जो बोया वही पाया – कविता झा ‘अविका’   : Moral Stories in Hindi

कमला के चार बेटे बहूएं और दो बेटियां… पोते पोतियां… सबके होते हुए भी उसका बड़ा बेटा अपनी मां  के लिए एक ऐसी नौकरानी  ढूंढ रहा था जो उसके साथ चौबीस घंटे रहे। उसकी पत्नी ने तो साफ इंकार कर दिया था…

मुझसे कोई उम्मीद मत लगाइएगा कि मैं आपकी मां की सेवा करूंगी।

उसकी देखा-देखी बाकी बहुएं भी कमला के पास भी नहीं फटकती थीं इस डर से कि  कहीं वो कोई काम ना बोल दे।

चारों बेटे नौकरी पेशा थे। नौकरी छोड़ कर घर में बैठ जाएं ये तो कमला भी नहीं चाहती थी।

तुम लोग परेशान मत रहो मेरे लिए। अब बुढ़ापा तो आ ही गया है भगवान मुझे तुम्हारे पिता के पास पहुंचा दें बस इतनी सी इच्छा रह गई है।यह मौत भी मेरे पास नहीं फटकती। मुझे आकर गले लगा लेगी सो नहीं होता इससे।

पोते पोतियां हंसते और कहते…

“दादी मां के डर से ये मौत भी भाग जाती है। बाप रे! कौन इनके पास आए। इन्हें अपने साथ ले जाने की हिम्मत तो साक्षात यमराज में भी नहीं है।”

 अस्सी वर्षीय कमला आज लाचार हो गई है अपने दैहिक काम भी खुद नहीं कर पाती। उसके बेटे बेटियां  उसके पास आकर दो घड़ी बैठे तरस रहीं थीं उसकी आंखें। बुढ़ापा तो एक दिन सबको आना है ये तो वो भी भूल ही गई थी जब ब्याह कर आई थी इस घर में उसकी सास उसके साथ बुरा व्यवहार करती थी जब वो नई नई इस घर में आई। पहले सास बहू को खाने पीने के लिए तरसाती थी,

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सब कुछ रहते हुए भी कभी उसे अच्छा खाने नहीं देती कि वो उसके बेटे बेटियों के लिए है। फिर जब उनका शरीर लाचार हो गया तब कमला ने गिन गिन कर बदला लेना शुरू किया। वो खाने पानी के लिए अपनी सास को तरसा देती। कमला का पति दूसरे शहर में नौकरी करता था तो महीने में एक आध बार ही आता। मां की हालत देख उसे तकलीफ होती पर कमला बहुत खुश रहा करती थी। वो तब भूल ही गई थी कि जैसा वो कर रही है कल को उसके साथ भी बिल्कुल वैसा ही होगा। यही जीवन का सच है…

 बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। 

सास तड़पती हुई इस दुनिया से चली गई। कमला अपने बच्चों के साथ व्यस्त थी उनकी परवरिश में। 

बड़े बेटे की शादी के बाद उसे भी सास बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वो भी अपनी सास की तरह ही बहू पर हुक्म चलाने लगी। बड़ी बहू ने इसे अपनी किस्मत समझ स्वीकार कर लिया। धीरे धीरे सभी बेटों की शादी हुई कमला का खौफ पूरे घर में समाया रहता जिस तरह कभी उसकी सास का खौफ चलता था इस घर में। 

उसके पति कमलेश उसे हमेशा समझाते…

“अरे! कमली बहुओं के साथ प्यार से रहा कर। बेटे तो हमेशा पास नहीं रहते पर बहूएं ही हमारी सेवा करेंगी जब हमारे  हाथ पैर कमजोर हो जाएंगे और हम अपने काम भी नहीं कर पाएंगे तो दो रोटी बहुएं ही तो खिलाया करेंगी हमें। जितना प्यार तू पोते पोतियों पर लुटायेगी वो सब वापस आएगा तेरे पास। नफरत करेगी तो वही लौट आएगा।”

“यह सब उनका कर्तव्य है। मैंने नहीं किया क्या? इतनी तो सेवा की आपकी मां की। हर बात मानती थी उनकी फिर भी तो वो हमेशा मुझसे खार खाए रहती थीं।ये पोते पोतियों को गोदी में लादे फिरना और उनका गू मूत साफ करना मुझसे ना होगा जी। हमने भी तो अपने बच्चे पाले हैं अब इनके भी पालें और ये आराम फरमाते रहें।”

“तुम्हें कुछ समझाना बेकार है।”

“तो किसने कहा है समझाने के लिए। मुझमें इतनी अक्ल है कि अपना अच्छा बुरा समझ सकूं।”

“वही तो नहीं है। इसी बात का तो डर है कि तुम अपना अच्छा बुरा नहीं सोच पा रही हो।”

कमलेश हार गए थे अपनी पत्नी को समझाते समझाते। एक दिन वो भी इस दुनिया से चले गए ।

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नितान्त अकेले हो गई अब कमली इतने बड़े घर में। रिश्तेदारों ने तो पहले ही उससे मुंह मोड़ लिया था उसके रूखे और  कड़क स्वभाव के कारण। कोई किसी के यहां सिर्फ चाय नाश्ते के लिए नहीं आता बल्कि दो मीठे बोल और आपसी प्यार के कारण ही रिश्ता निभाता है।

पति की बातों को याद कर उसकी आंखें गीली हो गई। काश! उनकी बात मान ली होती तो आज ये हाल ना होता। 

घर में तरह तरह के व्यंजनों की खुशबू उसके नथूनों तक पहुंचती है पर खाने के लिए दिन में एक बार ही सूखी बासी रोटी उसके आगे इस तरह डाल दी जाती है कि जैसे गली के कुत्तों के लिए बासी खाना डाल दिया जाता है।

कमला अब ये अच्छी तरह समझ गई थी कि उसने जो बोया वही  तो उसे मिल रहा है। जैसे संस्कार अपने बच्चों को दिए… जो उन्होंने  घर में हमेशा देखा वहीं सीख कर तो बच्चे आज उससे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं।

कविता झा ‘अविका’ 

रांची झारखंड 

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