“इस बार होली पर हम अपने गांव जाएंगे नलिनी।” समर ने ऑफिस से लौटते ही पत्नी से कहा।
“गांव… कैसा गांव। समर तुमने तो कहा था कि गांव में अब हमारा कोई नहीं है। ना कोई नाते रिश्ते वाला। ना कोई संपत्ति न जमीन।”
“हां मगर गांव तो है ना। और यादें हैं गांव की।”
“बीस साल बाद यह अचानक गांव की याद कहां से आ गया समर जी। शादी के बाद मैंने तुमको कितना बोला कि एक बार आपका गांव, उस एरिया के लोग, फसलें, मौसम, रीति रिवाज, खानपान, लोकगीत, पहनावा, भाषा शैली, सब देखनी है मुझे। मैंने तो नौर्थ इंडिया ठीक से देखा ही नहीं। पर तुम तो हर बार टालते रहे। बस यही बहाना बनाकर कि अब वहां से मेरा कोई ताल्लुक नहीं है। वहाँ मेरा अपना कोई नहीं है।”
“अपनी मिट्टी की महक खरगोश के बच्चे की तरह मन के किसी कोने में बिल बनाकर छिपी रहती है जानू। न जाने कब बाहर निकल कर कुलांचे भरने लगे। कभी रात को अचानक चौंक कर उठ जाता हूं और लगता है कि मुझे मेरे खेत, गन्ने के रस के कोल्हू, पानी के जोहड़, स्कूल की पगडंडी,
बचपन के यारों की चौकड़ी और उपलों की धीमी आंच में पके हारे के दूध की महक एक बार फिर अपने पास बुला रही है। वह दिन ढलने से पहले सूरज की लालिमा में धूल उड़ती टिनटिन घण्टियों का संगीत बजाती साँझ ढले गांव लौटती पशुओं की टोली और चरवाहों की हुर्र हुर्र की आवाज। गन्ने के कोल्हू में पकते रस की शहद सी मीठी महक और बाबा के हुक्के की गुड़ गुड़
जिसकी आवाज मुझ पर लोरी का सा असर करती थी और नींद आने लगती। अंधेरा होते ही बगड़ (मोहल्ले) के बालक चौपाल में इकट्ठा होकर जोर-जोर से चिल्लाते टिलम टिलम टेंपोरिया। आओ रे बालको खेलेंगे। गुड़ की भेल्ली फोड़ेंगे। फोड़ फोड़ के खाएंगे।
और बेला भर दूध में फूंक मारते बच्चे, माँ के आंचल में सर छुपाए झपकियां लेते बच्चे, मिट्टी के तेल की ढिबरी के उजाले में लकड़ी की तखती पर सरकंडे की कलम से और बुदके में घुली खड़िया से पहाड़े लिख रहे बच्चे या चूल्हे में सुलग रहे उपलों की आंच पर हाथ ताप रहे बच्चे एक झटके में सारे बंधन तोड़कर चौपाल की ओर दौड़ पढ़ते।
फिर देर रात तक धायीं मिच्चा, ईंढी–मींढी और आती पाती खेलते रहते। कोई किसी की छान में छुप जाता तो कोई खलिहान में। अलग-अलग मौसम के अलग-अलग उत्सव, मनोरंजन, त्यौहार, व्यंजन, परिधान और मटरगश्तियाँ थी। गर्मियों में खरबूजे, तरबूज खेत से तोड़कर कुए में फेंक देते और जब वह ठंडे हो जाते हैं तो डोलची से निकालकर पेड़ की छांव में बैठकर खाते थे।
बरसात में मक्का के खेत में मचान पर बैठकर गेहूं चने की नमकीन पानी के हाथ की रोटी आम का अचार या घी शक्कर, फिर शाम ढलते ही भुट्टे बुनकर खाते। मक्का के खेत में फूट और कचरे के बीज डाल दिए जाते थे। जब कोई कचरा पक जाता तो दूर तक उसकी खट्टी मीठी महक आमंत्रण सा देती रहती थी।
सर्दियों के तो मजे ही अलग थे नलिनी जी। चांदनी रात में देर तक ईंख के खेत के किनारे बैठकर गन्ने चूसते रहते। ईंख की सूखी पत्तियां बटोर कर आग जला लेते और चने मटर के खेत से पेड़ उखाड़कर उन्हें भून लेते थे। सुनो नलिनी तुमने कभी अलाव में भुने हुए कच्चे चने मटर खाए हैं। हमारे यहाँ उन्हें होला कहते थे। जब कोई आग जलाकर चने के होले भूनता था
