यहाँ उल्लेख किए गए पात्रों के नाम और स्थान काल्पनिक हैं लेकिन मनोभाव सत्य ।
अपने नाम की तरह ही खूबसूरती की प्रभा को उज्जवलित करती ,दामिनी के समान स्फुरित चमक की लहक से उदीप्त, अनुपम, अद्भुत सौन्दर्य की स्वामिनी थी “ज्योति” ।
साधारण सी आय वाले साधारण सी माता पिता की इकलौती संतान थी वह । उसे अपने विलक्षण सौन्दर्य का “एहसास भी था और अभिमान” भी । कुछ इकलौती और कुछ अपने खूबसूरती के अहं के करण बचपन से ही अति ‘महत्वाकांक्षी और जिद्दी हो गई थी ।उसे जो चाहिए होता वो येन केन प्रकारेण ले कर ही रहती। उसके माता पिता भी उसकी इस आदत के सामने असहाय से हो जाते।
समय आने पर जब उसकी विवाह की बात चली तो उसने ठान लिया कि वह ऐसे वैसे किसी साधारण परिवार में विवाह नहीं करेगी
किसी सम्पन्न धनाड्य परिवार में करेगी ।उसने अपना अब तक का जीवन जरूर सामान्य स्थिति में गुजारा था लेकिन आने वाले जीवन में वो विलासिता और ऐश्वर्य का जीवन जीने की दृढ़ आकांक्षी थी।
बहुत से घरों से बहुत पढ़े लिखे, अच्छी नौकरी वाले, अच्छे घरों के लडकों के रिश्ते
आए लेकिन अपने ऊँचे सपनों की वजह से उसने स्वीकार नहीं किए।
वहाँ उस क्षेत्र के जमींदार “रूद्र प्रताप सिंह” ने जब उसकी सुन्दरता के चर्चे सुने तो अपने विवाह के लिए वहाँ पैगाम भेजा। उनकी उम्र करीब 40 वर्ष की थी और पहली पत्नी का एक वर्ष पूर्व देहान्त हो गया था।
उनका रिश्ता आने पर मिता पिता असमंजस में पड़ गए कि कहाँ 17 वर्ष की कोमलांगी और कहाँ 40 वर्षीय अधेड़ । वो अभी विचार कर ही रहे थे कि क्या जवाब दें इससे पहले ही ज्योति ने उन्हें उस रिश्ते के लिए अपनी रूचि प्रकट कर दी ।
एक जमींदार के घर की बहू, इलाके के सबसे रईस सम्पन्न परिवार में विवाह ,रानियों सी जिन्दगी यही तो चाहती थी वो। अब उसकी इच्छा थी तो विवाह तो होना ही था ।
शादी के बाद अपने सपनों ख्वाबों जैसा ही आलीशान घर, मोटर नौकर चाकर, बाग बीचे मंहगे वस्त्र, आभूषण पाकर वो फूली नहीं समाती थी । रुद्र प्रताप सिंह अंग्रेजी हुकूमत के आधीन कार्यरत थे तो उनके घर में अंग्रेजियत की आभिजात्य रूचि के अनुसार बेशकीमती फर्नीचर,बहुमूल्य पेंटिग्स और नायाब शो पीसेज और उपकरणों की बाहुल्य था। ज्योति ये सब देखकर अपने भाग्य पर फख्र करती ।
प्रताप भी कुछ उसके असीम सौन्दर्य और कुछ उसकी नवयौवन की मादकता में खोकर उसे पलकों पे बैठा कर रखते । वो जो चीज, जैसा आभूषण चाहती वैसे बन के आ जाता और नित नए श्रृंगार कर वो रानियों सी इस “स्वप्निलता की दुनिया” में इठलाती घूमती।
यह वह समय था जब गाँधी जी द्वारा प्रेरित “स्वदेशी अपनाओ विदेशी भगाओ” का आन्दोलन अपने शिखर पर था । लोग जगह जगह एकत्र होकर देशप्रेम और वंदेमातरम के नारे लगाते और अपने विदेशी सामान और वस्त्रों की होली जलाते । पता चलने पर अंग्रेज़ी फौजें आती और उनके ऊपर नृशंस अत्याचार किए जाते लेकिन देशवासियों की देशभक्ति का जुनून थमने में नहीं आता।
जब रुद्र प्रताप सिंह के इलाके में इस तरह के आंदोलन जोर पकड़ने लगे तो अंग्रेजी शासन ने
इसकी रोकथाम की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी ।
अब तो वे जहाँ भी इस तरह की घटनाएँ सुनते अपने लाव लश्कर के साथ वहाँ पहुँच जाते ।उन्हें पहले धमकियों से और न मानने पर अस्त्र शस्त्र के प्रयोग का भी आदेश देते।
