जुआ का अंतिम दांव लगा हुआ था।
दोनों पक्षों के लोग अपने अपने साथी को जीतते हुए देखना चाह रहे थे…
आज तीन चार घंटे से लगने वाला हर दांव कमल ने हीं जीते थे..
और जीते भी क्यों नहीं,,ले देकर यहीं तो एक काम आता था जिसमें उसे महारथ हासिल थी…
और विरासत में भी तो मिली थी ये जुए की बुरी लत्त…
जुआ अपने पूरे चरम पर था…
अब बहुत जल्द हीं हार जीत का फैसला होने वाला था..
विपक्षी दल के तीन चार सदस्यों ने आंखों हीं आंखों में जाने एक दुसरे को क्या इशारा किया…
और उनके होंठों पर एक कुत्सित मुस्कान तैर गई…
शाम का धुंधलका धीरे धीरे वातावरण में छाने लगा था..
जुआघर के मकान मालिक ने मिट्टी तेल की एक डिबरी जलाकर
रख दिया..
डिबरी के मध्यम प्रकाश में विपक्षी दल के सदस्य एक दूसरे से इशारों में अपनी योजना बनाने में व्यस्त थे…
अचानक से पूरे वातावरण में एक शोर गूंज उठा…
जीत गया जीत गया….
कमल के इस अठ्ठाहास के साथ हीं डिबरी गिर पड़ी…
और चारों तरफ अंधकार छा गया…
अफरा तफरी में जब तक दूसरी डिबरी लाई गई..
सारे पैसे गायब…
इतना बड़ा दांव जीत कर इतनी बड़ी हार…
कमल सर पकड़ कर बैठ गया..
सारे विपक्षी सदस्य भी गदहे की सींग की तरह गायब हो चुके थे…
बस बचे थे तो कमल और उसका
जुआ खेलने वाला साथी..…
उसके विपक्षी ने कहा कि,, क्या कमल एक एक दांव और खेल लें???
कमल लुटा पिटा सा बस शून्य में ताकता रह गया…
विपक्षी विविध प्रकार से उसे उकसाता रहा अगला दांव खेलने के लिए…
कमल तो जैसे चेतना शून्य हो चुका था…
विपक्षी अपनी बात पर अड़ा रहा कि,, एक अंतिम दांव हो जाए…
कमल की तंद्रा भंग हुई वो घर जाने के लिए उठ खड़ा हुआ…
तभी विपक्षी ने उसकी बांह पकड़ ली,,
कमल देख ये तो गलत है…
आज के सारे दांव तुमने हीं जीते हैं,आ ना एक दांव खेल लेते हैं…
खेल अभी खत्म नहीं हुआ है..
तुम ऐसे नहीं जा सकते…
कमल ने अपनी बांह छुड़ाते हुए कहा… जाने दें मुझे अब बचा हीं क्या है जो मैं अगला दांव खेलूं???
विपक्षी ने एक दानवी मुस्कान चेहरे पर रख कर बड़े हीं अर्थपूर्ण दृष्टि से कमल की तरफ देख कर कहा,,भाई तेरे पास तो जो है वो किसी के पास भी नहीं है..
तूने पांडवों का नाम तो सुना है ना…
कमल विपक्षी की तरफ अजीब सी नज़रों से देख कर बोला… तू कहना क्या चाहता है???
विपक्षी_ वहीं जो तू समझ रहा है..
तू ये क्यों भूल रहा है कि तेरे भी घर में…….
कमल गुस्से में तमतमाकर बोला.. तेरी हिम्मत कैसे हुई?? मेरी पत्नी का नाम लेने की..
विपक्षी भी पूरा बेशर्म और ढी़ठ प्रवृत्ति का था,,कह उठा…
मैं तेरी पत्नी नहीं तेरी बेटी बड़की…
इतना सुनते हीं कमल भड़क उठा..
मैं तेरी जान लें लूंगा.. विपक्षी ने कमल के कंधे पर हाथ रख कर संयमित स्वर में बोला…
देख कमल दिल से नहीं दिमाग से काम लें…
बस एक दांव और सब कुछ ठीक…
एक तरफ बड़की और दूसरी तरफ सारे पैसे…
हम सब कुछ इस तरह से करेंगे कि, किसी को कुछ पता नहीं चलेगा..
