जीवन का सवेरा (भाग -6) – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi

“मोहतरमा तभी इतनी इठलाती किचन के अन्दर गई थी”, रोहित कैफ़े के बाहर जाकर बोर्ड देखकर अंदर आता है और जोर से हँसते हुआ बोलता है, “आरुणि कैफे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है। मैंने कभी देखा ही नहीं, मेरे जैसे लोग आँख होते हुए भी अंधे होते हैं।”

“और दिमाग होते हुए भी कमअक्ल”… आरुणि जोड़ती है, “ये देखो”.. मेन्यू कार्ड उठा कर दिखाती है.. “ये देख लेते तो बाहर जाकर बोर्ड देखने की जरूरत नहीं होती अक्लमंद बालक।”

रोहित आँखें फाड़ काऱ मेन्यू कार्ड देखता है और देखकर बहुत देर तक हँसता रहता है। उसकी हँसी तब रूकती है, जब पराठा और चाय सामने आ जाता है।

पराठे की सुगंध लेता हुआ रोहित खुश हो जाता है। “लगता है बिल्कुल घर वाला जायका मिलने वाला है। बादशाह रोहित प्रसन्न हुए बालिके और आरुणि कैफे उत्तीर्ण हुआ।” रोहित प्रसन्न मुद्रा में आँख बंद क़र सुगंध लेता हुआ कहता है।

रोहित की हँसी चेहरे पर खिली हुई थी जब वह पराठों की मिठास और गरम सुगंध को महसूस करता है। उस समय उसकी आँखों में खुशी की चमक थी जैसे वह अपने परिवार के साथ खुशी के पल मना रहा हो। उसकी बातों में एक खुशमिज़ाजी और आनंद की भावना थी। जब वह आराम से आँखें बंद करके उस सुगंध का आनंद लेता है, तो उसका चेहरा शांति और प्रसन्नता से भर जाता है। वह महसूस करता है कि उसके चारों ओर का माहौल शांत है।

“बादशाह सलामत स्वाद तो ले लें, उसके बाद उत्तीर्ण और अनुत्तीर्ण की बात करें।” आरुणि रोहित को प्रसन्नचित्त देखकर कहती है।

“ओह हो, हमारे बतकही में चाय फिर ठंडी हो जाएगी।” रोहित चाय की गरम घूँट हलक में उतारते हुए कहता है।

“हाँ.. हाँ.. जल्दी जल्दी खाया जाए। नहीं तो मेरे पेट के चूहे कैफे में कबड्डी खेलते नजर आएंगे।” आरुणि पराठे का एक निवाला तोड़ती हुई व्यग्रता से कहती है।

“क्या लाजवाब स्वाद है। मन-मिजाज दुरुस्त हो गया और क्या क्या है आरुणि कैफे में।” पराठे पर अपनी एकाग्रता बनाए हुए ही रोहित पूछता है।

आरुणि मेन्यू की ओर इशारा कर कहती है, “देख लो इसमें और मुझे शांति से खाने दो।”

“भुक्खड़.. दिन भर कैफे में डिश टेस्ट करती रहती होगी”.. 

“अच्छा, बड़ा पता है तुम्हें तो। ये देखो मेरा लंच बॉक्स, लेकर आती हूँ घर से। घोड़ा घास से दोस्ती थोड़े ना करेगा।” आरुणि रोहित की बात बीच में ही काटती हुई अपना लंच बॉक्स दिखाती हुई कहती है।

“अगली बार तुम्हारे लंच बॉक्स के पिटारे से लंच किया जाएगा।” रोहित लंच बॉक्स हाथ में लेकर उलट पुलट क़र देखते हुए कहता है।

“जरूर.. कहो तो रजत का प्लान करें क्या?” आरुणि झट से कहती है।

“ये कौन है”…. रोहित के चेहरे पर अनभिज्ञता का भाव था।

“हे मेरे मालिक, बख्श दे मुझे। रोहित साहब… रजत.. रजत जल प्रपात चलने की बात हुई थी हमारी, ऊं। पिकनिक के लिए.. कुछ याद आया आपको।” दोनों हाथ पहले आसमान की ओर उठाती हुई और फिर बाँधती हुई आरुणि कहती है।

“सॉरी … सॉरी .. याद है.. ऐसे बोलोगी तब ना। रजत.. ऐसा लगा किसी लड़के से मिलवाने वाली हो। जो कहो जल प्रपात का नाम बहुत खूबसूरत है। इस नाम के पीछे क्या बात है.. बताओगी।” रोहित जानने के लिए उत्सुक हो उठा।

