दिसंबर का महीना था,सुधा घर का सारा काम निपटा कर धूप में आकर बैठ गई।
आज बालकनी में इतनी धूप नहीं थी जितनी तेज हवा चल रही थी। हल्की हल्की कोहरे की धुंध भी थी फिर भी धूप का हल्का सा सेंक अच्छा लग रहा था।मनोज को आफिस भेज कर सुधा थोड़ा निश्चिन्त महसूस कर रही थी,इसी समय वह अपने बारे में, कुछ भविष्य के बारे में सोचती थी।सुधा को बचपन से पढ़ने में रुचि थी इसीलिए विवाह के दो वर्ष के भीतर मायके की तरह यहां भी किताबों का अच्छा खासा संग्रह कर लिया था।यही तो उसका व्यसन था जिसे वह छोड़ नहीं सकती थी।विवाह के एक वर्ष बाद ही सासूमां का साथ छूट गया था,एक दिन अचानक हृदयाघात से उनका निधन हो गया था।उनके जाने के बाद नितांत अकेलापन होगया था,मनोज तो नौ बजे ऑफिस चले जाते तब यही किताबें ही सुधा के अकेलेपन का साथी थी।किन्हीं विचारों में सुधा खोई हुई थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी,जाकर देखा तो राधा मौसी खड़ी थी।
सुधा: “अरे मौसी आप?”
राधा:” हां बहू रानी तुम लोगो से मिलने का मन था तो चली आई।”
सुधा:। “अच्छा किया ना ,थक गई होंगी कितनी सर्दी है, आइए धूप में बैठते हैं।”
सुधा ने राधा के हाथ का बैग पकड़ा और
अंदर लेआयी।
सुधा: “मौसी और सुनाइए,घर में सब कैसे हैं ? सब ठीक तो हैं ?’
राधा: “हां बेटा सब ठीक है । अब तो मुझे तू पहले गरम गरम चाय पिलाएगी या बातें ही करती रहेगी’।सुधा मौसी को उसी कमरे में ले आयी जिसमे सासूमां रहती थी।सुधा की सास मालती और राधा दूर के रिश्ते से बहन लगती थी लेकिन उनमें बहनापा से अधिक सहेलापन था।पिछले
वर्ष जब सखी का देहांत हुआ था तब दिल्ली अाई थी तेरहवीं के बाद वापस चली गई थी।सुधा सोच रही थी कि एक वर्ष में मौसी कितना बदल गईं हैं।चेहरे पर अाड़ी तिरछी लकीरें दबा सांवला रंग
फिर भी चेहरे पर मंद मुस्कान थी।ऐसा लग रहा था कि जैसे इस मुस्कान के आवरण ने बहुत कुछ छुपा रखा है।सुधा चाय बना कर ले आयी,कमरे में अचानक सन्नाटा सा घिर गया था दीवार पर मालती की फोटो लगी थी सुधा ने मौसी को आंखे पोछते देखा तो वो सकपका गई, अपना बैग खोलने लगी।
राधा: “देख बहू रानी कैसा है ?”
एक सूट का कपड़ा था हल्का गुलाबी रंग रेशम की कढ़ाई का काम होरहा था देखकर सुधा खिल उठी।
सुधा : “बहुत सुंदर है मौसी लेकिन इसकी क्या ज़रूरत थी।”
राधा: “और देख मनोज के लिए शर्ट का कपड़ा देख कर बता तो कैसा है ?”
सुधा : “बहुत अच्छा है मौसी,आज मां की बहुत याद आरही है।”
राधा:” हां बेटी उसकी याद ही तो मुझे यहां खींच लाई है सोचा वह नहीं तो क्या हुआ उसके बच्चे तो हैं वहीं जाकर अपनी छाती ठंडी कर लूंगी।”
सुधा: ये तो अच्छा किया आपने।
राधा: “मै और मालती बचपन से बहन कम सहेली ज्यादा थे।हम दोनों एक दूसरे के सुख में साथ न रहे हों लेकिन हर दुख के साथी थे।वो तो चली गई ,पता नहीं मुझे कितने दिन जीना है कब बुलावा आएगा।”
सुधा: ‘ ऐसा क्यों कह रही हैं,आप अकेले नहीं हैं आपका बेटा रवि है और हम भी तो आपके बच्चे हैं।” राधा बड़े प्यार से सुधा के सिर पर हाथ फेरने लगी। सुधा को भी ऐसा लगा जैसे मां के प्यार की कमी जो उनके जाने से दिन रात महसूस होती थी वो कमी आज पूरी हो गई है।शाम को मनोज के ऑफिस से आने के बाद बहुत देर तक बातें होती रहीं तो सिर्फ मालती की ही जैसे सभी लोग अपने अपने मनोभावों को व्यक्त कर एक दूसरे को सांत्वना दे रहे हो।
कैसे एक सप्ताह गुजर गया पता भी नहीं चला।एक दिन जब सुधा मौसी को चाय देने उनके कमरे में गई तो देखा राधा मौसी अपना बैग तैयार किए बैठी हैं
सुधा: “क्या हुआ ये सब क्या है,सारा सामान रख लिया,बैग लगा लिया,कहां जा रही है आप ?”
