जुगाड़ – डाॅ उर्मिला सिन्हा   : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi: जाड़े की जवानी का महीना पूस। सर्द रात। कड़कड़ाती ठंड। उसपर पछिया हवा का साथ।बढ़ती कनकनी,ओस, कुहासा,पाला और ठंढी हवाओं का साथ।खून जमाने के लिए पर्याप्त वैसे में गरीब को क्या ओढ़ना और क्या बिछाना… सबकुछ इस ठंढी रात में व्यर्थ है। 

  एक ओर वृद्धा , अशक्त,खांसती सासु मां, इस हाड़ कंपाती ठंढ में बेहाल पड़ी हुई है!

उधर काली ग‌ईयाअपने  नवजात बछिया संग ठिठुरती हुई उसे एकटक देखे जा रही है । इस भीषण शीतलहर में दरवाजे पर भूरी कुतिया अपने नन्हे पिल्लों के साथ कूं-कूं करती अपने पंजों में सिर छुपाये हुई है !

   सूरजदेव भी बादलों से आंख मिचौली खेलते-खेलते,पूस के महीने में बूंदा-बांदी फिर झमाझम बारिश कर प्रकृति अपना जलवा दिखा रही है । वर्षा का जल मानों वर्फ के गोले के समान कंपकंपी पैदा कर रही है।उनका साथ दे रही सर्द हवाएं । वैसे में जीवन जमने का खतरा उत्पन्न हो रहा है।

     हाय द‌ईया सुगनी करे तो करे क्या ? गेहूं का पहला पटवन ,पूस का सर्द मौसम ,घरवाला खेत पर दांत किटकिटाता दो जून की रोटी के जुगाड़ में  कभी घर कभी खेत-खलिहान कर रहा है !मना करने पर कहता है, 

“गेहूं के नन्हें पौधों  की प्यास बुझाने में भिनसार,रात या ठंढ का क्या हिसाब करें सुगनी।”

“पूस का दिन ,फूस जैसा…!”सुगनी दिलासा देती।

“गेहूं के नन्हें पौधों का मुंह देखता हूं तो सर्दी का ध्यान नहीं रहता!”कृषक हमारा अन्नदाता उसका पति… सुगनी की सीना गर्व से चौडा़ हो गया। 

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जांबाज घरवाला किसान इस भीषण सर्दी में भी फटा कंबल ओढ़कर निकल जाता है।

  घर के बाहर शीतलहर , भीतर हाड़ छेदती ठंढ। विचित्र  धर्मसंकट है ।स्थिति के निराकरण हेतु कुछ उपाय नहीं सुझता !

 इसी सोच में पड़ी   सुगनी को कुछ स्मरण आता है। घर के पिछवाड़े बखार में गोबर,कंडे , लकड़ी का झुरी पडा़ हुआ है वह किसदिन काम आयेगा!

   वह दौड़कर सब इकट्ठा कर माचिस की तीली लगा देती है। 

   धू-धू कर अग्नि -देवता प्रज्वलित होते हैं”जय हो अग्नि देव।”

  इस कड़ाके की सर्दी में सुगनी का मुखमंडल आग की लपटों से लाल , सुनहरा देवी के समान चमकने लगता है। पहले सासु मां की खाट अग्नि के समीप खींचती है”माय,आग तापों…!”

आग की गर्मी पाते ही वृद्धा के मृतप्राय शरीर में जान आ गई ,”जियो बहुरिया…!”वह आशीषों की झड़ी लगा देती है। 

   सुगनी दौड़कर काली ग‌ईया और बछिया को भी आग के निकट दालान में खींच लाती है। दोनों जीव गर्मी पाते ही उत्फुल्लित हो उछलने लगते हैं ।

  सुगनी भूरी कुतिया को आवाज देती है__”आ..आ …!”आगे -आगे

भूरी और पीछे -पीछे बाल -गोपाल ताप पा खिल उठते हैं।

     जाडे़ की रात को मात देती सुगनी वास्तव में मनुष्य के जीजीविषा को परिलक्षित करती है। अग्नि के मंद पड़ते ही सुगनी मन ही मन कुछ कठोर निर्णय लेती है …।सामने छप्पर छवाने के लिए  लकडियां रखी थी बडी़ जतन से …जान बच जायेगी तब फिर लकड़ी का जुगाड़ कर लेंगे। सुगनी ने जी कडा़ किया और  मेहनत से बचाकर रखी हुई लकड़ी खीच लाई। 

   पुरजोर समिधा पड़ते ही ज्वाला धधक उठती है ।सुगनी का हृदय संतोष से भर उठता है । अब रात भर जलेगी आग। 

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  खेत से लौटने पर आपादमस्तक  बारिस और शीत से सराबोर पति को अमृत लगता है आग की गर्मी। हाथ-पैर सेंकते अचानक सुगनी की ओर मुखातिब हुआ,”यह आग…!”

सुगनी आंखों से। इशारा करती है। पति चौंक उठता है”अरे…..!”

“हां,जान रहेगी तो अगले साल छप्पर छवाने के लिए…. लकड़ी का इंतजाम कर लेंगे…! कम से कम इतने जीवों की ठंढ से  रक्षा तो हो ;देखो इस आग ने सभी के शरीर में स्फूर्ति ला दी है।”

  पूस की जानलेवा ठंढी रात को मात देती सुगनी ने  बड़े जतन से बचाकर रखा हुआ लकड़ी का ढेर 

दहका दी ताकि मानव,पशु सभी के प्राणों की रक्षा हो सके….!यह ठंढी रात चैन से गरमाकर बीत जाये फिर बाद की बाद देखी जायेगी। 

   पति सोंचता है ,”बात तो सही है , धन्य हो गृहलक्ष्मी….!” सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना–डा उर्मिला सिन्हा©®

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