तो आसपास राह चलते लोगों को आवाज देकर बुला लेता था। फिर वहां कैंप फायर का दृश्य उत्पन्न हो जाता। दुनिया के किसी होटल के इंटरकॉन्टिनेंटल फूड में वह स्वाद फिर मैंने कभी नहीं पाया। और होली होली तो हमारे गांव में ऐसी होती थी कि तन का रंग तो नहाने से उतर जाता पर मन गांव वालों के प्यार के अबीर की सुगंधि से महकता रहता।”
“तुम तो जानते हो ही समर कि देश दुनिया के भिन्न क्षेत्रों की परंपराएं, सामाजिक संरचना, जीवन शैली और पारिवारिक ढांचे का अध्ययन करना मेरा प्रिय विषय रहा है। मेरी डॉक्टरेट भी तो अलग-अलग संस्कृतियों के अध्ययन पर आधारित है। कुछ और बताओ ना अपने गांव के बारे में। जाति व्यवस्था, फसलें, परिवेश।” कहते-कहते नलिनी ने अपना सर के नीचे लगा तकिया एक और फेंका। खुले केश हवा में फैलाएं और समर की गोद में सर रखकर लेट गई।
“तुम पूछ रही थी ना नल्ली कि 20 साल तक मुझे गांव की याद क्यों नहीं आई तो समझ लो इसका कारण तुम हो।” समर ने मुस्कराकर शरारत से उसके बालों में उंगलियां फिराते हुए कहा।
“मैं… भला मैं कैसे।”
तुमने जो 20 साल मुझे अपनी कांजीवरम की साड़ी के पल्लू से बांधकर रखा। अच्छा बताओ तुम साउथ की लड़कियां कोई जादू टोना जानती हो क्या।”
“जादू टोना। वह कैसे।”
“अब देखो ना, तुम्हारे सावन की घटा से गहरे काले बालों के आगे तो ना मुझे कोई आसमान दिखाई देता है ना जमीन और तुम्हारी बाहों के आगोश में समाते ही मुझे तुम्हारे बदन की सोंधी खुशबू धीरे-धीरे किसी नटी के वशीकरण सा अभिमंत्रित कर देती है। मैं जैसे हवा के परों पर चढ़कर तैरने लगता हूं। प्यार में मदहोश होकर ढलकी सी तुम्हारी पलकों के पीछे गुलाबी रंगत में तैरती दो पुतलियां और …।”
“आगे… आगे क्या? सुनाते रहो समर।”
“जैसे दिन भर के सफ़र से क्लांत मार्तंड गुलाल की लालिमा बिखेरे हुए सागर की अथाह जल राशि में समा जाए।”
नलिनी ने समर को जोर से बाहों में भर लिया।
फिर एक दिन चेन्नई से दिल्ली का सफर शुरू हो ही गया। रास्ते भर समर नलिनी को अपने बचपन के गांव के रिश्ते, नाते और उस काल की महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में बताता रहा।
“माँ तो बचपन में ही चल बसी थी। पिताजी की मृत्यु के बाद मैं अपने हिस्से की जमीन बेच देना चाहता था। पिताजी का कोई सगा भाई या बहन तो था नहीं और मैं भी अकेला ही था।
बस एक चचेरे भाई हैं। हायर सेकेंडरी स्कूल में अध्यापक थे। बचपन में तो मुझे बहुत प्यार करते थे मगर जमीन बँटवारे के विषय में उनसे कुछ तनाव हो गया था। साफ तो कुछ कह नहीं पाये। बस रिशता तोड़ने का बहाना ये कि तुमने समाज की परंपरा तोड़कर मद्रासी लड़की से शादी करके हमारी नाक कटवा दी है। इसलिए अब हम तुझसे कोई वास्ता नहीं रखना चाहते हैं। तब से गांव से पूरी तरह नाता ही टूट गया।” समर ने उदासी से कहा।
मगर पिछले दिनों डिपार्टमेंट की कई ब्रांचों में चक्कर काटता हुआ उनका एक पत्र मुझ तक पहुंच गया था। लिखा था उम्र हो गई है। एक हार्ट अटैक हो चुका है। कभी भी दुनिया छोड़कर जा सकता हूं। एक बार तुझे और तेरे बच्चों को देखने का मन है। हो सके तो दो-चार दिन की छुट्टी लेकर गांव आजा। वरना भगवान के यहाँ जाकर भैया को क्या मुंह दिखाऊँगा।”
“बताते रहो समर मुझे और जानना है। सब कुछ जानना है। मेरे लिए अजनबी रहे उत्तर भारत की दुनिया के बारे में। गांव के बारे में। रहन-सहन के बारे में। लोक कला, लोक गीत और त्योहार।”
