दिव्या को बचपन से पढ़ने का शौक था। सिर्फ कोर्स की किताबें नहीं अपितु अपने भाई बहनों की किताबें भी वो पढ़ डालती थी। कभी कुछ समझ नहीं आता तो कितने सवाल करती थी कि बड़े भाई बहन खीझ भी जाते थे कि तू अपनी ही किताबे पढ़ ले वहीं बहुत है। पर दिव्या को चैन कहां आता भाई बहन से अपेक्षित उत्तर ना मिलने पर दिव्या विद्यालय में अपनी अध्यापिकाओं से सवाल करती थी।
दिव्या का ये शौक जुनून की हद तक जा रहा था मानो वो किताबी कीड़ा बनती जा रही थी । विद्यालय में जब वक़्त मिलता तो पुस्तकालय में जा नई नई किताबें पढ़ती फिर घंटों उनके बारे में सोचती रहती।
” क्या दिव्या तू तो सारा दिन किताबें चाटती रहती है चल ना आज खेलने चलते हैं!” खेल के पीरिएड में अक्सर उसकी सहेलियां कहती।
” नहीं यार तुम चली जाओ मुझे पुस्तकालय जाना है किताब पढ़ने !” दिव्या आने में असमर्थता जाहिर करती।
” अरे क्या करेगी इतनी किताबें पढ़कर !” सहेलियां बोलती।
” बड़ी होकर एक दिन मैं भी अपनी किताब छपवाऊंगी इसलिए अलग अलग लेखकों की किताबें पढ़ती रहती हूँ जिससे मुझे लिखने की प्रेरणा मिले !” एक दिन अपनी सहेलियों के सामने दिव्या ने अपना राज खोल ही दिया।
” हाहाहा पागल है तू तो तेरी औकात है किताब लिखने की ऐसे ही कोई ऐरा गैरा किताब छपवा सकता है क्या ? किताब पढना और किताब लिखना दोनो मे जमीन आसमान का अंतर है समझी तू । ” ये बोलती हुई उसकी सहेलियां खेलने चली गई और दिव्या मुंह बना पुस्तकालय की तरफ भागी। तबसे दिव्या ने अपनी उन दोस्तों से एक दूरी बना ली जो उसके जुनून का मजाक बनाती है।
” बेटा आप कभी खेलने नहीं जाती हो जब भी समय मिलता यहां पुस्तकालय में चली आती हो क्या आपको खेलना अच्छा नहीं लगता !” एक दिन पुस्तकालय की अध्यापिका रेणु मैडम ने पूछा।
” ऐसी बात नहीं है मिस पर मुझे पुस्तक पढ़ना हर काम से अच्छा लगता है !” दिव्या मासूमियत से बोली।
” पर बेटा इतनी किताबें पढ़कर क्या करोगी !” अध्यापिका फिर बोली।
” वो मिस…. एक दिन मैं भी अपनी किताब लिखूंगी !” दिव्या ने सिर नीचे झुकाते हुए जवाब दिया।
” अरे ये तो बहुत अच्छी बात है जब तुम किताब लिखोगी तो एक कॉपी मुझे भी दोगी ना पढ़ने के लिए !” अध्यापिका प्यार से बोली।
” सच्ची मिस…आप पढ़ोगी मेरी किताब ….मेरे सारे दोस्त तो मेरी इस बात पर मेरी हंसी उड़ाते हैं बोलते हैं कि मेरी औकात नही किताब लिखने की ऐसे कोई ऐरा गैरा अपनी किताब थोड़ी छपवा सकता है।” दिव्या ने कहा।
” बेटा ये जितने भी लेखक लेखिका होते हैं वो भी तुम्हारी तरह सामान्य लोग ही होते हैं तो तुम किसी की बात पर ध्यान मत दो और पढ़ने के साथ लिखना शुरू करो मैं पढूंगी तुम्हारा लिखा !” अध्यापिका ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोला।
अब मानो दिव्या को अपना जुनून पूरा करने की मंजिल मिल गई वो छोटी छोटी कविताएं लिखने लगी। रेणु मैडम कभी उसकी कविताओं में से गलतियां निकालती कभी उसे प्रोत्साहित करती जिससे नन्ही दिव्या को और अच्छा लिखने की प्रेरणा मिलती। अब उसकी कविताएं विद्यालय की वार्षिक पुस्तिका में छपने लगी थी। जब दिव्या दसवीं कक्षा मे थी तब रेणु मैडम का तबादला हो गया और वो दूसरे शहर चली गई। उस वक़्त मोबाइल फोन तो होते नहीं थे जो दिव्या उनसे कोई संपर्क रखती।
वक़्त तेजी से गुजरने लगा दिव्या विद्यालय फिर कॉलेज में अपनी कविताओं के लिए प्रसिद्ध होने लगी।
आज सालों बाद रेणु मैडम दिव्या को एफबी पर नजर आईं और उसने झट उन्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी साथ ही अपना नंबर लिखकर उनका भी मांगा । जवाब मे उनका कॉल ही आ गया।
” हैलो मिस मैं दिव्या आपने पहचाना? ” दिव्या ने पूछा।
” हां दिव्या तुम्हे कैसे भूल सकती हूं। और बताओ तुम्हारा कविता लिखने का शौक बरकरार है या छूट गया सब ? ” मैडम ने पूछा।
” मिस शौक होता तो छूट जाता शायद पर वो तो मेरा जुनून था अब तो मैं छोटे मोटे कवि सम्मेलन में भी कविता पाठ करने लगी हूं। याद है आपको मुझे पुस्तक छपवानी थी अपनी इस शनिवार को मेरी पुस्तक का विमोचन है मैं चाहती हूं वो आपके हाथों से हो आप आएंगी ना ?” दिव्या ने कहा।
” क्यों नहीं दिव्या वैसे भी अब तो मैं वापिस इस शहर आ गई हूं मैं जरूर आऊंगी !” मैडम ने कहा।
पुस्तक विमोचन के वक़्त दिव्या ने अपनी प्रेरणा बाकी लेखिकाओं के साथ रेणु मैडम को भी बताया जिन्होंने तब उसका साथ दिया जब उसके दोस्त, भाई ,बहन सब मजाक बनाते थे। रेणु मैडम ने दिव्या को गले लगा लिया।
दोस्तों शौक सबके होते पर अपने शौक को जुनून की हद तक चाहना और उसे पूरा करने के लिए जुट जाना हर किसी के बस की बात नहीं और जो कुछ अच्छा करने के लिए जुनून की हद तक जाते हैं वहीं सफलता पाते हैं।
आपकी दोस्त
संगीता अग्रवाल