माँ , कहाँ हो आप। …. कब से फ़ोन कर रही हूँ, उठा क्यों नहीं रही थी…. पता है क्या-क्या दिमाग़ में चल रहा था….. मैं अभी दस मिनट में स्टेशन पहुँचती हूँ….. हाँ-हाँ…. उसी जूस की दुकान के पास वाले गेट के पास खड़ी रहना ।
सौम्या ने अपनी माँ से बात की और तेज़ी से दुपट्टा तथा पर्स उठाकर जैसे ही निकलने लगी । सास राजेश्वरी की कड़क आवाज़ सुनाई पड़ी——
कहीं आने-जाने से पहले किसी बड़े- छोटे को बता भी दिया । करो । जब तक मैं बैठी हूँ, अपनी मुहार ना होने दूँगी …. पर्स उठाया और चल…..,
माँ जी मैं आपको कहने के लिए ही आ रही थी… दरअसल माँ ने रेलवे स्टेशन से फ़ोन किया है …. जाने क्या हो गया…. उन्होंने बुलाया…
क्यूँ, जब रेलवे स्टेशन पर बैठी है तो यहाँ तक आने में क्या था? कोई देखेगा तो क्या सोचेगा…. … फ़ोन कर दिया … .. अभी तक तो अपने घर बुलाकर मिलती थी… अब कौन सा नया नाटक शुरू कर दिया ? रिश्तेदारों में तो इज़्ज़त छोड़ी नहीं…. अब शहर भर में ढिंढोरा पीटना चाहती है क्या ?
नहीं नहीं माँ जी ! ऐसा मत सोचिए माँ के बारे में …. आप तो उन्हें मुझसे भी अच्छी तरह जानती है , आपकी बचपन की सहेली है……कोई ना कोई बात ज़रूर है जो उन्होंने….
जा चली जा ….. पुराने ज़ख़्मों को कुरेदने की कोशिश मत कर … मेरी सहेली है … वो रिश्ता तो उसी दिन दफ़्न कर दिया था जिस दिन मेरे सीधे-सादे बेटे को मोटी बुद्धि का कहा था तेरे बाप ने …. वो तो हमारी शराफ़त थी कि तुझे ले आए वरना ….
माँ जी ! इसमें माँ की तो कोई गलती नहीं थी , उन्होंने तो पापा के कहे शब्दों के लिए आपसे न जाने कितनी बार माफ़ी भी माँग ली पर आप …
इस कहानी को भी पढ़ें:
मैंने कहा ना …. चली जा , बहस मत कर । बातों में इतनी भी मत खो जाना कि समय का भी ख़्याल ना रहे ।
जी माँ जी ….
बहू के जाने के बाद राजेश्वरी कई साल पहले की यादों में खो गई । वह हमेशा अपनी माँ के साथ साल में दो बार ननिहाल रहने के लिए जाती थी । वहीं नानी के पड़ोसी की हमउम्र अनाथ भाँजी दमयंती से उसकी दोस्ती हो गई । समय के साथ-साथ दोस्ती इतनी पक्की हो गई कि अपने घर आ जाने के बाद भीराजेश्वरी दमयंती को चिट्ठी लिखती और दमयंती राजेश्वरी को । ब्याह के बाद भी दोनों की दोस्ती जस की तस बनी रही । जब राजेश्वरी का बेटा हुआ तब दमयंती का भी तीसरा महीना चल रहा था । राजेश्वरी ने पहले ही कह दिया था—-
देख दमयंती, अगर बेटी हुई तो वो मेरी बेटी बनेगी.. मैं अपने मुन्ने के लिए अभी से आँचल पसार कर माँग रही हूँ ।
दमयंती भी प्यारी सहेली की बात सुनकर गदगद हो उठी थी ।
दोनों की बचपन की दोस्ती को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि दोनों के बीच कहीं कोई परदा है । दरअसल राजेश्वरी ने कभी सहेली से कोई बात नहीं छिपाई पर दमयंती चाहकर भी अपनी सहेली को अपने जीवन की इस कड़वी सच्चाई को कभी नहीं बता पाई कि वह केवल सामाजिक प्रदर्शन और माता-पिता की इच्छापूर्ति के लिए पति द्वारा स्वीकार की गई है और विवाह के शुरुआती दिनों के आकर्षण के कारण ही एक बच्ची की माँ बन पाई है ।