“गंगा और जमुना के बीच पश्चिम उत्तर प्रदेश का उपजाऊ क्षेत्र है जहां हवा का एक झोंका दिल्ली की आधुनिक पाश्चात्य मिश्रित महक के लिए आता है तो दूसरा पूर्वी उत्तर प्रदेश की संस्कृति का रंग छोड़ जाता है। पंजाब की मक्का की रोटी भी सरसों के साथ के साथ खाते हैं और हरियाणा की रागनी में भी डूब डूब जाते हैं।
महिलाओं के लोकगीत और पहनावे में ठेठ उत्तर प्रदेश की झलक मिलती है तो भाषा, कहीं दिल्ली के चांदनी चौक और दरियागंज की मिठास लिए हुए है तो कहीं ब्रिज क्षेत्र की रासलीला के घुंघरू की खनक। सच पूछो तो दिल्ली उजड़ती और बसती रही
और कभी आक्रांताओं के कभी शरणार्थियों के तो कभी घुमंतु समुदायों के रंग हमारी हवाओं में, फिजाओं में और संस्कृति में घुलते मिलते रहे। ज्यादा गहराई में उतरने की कोशिश मत करना अन्यथा भूलभुलैया में उलझ कर रह जाओगी मेरे कोयल।”
“कोयल क्यूँ बोला। थोड़ा साँवली हूँ इसलिए।” नलिनी ने कृत्रिम क्रोध दर्शाते हुआ कहा।
“अरे नहीं मेरे बुलबुल। तुम्हारी वाणी कोयल से भी मधुर है।” कहते कहते समर ने नलिनी के माथे पर चुंबन अंकित कर दिया।
“कैसी भूल भुलैया की बात कर रहे थे तुम समर। मुझे टरकाने की कोशिश मत करो। अभी लंबा सफर है और मुझे सब कुछ जानना है। प्लीज। और बताओ ना।” नलिनी ने चहकते हुए कहा।
“सबकुछ तो मैं भी नहीं जानता लेकिन कुछ चीज बड़ी अजीब हैं। हमारा हमारा भाट साल में एक बार हमारी वंशावली बाँचने आते हैं। उसका कहना है कि हम बंगाल से आकर सन 1400 में यहां बस गए थे। मुझे लगता है कि हमारे यहाँ की सभी जमींदार खेतिहर जातियाँ सैकड़ों साल पहले नदियों का किनारा
और हरे घास के जंगल ढूंड़ते ढूंड़ते यहाँ आ कर बस गए होंगे। अब देखो न, हमारे क्षेत्र में गुर्जर जाति के बड़े-बड़े गांव हैं। नलिनी आश्चर्य की बात है कि उनकी भाषा शैली, पहनावा, यहां तक कि लोकगीत हमसे अलग हैं। पशुपालन, कृषि और दूध इत्यादि का व्यापार उनका प्रमुख पेशा है।
वहीं जाट जाति के लोग कृषि कार्यों में अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक पारंगत और परिश्रमी पाये जाते हैं। अधिकतर एक गाँव में जाट, गुर्जर, राजपूत या त्यागी इत्यादि में से एक ही जाति के पास जमीने होती हैं। जैसे ये त्यागियों का गाँव है। ये जाटों का गाँव है इत्यादि। समय के साथ समानता आई है किन्तु एक ही क्षेत्र में रहने वाली भिन्न-भिन्न जातियों की सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं और जीवन शैली में अंतर सैकड़ो साल से साथ रहने के उपरांत भी आश्चर्य में डालता है। यहाँ तक कि भाषा और पहनावा भी।”
“जैसे…।”
“जैसे बाबा जी बताते थे कि पुराने जमाने में गुर्जर और गड़रिया जाती के पास गायों और पशुओं के बाड़े बड़े काफिले होते थे। उसी आधार पर उनकी हैसियत का मूल्यांकन होता। यादव पशुपालन और दूध के व्यवसाय और जाट समाज खेती में अधिक पारंगत था। इत्यादि।”
कुछ देर वातावरण में शांति छाई रही और समर एक गहरी सोच में डूब गया। या क्या पता अपने बचपन मैं उस काल की कल्पना में कहीं खो गया।
“ये जातियों का खेल तो पूरे भारत में एक अबूझ पहेली है न समर जी। गहरे पानी पैठ कर भी आसानी से कुछ हाथ नहीं आयेगा।”
“अरे नलिनी जी, पूरे भारत में भला हमारे गंगा जमना के बीच के उपजाऊ इलाके का कोई मुक़ाबला है।” समर ने छेड़ने के लिए इतराते हुए कहा।