इतना ही नहीं आहुति के लिए “बहिष्कार किए हुए उनके बहुमूल्य विदेशी वस्त्रों उपकरणों” को भी जब्त कर लेते और वो लाकर अपनी प्रेयसी को भेंट करते ।
ज्योति ये सब पाकर फूली न समाती ।
उनका कमरा, अल्मारियाँ, घर, सब अनेकानेक बहुमूल्य सामानों से भरा पडा था जिसे देख देख के वे गर्वित हर्षित होती रहतीं ।
एक दिन कहीं जाते समय उन्होंने ऐसा ही
आंदोलन अपनी आँखो से देखा । लोग दअपने देशभक्ति की जुनूनियत और बुलंद हौसलों से गगनभेदी नारे लगा रहे थे और अपने घरों के विदेशी कीमती सामान उपकरण वस्त्र आभूषणों की “होली” जला रहे थे और हैरानी थी कि ऐसा करते हुए उनके चेहरे पर कोई दुख उदासी नहीं वरन गरूर और गरिमा का तेजोमय प्रकाश था, एक आभा थी एक जुनून था । ज्योति ये सब देखकर चकित, विस्मित,स्तंभित थी।
तभी उसने देखा कि बहुत ही गरीब स्त्री जिसके बदन पर सिर्फ एक धोती और सर्दी से बचने के लिए दुशाला था वो दुशाला शायद विदेशी उत्पादन था। ज्योति के रोंगटे खडे हो गए यह देखकर कि उसने इतनी ठंड में अपने एकमात्र “दुशाले” की बिना किसी सोच संकोच के उस होली में आहुति दे दी और उस समय उसका चेहरे की प्रभा एक अलौकिक आभा से दीप्त थी । ज्योति के मन में कुछ ऐसा “स्पंदन- क्रंदन” हुआ जैसा आज से पहले उसने कभी महसूस नहीं किया था । उसने आज तक स्वयं के लिए जीना सीखा था देशभक्ति की की लौ का प्रकाश छू तक नहीं पाया था उसे।
लेकिन आज क्या हुआ क्यों इतनी छोटी सी घटना ने उसके ह्दय को जैसे चीर के रख दिया? उनके देशभक्ति के आक्रोश और जुनून ने उसकी अंतरात्मा को अंदर तक झकझोर कर रख दिया ।अपने ऐश्वर्य से घृणा होने लगी उसे।
भाव विह्वलता के कारण वह बीच रास्ते से ही वापिस घर आ गई ।
इधर जब रुद्र प्रताप सिंह को उस स्थान पर आंदोलन की भनक लगी तो वह पहुँच गए अपने अस्त्र शस्त्र समेत । लाठी बारी शुरू कर दी गई अफरातफरी मच गई कुछ डर से भाग गए तो कुछ मार खाने और खदेड़े जाने के बावजूद बुलंद हौसलों से वहीं डटे हुए “स्वदेसी अपनाओ विदेशी भगाओ” के नारों से वातारण को विस्फोटित कर रहे थे। उनके आक्रोश के उन्मादी स्वरों का विस्फोटन जैसे मेघ के स्पंदित कर देने वाले गर्जन को परास्त करना चाह रहा था।
आखिर में ऐसे जोशीले लोगों को पकड़कर बंदी बनाने का आदेश दिया गया तब भी वे बिना घबराए बिना भागे वंदेमातरम के नारे लगाते हुए आत्मसमर्पण कर रहे थे।
जब रुद्र प्रताप सिंह हमेशा की तरह बिना जला सामान लूटने के लिए आगे गए तो उनकी आँखे फटी रह गई अचानक उन्हें लगा कि वह जो देख रहे हैं वो स्वप्न है या सच है। उनको जैसे चक्कर से आने लगे जब उन्होंने देखा कि ज्योति अपनी दो तीन सेवक सेविकाओं की
मदद से दो तीन बड़े बड़े बक्सों में से अपने सारे कीमती वस्त्रों , आभूषणों, बहुमूल्य पेंटिग्स, घर के कीमती सामानों, शो पीस, यहाँ तक के उनके भी सूट और शाही विलासिता के साधनों को ” स्वदेशी होली” में डालती जा रही थी ।
इस समय ज्योति का चेहरा “चाँद के सौम्य स्निग्ध सौंदर्य की दमक से उज्जवलित” नहीं
वरन “सूरज की प्रखर तपिश की लहक की दमक से ज्वलित” था जिसके तेज का सामना करने का साहस रूद्र प्रताप सिंह में नहीं था।
आज “ज्योति की ज्वाला” के उन्मादी आक्रोश ने अपने नाम को सही मायनों में सार्थक कर दिया था।
आक्रोश
स्वरचित——- पूनम अरोड़ा