सोच ले…
बस एक रात की तो बात है..
बस एक रात…
कमल के हृदय में बैठे एक पिता और एक जुआरी के बीच घंटों वैचारिक संग्राम चलता रहा…
कभी एक का पलड़ा भारी तो कभी दूसरे का…
और आखिरकार, एक जुआरी ने पिता को हरा हीं दिया..
सारी योजनाएं बन गईं…
जुएं की विसात बिछाई गई…
एक तरफ ढ़ेर सारे पैसे और दूसरी तरफ ब…ड़….की….
मन में उमड़ते हजारों भावों, विचारों और आशंकाओं के बीच
एक जुआरी आज इंसानियत को कलंकित करने बैठा…
नियति ने भी क्या खूब खेल खेला..
कमल की हार हुई…
आज रात बड़की को ….
कमल लुटा पिटा सा आधी रात के समय जब घर लौटा तो पत्नी और बच्चे दरवाजा अधखुला छोड़ हीं सो गये थे..
आंगन में मैले कुचैले बिस्तर पर बच्चे बेतरतीब ढंग से सोये पड़े थे…
उनकी मां पंखा झलते झलते हाथ में पंखा लिए हीं पैरों के पास सो गयी थी…
चांद का मटमैला प्रकाश पेड़ों से छनकर दोनों बेटियों के चेहरे पर आ रहा था…
सत्रह साल की बड़की तेरह साल का भोलू और नौ साल की छुटकी…
तीनों बच्चे विधि के विधान से अनभिज्ञ जाने किन सपनों के संसार में खोए हुए थे…
जब आंगन में चांद की रौशनी कमल के चेहरे पर पड़ी तो मानो ऐसा लगा जैसे चांद समेत सारे नक्षत्र उस पर थूक रहे हैं…
नींद आंखों से कोसों दूर थी…
दूर से आती झिंगुरो की आवाज
उसे धिककारती हुई प्रतित हो रहीं थीं…
रे नराधम क्या कर आया तू???
अरे दांव हीं खेलना था तो स्वयं को क्यों ना लगा दिया दांव पर…
विचारों के झंझावातों से बचने के लिए उसने अपने कान और आंख दोनों बंद कर लिए…
तभी दो साए अपनी योजनानुसार
दरवाजे से आंगन में दबे पांव दाखिल हुए…
ढलता हुआ चांद उन सायों को देख बादलों के चादर में छुप गया…
आंगन में आए दोनों सायों ने मिलकर सोई हुई कन्या को कंधे पर उठा लिया…
और जिस रास्ते से आए थे उसी रास्ते से निकल पड़े…
कमल किंकर्तव्यविमूढ़ सा ज्यों का त्यों बैठा रहा…
आत्मा के धिक्कार और हृदय की धड़कनों की चोट से दीए की आखिरी लौ के समान फड़फड़ा कर उठ खड़ा हुआ और उस रिक्त स्थान को टटोलने लगा…
सीने पर एक ऐसा वज्रपात हुआ कि उसके शरीर समेत आत्मा को भी लकवा मार गया…
ये क्या???
बड़की की जगह छुटकी???
हे भगवान!!!
नौ साल की छुटकी….
चार दरिंदें…
मासुम बच्ची की चीखती हुई आत्मा…
खून से लथपथ छुटकी…
असह्य पीड़ा….
मुंह से घुटती सांसें….
ये सारे दृश्य उसकी नज़रों के सामने घुमने लगे…
विपक्षी का अट्टाहास और बस एक रात की तो बात है…
सब मिलकर कमल को इस कदर जलाने लगे कि,,
वो वहीं अपना कलेजा थाम कर
धम्म से गिर पड़ा…
आहट सुन सबकी नींद खुली तो…
एक पिता जुआरी के हाथों हार कर कब का उस अनंत आकाश के नक्षत्रों से अपने इस महापाप का दंड लेने जा चुका था…
काश!! ये आत्मा कुछ समय पहले निकल जाती तो कितना अच्छा था…
डोली पाठक
पटना बिहार