“रहने दो, रहने दो। तुम्हारे पास न समंदर है न विशाल मंदिर। संस्कृतियों का मिक्सचर बन गया है तुम्हारा दिल्ली और नेशनल रीज़न। जैसे मैं कुछ नहीं जानती। मसाले, चावल, ड्राइफ़्रूट्स और सीफ़ूड्स का हब है हमारा पुरातन परम्पराओं और संकृति को सँजोये हुए साउथ इंडिया।”
“अब देखो ना भारत की सबसे बड़ी गुड मंडी हमारे यहां मुजफ्फरनगर में है। भारत की सबसे बड़ी गेहूं मंडी हमारे यहां हापुड़ में है। इसी से हमारे इस क्षेत्र की कृषि समृद्धि का अंदाज़ा तुम लगा सकती हो। गेहूं, चना, कपास, मटर, दालें और मीठे रस से भरा गन्ना हमारे यहां पैदा होता है। तभी हमारे यहां के लोग कितने मीठे होते हैं। समर ने मुस्कुरा कर कहा।
“चलो हटो बहुत डींग मार ली तुमने अपने क्षेत्र की। अब जरा क्राइम के बारे में भी कुछ बता दो। जिसकी चर्चा पूरे देश में रहती है। और कम्यूनल रॉयट्स।” नलिनी ने सीधे बैठते हुए समर की आँखों में आँखें डालते हुए कहा।
“अरे हां यार। वो तो मैं भूल ही गया। ऑनर किलिंग, जमीन के झगड़ों में हत्याएं और साल में 100 -50 पुलिस एनकाउंटर सामान्य सी बात है। गाजियाबाद, मेरठ, मुजफ्फरनगर और बुलंदशहर। सांप्रदायिक दंगे और क्राइम। स्टेशन पर तुम अपना दुपट्टा गले पर लपेट कर रखना वरना तुम्हारे गले की चेन तो स्नेचर्स की भेंट चढ़ गई समझो।”
दोनों खिल खिलाकर हंसने लगे
घर पहुंचते पहुँचते गोधूलि का समय हो गया था। खादर की ओर से आने वाले रास्तों पर पशुओं के झुंड धूल उड़ाते हुए गांव की ओर बढ़ रहे थे। जहां हमारा कच्चा घर और पशुओं का घेर था वहां नीचे पक्की बैठक और दो मंजिला मकान बन गया था। बैलों से चलने वाली चारा काटने की मशीन की जगह बिजली की मोटर,
हैंड पंप के स्थान पर पानी के पंप ने ले ली थी। चाचा जी के केश सन की तरह सफ़ेद हो गए थे मगर झुर्रीदार मूछों वाले चेहरे पर जमींदारों वाला रुआब बरकरार था। समर ने और नलिनी ने चाचा जी के पाँव छूए तो उनकी आंखें भर आयीं। भाई की पत्नी ने प्यार और सम्मान से नलिनी को गले लगा लिया था। गांव के दिलों में आज भी बसने वाले प्रेम प्यार और मोहब्बत का यह प्रतीक था
रात के भोजन ने जैसे बचपन के स्वाद को जागृत कर दिया था। बरसों बाद ऐसा लगा जैसे माँ के हाथ का खाना खाया हो। घर के देसी घी की महक में डूबी उड़द की दाल, गेहूं चने की रोटी और मट्ठा।
घुटनों पर रज़ाई डाले हुए मैंने कहा “चाचा जी होली के दो दिन बचे हैं। जब मैं गांव में रहता था तो होली के पंद्रह दिन पहले से हर रात गांव भर में लोग इकट्ठा होकर होली बजाते थे। कहां गए वे टन टनाटन बजते घंटे और ढोल की थाप पर होली के गीत। होली आई है आई है फसल पकवाए कै। जाएगी गजरभत खाय कै।”
“किस जमाने की बात कर रहा है समर। उसे गुजरे तो बरसों बीत गए। अब ना कोई होली बजाने वाला रहा न गाने वाला। सुदरसन, जगता, सुक्खन, सागवा इत्यादि को ही चाव था होली बजाने का। ये सब तो दुनिया से चले गए। उनके मरने के बाद जो थोड़ी बहुत रस्म अदायगी बची थी उसे कुछ शराब खा गई कुछ टेलीविजन खा गया। अब तो ढोल, बम, घंटे भी न जाने कहाँ गए। या तो चोरी चकारी चले गए या जाने कोई कबाड़ी को बेचकर शराब पी गया।” उन्होने गहरी निस्वास लेते हुए कहा।
“और चाचा गांव घर की लड़कियां फुलेरा दूज पर फूल इकट्ठा करके झुंड बनाकर घर-घर जाकर फुल बिखेरती थीं। होली के कई दिन पहले चौपाल में इकट्ठा होकर गोल-गोल चक्कर काट कर नाचती थीं और लोकगीत गाती थीं। अब… वो भी खत्म क्या?”