वो तो दमयंती को सास-ससुर का स्नेह और सहारा मिला वरना पति ने तो उसे तिरस्कृत करने में कोई कमी नहीं छोड़ी थी । स्त्री अभाव में जी सकती है पर पति की उपेक्षा सह नहीं सकती या यूँ कहें कि सामाजिक नियमों के कारण पति के ऐबों का कारण भी पत्नी को ही माना जाता है । दमयंती ने बस एक यही बात अपनी सहेली से छिपाकर रखी ।
सौम्या के पिता को न तो कभी पत्नी में कोई दिलचस्पी थी और न ही बेटी में । हाँ… माता-पिता के गुजर जाने के बाद वो घरखर्च अवश्य भेज देता था । वैसे दादा-दादी सौम्या के विवाह इत्यादि का पूरा प्रबंध कर गए थे । मायका तो ईश्वर ने पहले ही छीन लिया था । मामा की मृत्यु के बाद ममेरे भाइयों ने भी कभी खोज खबर नहीं ली । ऐसे में जब सौम्या के विवाह का दिन नज़दीक आया तो दमयंती को दिन-रात यही चिंता खाए जा रही थी कि पिता के बारे में पूछने पर राजेश्वरी और उसके परिवार वालों को क्या जवाब देगी क्योंकि दमयंती ने बड़ी सफ़ाई से सारी रस्में एक साथ करने के लिए अपनी सहेली को मना लिया था ।
कहने के लिए तो दुनिया चाँद पर जा पहुँची है पर आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो ज़बान से निकली बात पर क़ायम रहते हैं । जब लड़के- लड़की ने फ़ोटो देखकर अपनी रज़ामंदी दे दी तो ना – नुकर की गुंजाइश ही नहीं रही क्योंकि देखने दिखाने की रस्मों के पीछे तो केवल बर्ताव देखना होता है और राजेश्वरी दमयंती तो बचपन से एक-दूसरे को देखती आई थी ।
विवाह के एक महीने पहले दमयंती ने पति को फ़ोन लगाया——मैं दमयंती बोल रही हूँ, क्या मैं कमलेश कुमार जी से बात कर रही हूँ ?
जी , आप कौन ? मैं उनका बेटा……
इस कहानी को भी पढ़ें:
कलेजे पर पत्थर रख के दमयंती आगे कुछ बोलती कि उधर से आवाज़ आई—— मैं कमलेश….. आप …ओह ! तुम …. खर्चा तो भिजवा दिया था फिर…..
दरअसल सौम्या की शादी तय कर दी । इस मौक़े पर मुझे पहली और आख़िरी बार आपकी सहायता चाहिए …. पैसों से ज़्यादा…. आपकी उपस्थिति……बाक़ी सब तैयारियाँ तो कर ली है । विवाह के दो दिन पहले टीके के अवसर पर और शादी वाले दिन….,.
बता देना ….. कोई बात करनी हो तो दस से एक बजे के बीच ही किया करो।
फ़ोन रखते ही दमयंती की आँखों से अविरल धारा बह चल — कैसा बाप है …. कहाँ शादी तय की …. किससे की …. कुछ भी लेना-देना नहीं….. हाय ! कैसा नसीब लेकर आई है मेरी बेटी….
वैवाहिक स्थल शहर से काफ़ी दूर एक पुराना मंदिर था । जो दमयंती के अनुसार उनके कुल देवता का मंदिर था ।दमयंती की ओर से केवल सौम्या की दो सहेलियाँ और कमलेश कुमार थे क्योंकि उन्हें भी अपनी ही बेटी के विवाह में विशेष निमंत्रण देकर बुलाया गया था । राजेश्वरी की ओर से उसके भाई-बहन , देवर- ननद और कुछ घनिष्ठ मित्र उपस्थित थे ।
सभी उपस्थित जन महसूस कर रहे थे कि हर कार्य के लिए लड़की की माँ ही भागदौड़ कर रही थी और पिता कहे जाने वाला शख़्स मोबाइल पर व्यस्त था । हाँ…. आवश्यक रिवाजों को निभाने के लिए अनमने भाव से आ जाता था ।
लड़के वालों को बहुत कुछ अटपटा लग रहा था पर मायके और ससुराल दोनों जगह सभी भाई-बहनों में सबसे बड़ी राजेश्वरी की क़ाबिलियत पर शक की गुंजाइश ही नहीं थी । इसलिए सभी को अपनी नज़रों का दोष लग रहा था ।
फेरों के पश्चात कमलेश कुमार ने दमयंती से कहा—-मैं चलूँ तो , अब कोई औपचारिकता तो नहीं बची ?