“सब अभी ही जान लोगे.. कुछ वहाँ के लिए भी बचा कर रखो”.. आरुणि कप में बची हुई चाय को गटकती हुई कहती है।

कब चलेंगे? मैं होटल से यही आ जाऊँगा। राधा, योगिता, तृप्ति भी चल सके, ऐसे समय चलना।” रोहित आरुणि से कहता है।

बिल्कुल सब साथ चलेंगे। परसों रविवार है, उसी दिन चल लेते हैं। तीनों भी घर पर होती हैं और बच्चों की भी छुट्टी रहेगी तो सबकी पिकनिक हो जाएगी। क्या कहते हो रोहित… परसों ठीक रहेगा ना।” आरुणि मसौदा तैयार करती हुई रोहित से पूछती है।

“जी हाँ.. बिल्कुल ठीक रहेगा”… रोहित खुश होकर कहता है।

“रोहित उस दिन जहाँ हमलोग पोहा जलेबी खा रहे थे, तुम वही आ जाना। वहाँ से साथ ही चला जाएगा। दस बजे तक आ जाना, भूलना नहीं।” आरुणि घड़ी की ओर इशारा करती हुई कहती है।

“जो हुकुम… बंदा समय से हाजिर हो जाएगा। ये बताओ.. राधा, योगिता, तृप्ति कैसी हैं?” रोहित बारी बारी से सबके बारे में पूछता है।

“सब अच्छी तरह से हैं। अपने अपने काम में लगी हैं। तुम्हें याद भी करती हैं। हम सब को लगा था कि तुम मुंबई चले गए। अब परसों पिकनिक प्लान वाली बात बताऊँगी तो सब खुश हो जाएँगी।” आरुणि मुस्कुरा क़र कहती है।

अभी दोनों बातें कर रहे थे कि सर्विस बॉय आकर आरुणि से धीरे से कुछ कहता है।

“रोहित थोड़ी देर में आती हूँ.. कुछ काम है”.. आरुणि रोहित से कहती हुई खड़ी हो जाती है।

“तुम आराम से काम देखो आरुणि। मैं भी निकलता हूँ, बाजार से कुछ सामान भी लेना है।” रोहित भी आरुणि के साथ खड़ा होता हुआ कहता है।

“ओके रोहित, एक बार अपनी दादी से बात कर लेना। वो तुम्हें याद करके उदास हो जाती होंगी।” आरुणि चलते चलते कहती है।

“देखता हूँ… मिलते हैं परसों”… बोल रोहित कैफे से निकल जाता है और ऊपर लगा “आरुणि कैफे” का बोर्ड देखकर खुद पर मुस्कुरा उठता है। 

और आरुणि उठकर अकाउंट सेक्शन में जाकर अकाउंटेंट के साथ कंप्युटर स्क्रीन पर आँखें गड़ा देती है।

कैफे में भी ज्यादा लोग नहीं थे। अकाउंट का काम खत्म कर आरुणि कैफे से निकल थोड़ी दूर पहाड़ी पर जा बैठती है। आज आरुणि को कैफे में घुटन सी हो रही थी। कुछ देर अकेलेपन से दोस्ती करना चाहती थी। रोहित ने अपनी बातों से उसे झकझोर दिया था। रोहित की बातों से उसे अपने बीते कल की यादें याद आने लगी थी, जो कहने को ही यादें थी, रहती तो हर पल साथ ही हैं ऐसी यादें, ऐसी अनकही बातें, यादें, जो अंतस को खुशी और पीड़ा दोनों का एहसास एक साथ कराती है। अकेली बैठी आरुणि भी यही अनुभव कर रही थी। होठों पर मुस्कान और आँखों के रास्ते बह रहा नीर यही सब बताने की कोशिश कर रहा था। इसी पहाड़ी पर उस दिन भी आकर खड़ी हो गई थी पर उस दिन तो खुद को खत्म करने के मकसद से आई थी आरुणि। अगर रोती हुई वो बच्ची नहीं मिली होती तो आज आरुणि इस पहाड़ी पर बैठी नहीं होती। पहाड़ी की तलहटी में कहीं किसी जानवर का ग्रास बन गई होती, सोच कर सिहर उठी आरुणि। आसमान की ओर देख कर सोचती है प्रभु तुम भी क्या क्या खेल रचते हो। किसे किस मकसद से धरा पर भेजा है तुमने, तुम्हीं जानो। ओह यहाँ बैठे बैठे मुझे बहुत देर हो गई। सब परेशान हो रही होंगी। मन ही मन बुदबुदाती आरुणि धीरे-धीरे उठकर सधे कदमों से पैर बढ़ाती चाँद की रौशनी में अपनी मंजिल “जीवन का सवेरा” की ओर बढ़ चली।