“बात यह है बेटा कि तू आया है बीस साल बाद गांव में। तब से गंगा में बहुत पानी बह गया मेरे बालक। इतने बरस में तो सब बदल गया है। यह तब होता था जब गांव का हर छोटा बड़ा गांव की लड़कियों को अपनी बहन बेटी समझता था। अब तो जो अनाचार शहर में नहीं हो रहे वह गांव में हो रहे हैं। ना धरम बचा न समाज।”
“ऐसा भी क्या चाचा। ऐसा क्या हो गया।”
“कोई साढे तीन साल पहले ढलान पट्टी के शमशेर का लड़का हमारी पट्टी के चंदन की लड़की को भगा कर ले गया था। उस समय बड़ा बवाल मचा था गांव में। भारी तनाव हो गया था। गोलियां चलने की नौबत आ गई थी। पुलिस रिपोर्ट भी हो गई थी और पुलिस शमशेर को को उठाकर ले गई थी। कि तभी लड़का और लड़की लौट आए और लौटे भी पूरी धमक के साथ। साथ में कोर्ट मैरिज के कागज़ और अदालत के द्वारा दी गई पुलिस सुरक्षा लेकर आए।”
कुछ रुक कर उन्होंने दोबारा कहना शुरू किया “कोई एक ही गोत्र में हुई इस शादी को जायज कैसे ठहरा सकता है भला। बाद में समाज ने दबाव देकर उन्हें तो गांव छुड़वा दिया किंतु यह दुश्मनी स्थाई तौर पर गांव में पालथी मार कर बैठ गई।”
“क्यों चाचा जी अब… अब इसमें नाजायज क्या है भला। आखिर में दोनों वयस्क थे और मालिक हैं अपनी जिंदगी के। तभी तो अदालत ने उनके पक्ष में निर्णय दिया।” मैंने कहा
“बेटा गांव समाज में बरसों से चली आ रही परंपरा है। एक व्यवस्था है। एक ही गांव गोत्र और खाप के लोगों को वंशज मानकर भाई बहन समझा जाता है और इसके बाकायदा वैज्ञानिक तथ्य हैं। ये जैनेटिक विकृति का भी कारण बन सकता है। तू तो साइंस पढ़ा है। और… और व्याभिचार। एक गाँव के बच्चों को भाई बहन मानने की व्यवस्था व्यभिचार और नाजायज सम्बन्धों पर नकेल नहीं डालती क्या।
खैर… बाद में पंचायत बैठी। शहर से अखबार वाले टेलीविजन वाले और सरकारी अमला आ गया। महिला मोर्चा, समाज सुधार सभा, अंधविश्वास उन्मूलन और न जाने कौन-कौन से चन्दा खोर फर्जी एनजीओ। पंचायत में दोनों को गांव छोड़कर जाने का आदेश दिया तो हंगामा खड़ा हो गया। अखबार और टीवी वाले इसे हिटलारी और तालिबानी निर्णय बताने लगे।
चौड़ी बिंदी वाली, गहरी लिपिस्टिक और सेंट की खुशबू उड़ती शहर की कथित समाज सुधारक औरतों व छोटे छोटे कपड़े पहने पत्रकार लड़कियों की टोली गांव के बुजुर्गों से बहस लड़ाने लगीं। उन्हें दक़ियानूसी और रूढ़िवादी बताने लगीं। आधुनिकता का शत्रु और नौजवानों के अधिकारों का हत्यारा बताने लगीं।
लड़का लड़की तो गाँव छोड़कर चले गए किन्तु उस दिन के बाद लड़कियों के सावन में झूले, फुलैरा दोज और होली के उत्सव इतिहास की बात बनकर रह गई।” उन्होने एक लंबी आह ली और शांत हो गए।
“जब कोई समाज टूटता है न बेटा तो उसकी किर्चियाँ पीढ़ियों को लहूलुहान कर जाती हैं।” उन्होने टूटे से मन से दोबारा कहा।
“क्या आप भी ऐसे विवाह को उचित नहीं मानते चाचा जी।” एक लंबी चुप्पी के के बाद मैंने कहा।
“उचित और अनुचित की सीमाएं तो इंसान ने ही निर्धारित की हैं न बेटा। सभ्यता के प्रारंभ में आदमी जंगलों में रहता था। पेड़ों पर जाने कंधराओं में। तब कुछ भी अनुचित नहीं था। नाजायज नहीं था। फिर धीरे-धीरे लाखों साल में वह सभ्य हुआ। उसने एक समाज बनाया। समाज के नियम बनाए। औरतों को लेकर होने वाले झगड़े रोकने।
उनका जीवन निर्वाह सुनिश्चित करने और संतानों को पालने के लिए विवाह की संस्था बनाई। दुनिया भर की अलग-अलग सभ्यताओं ने अपने समाज के नियम बनाए और उनका पालन न करने वालों को अनुशासनहीनता की संज्ञा दी।
