आख़िरकार आज आँगन में दीवार उठ ही गयी। “कृष्ण-लीला सदन” नाम की बहुत ही बड़ी और सुंदर कोठी थी यह अपने शहर प्रयागराज की।श्यामजी अग्रवाल ने बड़े जतन से इस कोठी का निर्माण करवाया था
और अपने माँ-पिता के नाम पर नाम रखा “कृष्ण-लीला-सदन”। माँ का नाम लीला और पिता का नाम कृष्ण था।कृष्णकांत जी बहुत ही प्रतिष्ठित और सज्जन इंसान थे
और उनका अपना एक प्रिंटिंग-प्रेस और फोटो-इस्टेट का कारोबार था। जो अब उनके एक पुत्र…श्यामलाल जी संभल रहे थे। लीला जी की सास अपने अनुभव के आधार पर ही अपने बेटे
कृष्णकांत और बहू लीला को दो बेटा करने की सलाह देती रहती थी उनका कहना था-“ एक आँख को आँख नहीं कहते”। उनका मानना था कि…पति
शशिकांत और बेटा कृष्णकांत अकेले पुत्र होने के कारण अपने काम में बहुत व्यस्त रहते और कोई भी आफ़त-विपदा घर -परिवार और व्यापार में आती तो बेचारे अकेले ही जूझते।
एक बेटी और एक बेटा होते हुवे भी … अत्यधिक दबाव के चलते
आख़िर दोनों ने अपने सीमित परिवार को बढ़ाने का फ़ैसला लिया और क़रीब आठ साल बाद दोनों को एक और पुत्र हुआ जिसका नाम उन्होंने रामलाल रखा।
जीवन सुचारू रूप से चल रहा था, किसी को किसी चीज की कमी ना थी। धीरे-धीरे श्यामलाल अपने पिता का व्यापार सँभालने लगे।
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कृष्णकांत जी ने अपने छोटे बेटे रामलाल को दिल्ली में उच्च शिक्षा के लिए भेजा।वहाँ की पढ़ाई पूरी कर वो विदेश चल गया और बाद ने परिवार सहित वही बस गया।रामलाल से वो अब रोमेश बन गये थे।
और यहाँ…
शहर में नामी-गिरामी हस्ती में श्यामलाल जी की गिनती होने लगी थी । उन्होंने अपने पिता कृष्णकांत के व्यापार को अपनी अत्यधिक परिश्रम से आगे बढ़ाया जो अब बहुत बड़ा प्रिंटिंग प्रेस “लीला प्रेस” बन गया था।
लेकिन कहते हैं ना… जीवन में कब क्या हो जाए कोई नहीं जानता।
करोना और विदेश में कंपनी में छटनी होने पर रामलाल जी परिवार सहित वापस आ गये । कुछ दिन तो सब ठीक रहा लेकिन दोनों परिवार के बच्चों
और विदेश में रह आयी रामलाल की पत्नी को बड़े भाई श्यामलाल की प्रतिष्ठा और मान सम्मान से ईर्ष्या होने लगी, और बच्चों में प्रतिस्पर्धा। अब मीरा( रामलाल की पत्नी) को लगने लगा कि… इस बिज़नेस में मेरे पति रामलाल का भी हक़ है…
फिर क्या…रामलाल को भी अपने बड़े भाई की प्रगति से जलन होने लगी…अब वो अपने पिता कृष्णकांत के बिज़नेस में अपना हिस्सा मंगाने लगे।
श्यामलाल ने याद दिलाया कि… तुमने एक मोटी रक़म लेकर विदेश बस गये थे , माँ-पिता की मृत्यु पर आये थे तभी तुमने एक मोटी रक़म ली थी हमसे।
लेकिन यह बँटवारा काग़ज़ पर नहीं था सो… बेचारे श्यामलाल जी कुछ नहीं कर पाये।आज घर और व्यापार में दीवार खड़ी हो गयी और “लीला प्रेस” और “कृष्णलीला सदन”का बँटवारा हो गया।
सच! “#जो रिश्ता विपत्ति बाँटने के लिए बनाया गया था आज वह ख़ुद संम्पत्ति बाँटने के चक्कर में बंट गया।”
संध्या सिन्हा