सच में आज तो काफी देर हो गई थी। दुकानें भी बंद हो गई थी। कहीं कहीं इक्का दुक्का लोग दिख रहे थे। अभी तो कोई सवारी भी मिलने से रही, किसी को कॉल करके भी क्या परेशान करूँ, लेकिन डर भी लगने लगा था आरुणि को, फिर भी इधर उधर देखती कदम बढ़ाती चली जा रही थी। कैफे के पास से गुजरते हुए एक पल रुक “आरुणि कैफे” पढ़ती है और आगे बढ़ जाती है। कभी कोई कुत्ता दौड़ता हुआ बगल से गुजर जाता तो सिहरन सी हो जाती उसे। दोनों तरफ के जंगलों से आदमी रूपी जानवर ना निकल आएं, इस डर से आरुणि के कदम सेकंड की गति से उठ रहे थे। यही दिन में कितना मनमोहक लगता है। ठंडी ठंडी हवाएं आत्मा को तृप्त क़र देती हैं और सूरज के अस्ताचल होते ही यही जंगल खौफनाक रूप धारण क़र लेता है और सायं सायं चलती ये हवाएँ आत्मा को भी डर के साये में लेकर चली जाती हैं। कदमों के साथ साथ आरुणि के मन में तरह तरह के विचारों भी सायं सायं करते हुए चल रहे थे।

***

जैसे ही आरुणि हवेली के दरवाजे पर पहुँचती है, सभी उसका इंतजार करती वहीं मिल जाती हैं। प्रश्नों की झड़ी लगा देती हैं सब और ये जानने पर कि पहाड़ी पर जाकर बैठी थी, बहुत खफा हो जाती हैं। 

योगिता तो कुछ खासा ही नाराज हो गई। “हम सब कैफे भी गए थे। वहाँ पता चला, तुम तो आज समय से पहले ही निकल गई थी। गई भी तो कहाँ पहाड़ी पर और किसी को बता कर भी नहीं गई। जंगली जानवर आते जाते रहते हैं। पैर फिसलने का डर लगा रहता है वहाँ। खुद में इतनी मगन हो गई कि कॉल देखने की भी फुर्सत नहीं थी तुम्हें। इतनी गैर जिम्मेदार कैसे हो गई तुम।” एक साँस में ही योगिता बोले जा रही थी। कैफे के सारे स्टाफ भी आकर खड़े हो गए।

“आप सब यहाँ”.. आरुणि के आश्चर्य से पूछा। 

“आपकी चिंता हो रही थी। अब तो हम सब सोच रहे थे कि पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करें। भगवान का शुक्रिया है कि आप सुरक्षित हैं।” मैनेजर ने कहा…”कई बार कॉल भी किया। आपने किसी का कॉल भी नहीं लिया तो और चिंता होने लगी थी।”

आरुणि तुरंत फोन निकाल कर देखती है तो वह स्विच ऑफ था। “ओह लगता है चार्ज खत्म हो गया था, समय पर यह भी धोखा दे जाता है। आइंदा ऐसी गलती नहीं होगी। आप लोगों ने खाना खाया।” आरुणि अपनी गलती मानती हुई पूछती है।

“क्या बात कर रही हो, वाह। इस चिंता में किसके गले से निवाला उतरता आरुणि।” राधा ने कहा तुनक कर कहा।

“अब तो आ गई ना मैं। अब तो निवाला उतरेगा ना, चल सबके लिए डिनर बना लिया जाए।” आरुणि माहौल को बदलने की कोशिश करती बाँहों में योगिता और राधा को लेती हुई कहती है।

“नहीं नहीं.. हम लोग तो घर ही जाएंगे। रात भी काफी हो रही है.. आप सब भी आराम करें।” मैनेजर की बात पर सारे स्टाफ हामी भरते हुए वहाँ से निकल गए। 

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आरती झा आद्या

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