कड़ी सजाएँ निर्धारित कीं। सामाजिक बहिष्कार, गाँव से बाहर निकालना, यहाँ तक कि कई मामलों में जान से मार देने की सजाएँ। आप किसी समाज की सैकड़ों सालों में निर्मित गहन संरचना को जाने बिना उसके ढांचे पर अंधा प्रहार भी तो नहीं कर सकते।”
“मगर पुनर्विचार और सुधार की गुंजाइश सदैव रहती है ना चाचा जी। आखिर हम पाषाण काल ये यहाँ तक पहुंचे ही हैं ना।”
“पुनर्विचार और सुधार करने का अधिकार हमको है। उन्हें नहीं जो समाज की रचना का क-ख-ग भी नहीं जानते। और किया है हमने सुधार। नारी शिक्षा को नहीं अपनाया हमने। आज गांव की सैकड़ो लड़कियां दूर शहर के स्कूल कॉलेज में पढ़ने जाती हैं। विधवा विवाह, सती प्रथा, पर्दा प्रथा। क्या सुधार नहीं किया हमने। मगर तर्कहीन बातें करके गांव के मूलभूत ढांचे को तोड़ने का अधिकार किसी को नहीं है समर। विश्व की किसी अधकचरी सभ्यता का अंधा अनुसरण विकृति पैदा करेगा।” उन्होने दृढ़ता से कहा।
“आपका मतलब है कि विश्व के किसी सभ्यता या माइथॉलजी को हमें अपना आदर्श नहीं मानना चाहिए।”
“बिल्कुल मैं यही कहना चाहता हूं समर कि यदि आपको हमारी सामाजिक व्यवस्था नापसंद है और आप उसे बदलना चाहते हैं या उसमें बदलाव बनाना चाहते हैं तो पहले यह भी तय करना होगा कि उसे कैसा स्वरूप प्रदान करना चाहते हैं। दो सौ साल पहले सभ्य हुए अमेरिका जैसा, जहां एक आदमी जीवन में औसतन तीन विवाह करता है।
या यूरोप जैसा जहां 50% से ज्यादा लोग बिना शादी के साथ इकट्ठा रहते हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि एक महिला ने एक उम्रदराज व्यक्ति से शादी कर ली। तो कुछ बरसों के बाद उसे ज्ञात हुआ कि जो उसका वर्तमान पति है वह तो वास्तव में उसका सगा दादा है।”
“बट… इट्स माय लाइफ। मैं चाहे जैसे जीऊँ या…।”
“बस यहीं आकर सारी बहस खत्म हो जाती है समर। आदिम युग में भी तो यही स्थिति थी। चाहे जैसे जिऊं। चाहे जो पहनूँ या न पहनूँ। चाहे जिसके साथ रात बिताऊँ या दिन में ही…। फिर सभ्यता का वह ढांचा कहा गया जिसे मानव ने हजारों लाखों साल में गढ़ा था। जन्म से लेकर मृत्यु तक के रस्मों रिवाज बनाए थे। फिर परिवार और समाज का मतलब ही क्या है। बहन भाई, चाचा बुआ के रिश्तों का अर्थ ही क्या है। भई जीव विज्ञान के अनुसार तो दो देह ही हैं न। एक नर और एक मादा।”
“मगर पाश्चात्य देशों के लोग हमसे बेहतर जिंदगी जी रहे हैं कि नहीं।”
“वहाँ भी समाज के अपने नियाम हैं। ट्रेडीशंस हैं। टूटते फूटते ही सही। अमेरिका रूस, जापान और यूरोप जैसे विकसित देशों की बात एक और दृष्टि से भी अलग है। वहां महिलाएं आत्मनिर्भर हैं। उन्हें भी जीवनसाथी बदलने से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता। हां बच्चे प्रभावित होते हैं। भारत में नारी आत्मनिर्भर नहीं है। सामाजिक बन्दिशें ही उसे सुरक्षा प्रदान करती हैं।
अच्छा बता। तूने साउथ में रहकर नलिनी से शादी कर ली। ईश्वर की दुआ से तुम्हारी गृहस्थि प्रेम और शांति से चल रही है। किंतु… यदि तुम दोनों के बीच कोई तनाव पैदा हो जाए या तलाक जो आजकल के आधुनिक जीवन में सामन्य हैं तो…।
उस स्थिति में उस अबला के साथ कौन खड़ा होगा बताना जरा। हमारा समाज जिसे लगता है कि उसने हमारे काबिल छोरे को बहका लिया या उसका समाज जिससे विद्रोह करके उसने तुम्हें चुन लिया है। निराश्रित नहीं हो जाएगी वह बेचारी। इसी लिए कड़े नियमों में बंधा हुआ समाज विवाह संस्था को खेल समझने की इजाज़त नहीं देता।”