राधा: ” बस जारही हूं।तुम लोगो से मिल ली मन खुश हो गया ,अब चलूंगी बच्चे इंतजार कर रहे होंगे। बहू तो कहेगी वहां जाकर बैठ गई हमें बिल्कुल भूल गई।”
सुधा: “वो तो ठीक है मौसी एक दो दिन और रुक जाती ,कितना अच्छा लग रहा था आपके साथ।”
राधा:।” कोई बात नही बेटा फिर आजा ऊंगी मेरा क्या है बैग उठाया और चल दी।मुझे कोई रोकने टोकने वाला नहीं है,अपनी मर्ज़ी की मालिक हूं,औरफिर दिल्ली से मोदीनगर ज्यादा दूर थोड़े ही है फिर चक्कर लग जाएगा।”
मनोज शहर के बाहर दौरे पर गया हुआ था वो भी घर में नहीं था सुधा सोच रही थी फिर वही अकेलापन।आज शाम तक शायद उसको वापस आजाना था ,ऐसा वो कह कर गया था।सुधा ने राधा मौसी को नाश्ता करवाया फिर कुछ उपहार मौसी के बच्चों के लिए रखने लगी।
राधा: “ये क्या रख रही है बेटा। , ना ना जब वो लोग आएंगे तब देदेना कोई दूर थोड़े ही है।”
उन्होंने दोनों पैकेट वापस पलंग पर रख दिए
राधा:” तू तो अब मुझे बस अड्डे का रिक्शा करवादे मै चली जाऊंगी।”
सुधा अनमनी सी नीचे उतर आई और मौसी को रिक्शा पर बैठा कर ऊपर आगयी ऐसा लग रहा था जैसे घर में पहले से ज्यादा सूनापन भर गया है।सुधा सोफे पर बैठ गई फिर जाने क्या मन में आया कि मां के कमरे में जाकर पलंग पर बैठ गई कि अचानक उसे तकिए के पास एक डायरी दिखाई दी सोचने लगी अरे ये तो मौसी की डायरी है शायद बैग लगाते समय बाहर ही रह गई।देखा तो टेलीफोन नंबर थे जिसमे मां का नंबर भी था।डायरी में बहुत से नंबर थे इसके अलावा रुपए पैसों का हिसाब किताब भी लिखा हुआ था। सुधा ने सोचा कि ऐसे किसी की डायरी देखना अनैतिक है,लेकिन उसने सोचा कि मौसी के बेटे रवि को फोन कर के बता दूं कि मौसी चली गई है उनकी एक डायरी रह गई है।देखा तो रवि का नंबर मिल गया,उसने अपने मोबाइल से रवि को फोन मिलाया,बहुत देर तक घंटी जाती रही किसी ने नहीं उठाया सुधा ने दोबारा मिलाया तो उधर से किसी स्त्री की आवाज आई।
सुधा: “हैलो कौन रवि भाईसाहब के यहां से बोल रही हैं ?”
उधर से हां में जवाब आया मैं उनकी पत्नी रेखा बोल रही हूं सुधा ने कहा मैंने मौसी को बस अड्डे के लिए बैठा दिया है परन्तु उनकी एक डायरी यहीं पर रह गई है, मैंने सोचा कि आपको बतादू जब मौसी आएंगी उनको बता दीजियेगा।
रेखा:’ देखिए ऐसा है मम्मीजी हमारे साथ नहीं रहती है उन्हें तो घर छोडे हुए चार साल होगए है।वो चार साल से नारी निकेतन में रह रही हैं,उनका फोन नंबर भी मेरे पास नहीं है मेरे पति के पास हो सकता है शाम को उनको बता दूंगी इस समय वह घर पर नहीं है।”
सुधा को काटो तो खून नहीं , समझ ने जवाब दे दिया काश इस समय सासूमां होती सुधा पलंग पर लुढ़क गई और फूट फूट कर रोने लगी,लोग ऐसा क्यों करते हैं? सांझ भी आंगन में उतरने लगी थी, मन और भी उदासी में डूबने लगा।सुना था जीवन की शाम बहुत लंबी होती है काटे नहीं कटती सुधा को तो आज की शाम भी बहुत लंबी लग रही थी,बेसब्री से मनोज का इंतज़ार करने लगी।