दमयंती कुछ कहे कि इससे पहले राजेश्वरी ने हँसते हुए कहा—
पहले मुझे ये बताइए जीजाजी….. विवाह के बाद तो पूरे ईद के चाँद हो गए जब भी पूछो , आपके पास समय की कमी का अभाव ……. आख़िर कौन सा कारोबार है। ? अब तो आप समधीजी भी बन गए …….. कहाँ जाने की बात कर रहे हैं? भूल गए क्या … सौम्या की विदाई यहीं से होगी , कल शाम स्वागत समारोह है … चाहोगे तो उसके बाद सौम्या को पग फेरे के लिए ले जाना ।
आप मुझे ये सब क्यों बता रही हैं, पूरी बात जानते हुए भी… क्यों गले पड़ रही हैं ? मुझे ग़ैर मर्दों के साथ औरतों की इतनी बेतकल्लुफ़ी पसंद नहीं ….
आप किस अंदाज में मेरी माँ से बात कर रहे हैं— सौम्या के पति ने कमलेश कुमार के तेवर देखकर कहा ।
लगता है कि मोटी बुद्धि के हो जो इस तरह की बातें कर रहे हो…. अगर सब पता है तो ज़बरदस्ती रिश्ते बनाने की कोशिश तुम्हारी मोटी बुद्धि का प्रमाण है और यदि कुछ नहीं जानते तो बिना किसी की हक़ीक़त जाने विवाह कर लेना , तुम्हारी मोटी बुद्धि दर्शाता है ।
इस कहानी को भी पढ़ें:
कमलेश कुमार तो चले गए पर उसके बाद दमयंती और सौम्या ने किस तरह बेइज़्ज़ती का कड़वा घूँट पिया , किस-किस तरह माफ़ियाँ माँगी , शब्दों में नहीं बताया जा सकता ।
बस उसी दिन से राजेश्वरी के लिए दमयंती मर गई । हाँ, उसकी भलमनसाहत यह रही कि सौम्या को भी उसने पूरा मान- सम्मान दिया और कभी माँ से मिलने से भी नहीं रोका ।
उसके बाद चार/ पाँच महीने में सौम्या ही माँ के पास जाकर मिल आती थी । पर आज जब दमयंती ने रेलवे स्टेशन पर बुलाया तो अंदर ही अंदर राजेश्वरी का दिल भी बेचैन हो उठा
—-करमजली…. सारे दुख अकेली ही उठाकर महान बनना चाहती है । अगर मुझे सारी बात बता देती …. तो क्या मैं सौम्या को बहू ना बनाती …. ऐसे आदमी की इज़्ज़त बचाने में लगी रही जो इसका था ही नहीं…… निरी पागल है….
जब बड़बड़ाने पर भी राजेश्वरी का मन नहीं माना तो सौम्या को फ़ोन लगाकर बोली——
जल्दी आने को कहा था….. ऐसी क्या बात कर रही है…… सारा शहर आता-जाता है स्टेशन पर….. कुछ शरम लिहाज़ है कि नहीं….. वहीं सड़क पर बैठकर…….
माँ जी….. वो माँ……
क्या माँ….. इसकी चिकनी चुपड़ी बातों में आने की ज़रूरत नहीं…. एक नंबर की झूठी औरत है ….. इसके चक्कर में अपना घर मत बिगाड़ लेना…..
माँ जी….. मेरी बात तो सुनिए ….. कमलेश कुमार की मृत्यु के बाद उनके लड़के ने माँ को घर से निकाल दिया….. कहीं कोई जगह नहीं…… आप कहें……..
जो दूसरे को धोखा देता है, उसके साथ भी धोखा होता है….. हमारा घर धर्मशाला नहीं है……
राजेश्वरी ने फ़ोन काटकर अपने बेटे को फ़ोन करके कहा —-
मुन्ना! बेटा …. आज मैं तेरी सास के लिए नहीं, अपनी बचपन की सहेली दमयंती को घर लेकर आने के लिए कह रही हूँ । ऑफिस से जल्दी निकलो और रेलवे स्टेशन से सौम्या के साथ दमयंती को लेकर घर आ जाओ । ऐसा न हो कि वो पगली …… फिर से किसी नई मुसीबत में फँस जाए …… अपने मुँह से कुछ नहीं कहेगी । जो है सब मिल बाँटकर गुज़ारा कर लेंगे ।
सचमुच मुन्ना को अपनी ,आवाज़ की कड़क पर सह्रदया , माँ पर गर्व महसूस हो रहा था, जिन्हें समझने में उनकी ही बचपन की सहेली धोखा खा गई थी ।
करुणा मालिक
बहुत सुंदर कहानी है