“परिवर्तन हो रहे हैं चाचा जी। अनुकूल भी प्रतिकूल भी। संचार क्रांति से दुनिया सिमट गई है। संस्कृतियां गड्ड मड्ड हो रही हैं। संक्रमण का दौर है। जो स्थिति कल थी वह आज नहीं है। परिवर्तन को कोई रोक सका है क्या।”
“रोक तो कोई नहीं सकता किंतु परिवर्तन सकारात्मक दिशा में जाए इसका सामूहिक प्रयास तो किया ही जा सकता है।”
रात गहराने लगी थी। नींद आ रही थी। बातचीत का सिलसिला बंद करके हम सो गए।
अगला दिन होली की सुबह का था जिसका मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था। चाचा जी ने बरामदे में मूढ़े डलवा दिए थे। उत्सुकता वश सहज ही नलिनी भी ऊपर से नीचे आकर बैठ गई थी मगर चाचा जी को यह स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने कहा “अच्छा लगता है बेटा, जब बालक अपने बुजुर्गों के सामने हंसते खेलते दिखाई देते हैं। मगर यहां ऐसा वातावरण नहीं है। तुम चाहो तो ऊपर से होली का तमाशा देख सकती हो किंतु यहां बैठता उचित नहीं है।”
दस बजने लगे थे। बाहर बच्चे होली का हुड़दंग मचा रहे थे और एक दूसरे पर पानी और रंग फेंक रहे थे। छोटा सा गांव था। मेरे बाल सखाओं को मेरे आगमन की सूचना अवश्य ही हो गई होगी। किंतु इस समय तक कोई भी होली खेलने नहीं आया था। पहले तो इस समय तक हम यार लोग झुंड बनाकार उत्सव में मशगूल हो जाते थे। मुझे लगा कि अब मुझे ही उनके घर जाना चाहिए। कहीं वे यह समझकर नाराज ना हो कि मैं शहर में रहकर बड़ा आदमी बन गया हूं तो हम ही क्यों उसके घर जाएँ। वो नहीं आ सकता भला।
तभी एक शख्स ने लड़खड़ाते हुए प्रवेश किया। सफेद दाढ़ी बढ़ी हुई थी। आगे के दांत टूटे हुए थे जिसके कारण मुंह की शक्ल गुफा जैसी दिखाई दे रही थी। कांतिहीन आंखें धँसी हुई थी और चेहरा पर जैसे मौत नाच रही थी।
“कहां है मेरा यार। अरे कितने साल बाद गांव में आया है। अब बड़ा आदमी बन गया है तो क्या यारों के साथ होली भी नहीं खेल सकता।”
“रामचरण!” मैंने उसकी आवाज से पहचान कर आश्चर्य से कहा।
“अरे शुक्र है… शुक्र है। दोस्तों का नाम तो याद है।” और वह लपक कर मेरे गले लग गया। उसके शरीर से पसीने और मुंह से देसी शराब के भभूके फूट रहे थे। ओह, अपने जमाने के गाँव के सबसे फुर्तीले कबड्डी के खिलाड़ी को इस हाल में देखना कितना दुखद था।
“अरे यार रामशरण 20 साल हो गए मिले हुए। बड़ी खुशी हुई तुमसे मिलकर। पर तूने यह कैसी हालत बना रखी है यार। सेहत भी चौपट कर ली।”
“अरे गोली मारो साली सेहत को। बिना पीने वाले क्या मरते नहीं। हम तो सुबह ही चढ़ा लेते हैं। भाभी… भाभी कहां है। मुझे उनके साथ होली खेलनी है।”
“वह बीमार है आराम कर रही है।” चाचा जी जिन्हे उस शराबी रामशरण का यहाँ होना ही असहज कर रहा था गुर्राकर गंभीर आवाज में कहा।
“फिर कल मिलेंगे समर। राम-राम। मैं समझ गया। तू बड़ा आदमी बन गया है और हम साले गाँव के गंवार…।” और वह बड़बड़ाता हुआ चला गया।
बहुत देर तक एक मौन हमारे बीच आकर बैठ गया था। धीरे-धीरे 11 बजने लगे थे। मैंने एक अंगड़ाई ली और गुलाल का लिफाफा उठाकर घर से बाहर की ओर बढ़ने लगा तो चाचा जी ने रोक दिया। “कहां जा रहा है समर। बैठ पहले एक-एक कप चाय पीते हैं। फिर खेल लेना होली जिसके साथ खेलनी है।” फिर चाय आ गई। हम धीरे-धीरे चाय पीने लगे।
“अब बता, कहां जाना चाहता है होली खेलने।” उन्होंने गहरी सांस लेकर कहा।
