अपेक्षा घुटनों के बल नीचे बैठ गई।
“मेरी गंदी मम्मा को तो जानते हो ना!उनके कहने पर ही मेरे पापा को जेल में डालना चाहते हो?”वह बच्ची गुस्से में बोली।
“गंदी मम्मा!!कौन है आपकी मम्मा?”
“मुग्धा…बहुत गंदी हैं वो…मुझे बहुत मारती थी और पापा को भी…।”
“क्यों मारती थी आपको?”अपेक्षा ने पूछा।
“क्योंकि… मैंने पापा को बता दिया था कि वो अंकल मम्मी के पास आते हैं।”बच्ची ने कहा।
“कौन अंकल ?”
“वो मम्मी के दोस्त हैं वह आते और मम्मी के साथ कमरे में चले जाते।”
“पीहू….आओ बेटा।मैं आपको सब जगह ढूंढ रहा था मैं डर गया था बेटा।”
कोई अपेक्षा की पीठ से बोला।वह पलटकर देखती है तो सामने मुग्धा का पति खड़ा था।
अपेक्षा को देख वह गर्दन नीचे कर लेता है और पीहू को गोद में उठाकर चल पड़ता है।
“मिस्टर धवन…मुझे आपसे बात करनी है रूकिए प्लीज।”
“मैं कुछ नहीं कहना चाहता… मुझे माफ कीजिए…..लेकिन हो सके तो सच देखने की कोशिश करना।”उसके कदम तेजी से उससे दूर हो गए।
गोद में पीहू उससे दूर जा रही थी लेकिन उसकी आँखों ने बहुत कुछ कह.दिया था।
वह बेंच पर बैठ जाती है।
दिमाग में मुग्धा के घर में भरे हुए शराब के दो गिलास और उसके मौहल्ले की औरतों की बातों को जोड़ने की कोशिश करती है।
मन में जमी काई उतर गई। और उसे समझ आ गया था कि क्या करना है।वह मोबाइल निकाल कर श्रुति का नंबर डायल करती है।
“हैलो श्रुति!मैं केस हारने वाली हूँ सच को जीताने के लिए।”इतना कह अपेक्षा फोन काट देती है और कोर्ट की तरफ तेजी से चल पड़ती है।
दिव्या शर्मा