चाचा जी। मेरे बचपन के दोस्त हैं। द्वारिका है। पवन, हरिओम, चरण जीत। कितने सारे दोस्त थे मेरे। क्या मैं सबका नाम भूल गया। वे सोचते होंगे कि हम ही क्यों समर के घर जाएं। वह हमारे घर क्यों नहीं आ सकता। ईगो।”
“द्वारिका कौन। अच्छा वह छज्जू का लड़का। वो तो 12 – 13 साल पहले शहर चला गया था। बाद में उसके घर वाले भी वहीं जा बसे। और कौन सा नाम लिया था तूने? पवन। अब जाने दे। क्यों अपना त्यौहार खराब करता है।”
“बताओ चाचा जी। क्या हुआ पवन को।”
“20 साल एक बड़ा अरसा होता है बेटा। इस बीच तो न जाने क्या-क्या हो गया गांव में। पवन को पुलिस एनकाउंटर में मरे 14 साल हो गए हैं। उसने एक गैंग खड़ा कर लिया था। कई लूट हत्या और डकैती में उसका नाम आया था। संतु और हरिया का मोहन भी तभी से जेल में सजा काट रहे हैं।”
समर सन्न रह गया। कई क्षण तक उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं फूटा। अन्य मित्रों के संबंध में पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। फिर चाचा जी ने खुद ही कहना शुरू किया।
“देख बेटा, ढलान वाली पट्टी के दोस्तों के साथ तो होली खेलने की बात भी भूल जा। बताया तो था। वहां का लौंडा हमारी पट्टी की लड़की को लेकर भाग गया था। तो तनाव अब तक खत्म नहीं हुआ है। अंधेरे उजाले उधर के लड़के अगर इधर या यहाँ का कोई उस पट्टी में फंस जाये तो मारपीट होना तय है।
कई मुकद्दमें चल रहे हैं। होली के मज़ाक के बहाने चोट करने का मौका मिल सकता है। हरिओम भी गांव छोड़कर ससुराल में जा बसा है। उसे वहाँ जमीन मिल गई। हां… वह चरण का लड़का। अब तू भी कहेगा कि सारी बुरी खबर सुनाने को आज ही का दिन मिला है। एक का हाल तो तू देख ही चुका है।
चरना और रामशरण दोनों को शराब का ऐसा चस्का लगा था कि चरना पिछले साल खून की उल्टी होकर मर गया और रामचरण भी… तू देख ही रहा है। बस साल छह महीने का मेहमान है। आग लगी है बेटा। आधे नौजवानों को शराब की लत तो यह चुनाव लगा देते हैं। मुफ्त में बंटती है ना। चुनाव भी मारे आए दिन होते रहते हैं।
कभी ग्राम सभा कभी जिला पंचायत। गन्ना समिति, विधानसभा को कोपरेटिव सौसइटी और जाने क्या-क्या। और होता क्या है। उलट पलट कर वही लोग आते रहते हैं और लूट मचाते रहते हैं। अश्लील फ़िल्में और वेश्यावृति तक कराई जाती है वोट पाने के लिए। पिछले 20 साल में गांव में सबसे बड़ा डवलपमेंट यही हुआ कि यहां शराब का ठेका खुल गया है।
अब बोतल लेने कहीं दूर नहीं जाना पड़ता। हर साल दो-चार लोग नशे की भेंट चढ़ जाते हैं।” चाचा जी ने बेहद निराशा के साथ कहा।
तभी फावड़ा कंधे पर रखे चचेरे भाई विक्रम ने प्रवेश किया।
“तू कहां चला गया था रे विक्रम सुबह-सुबह। मैं तो इतनी दूर से तेरे साथ त्योहार मनाने आया हूं और तू सुबह-सुबह गायब।” समर ने शिकायती लहजे में कहा।
अरे भैया वह नहर के पानी का नंबर था। आज नही जाता तो अगला नंबर फसल सूखने तक नहीं आना था।” और वह भी हमारे पास मूढ़े पर बैठ गया।
तभी छत पर कुछ हलचल सी सुनाई दी। इससे पहले कि हम समझ पाते, छपाक से पूरी एक बाल्टी पानी में घुला हुआ गहरा लाल रंग हमारे ऊपर आकर पड़ा। समर और विक्रम तर बतर हो गए। चाचा जी के ऊपर भी छींटे लगे। वे हंसने लगे। छत पर नलिनी उसकी देवरानी और बच्चे जमकर होली खेल रहे थे। नलिनी हमारा हाल देखकर बच्चों की तरह खिलखिला रही थी। “बुरा न मानो होली है। होली है भाई होली है।”
रवीन्द्र कान्त त्यागी