किटी पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी। जहां लगभग तीस महिलाएँ लक दक सुन्दर – सुन्दर साडीयाँ पहने एक से बढ़ कर एक आभूषण धारण किये उन्हें देख ऐसा लग रहा था जैसे कि साडीयों और आभूषणों की कोई प्रतियोगिता हो रही हो जिसमें सब प्रदर्शन करने आईं हों ।मेजबान छवी जी जहां एक ओर सबका स्वागत कर उन्हें बैठाने में प्रयासरत थीं वहीं दूसरी ओर खाने पीने की व्यवस्था पर भी उनका पूरा ध्यान था ।बडा ही गहमा गहमी का माहौल था।
चर्चा का विषय वही पति, बच्चे, गहने, कपडे घर से सम्बन्धित, अपने अपने ग्रुप बनाकर चर्चा कर रहीं थी। अच्छा खासा शोर मचा हुआ था। कोई जोर से बोल रहीं थीं, तो कोई खुल कर जोर से हंस रहीं थीं। मुख्य आकर्षण था अवनी जी का हीरों का हार। वह बढ़-चढ़कर उसका वर्णन कर रहीं थीं। मेरी शादी की ग्यारहवीं बर्ष गांठ पर सौरभ जी ने यह ग्यारह लाख का हार उपहार स्वरूप मुझे दिया था।सूरत में उनके कोई हीरों के व्यापारी दोस्त हैं उन्होंने विशेष तौर से विदेश से मंगवाया था। सभी मंत्रमुग्ध हो कर उनकी बातें सुन रहीं थीं, और हार की सुन्दरता की तारीफ कर रहीं थीं।
यह सब सुन अवनी जी तो जैसे पंख लगा हवा में उड़ रहीं थीं। उन्हें अपने सबसे अधिक विशेष होने का गुमान भी था। क्यों न हो पैसों से सम्पन्न, बड़ी सी दो मंजिला कोठी, विदेश से मंगवाये गये सामानों से सुसज्जित,अपनों से छोटे मकानों को मुंह चिढ़ाती प्रतीत होती।
तभी अवनी जी की कोठी पर तीन गाड़ियां आकर रुकीं। जिनमें एक पुलिस की गाड़ी थी और दूसरी दो ई. डी. टीम की ।
बाहर काम कर रही रूपा भागकर अन्दर गई और सीधी अवनी जी के पास जाकर बोली- अवनी मेम साहब आप जरा यहाँ आइए। अवनी जी बोली अरे तू यहाँ नहींं कह सकती क्या बात है।
वह बोली नहीं। आप यहाँ आयें बहुत जरुरी है।
अवनीजी उठ कर उसके पास आईं वह धीरे से बोली आप बाहर चलें।
बाहर जाकर अवनी जी ने जो देखा तो उनके होश उड़ गए। तभी कुछ और महिलाएं उत्सुकतावश उनके पीछे-पीछे देखने आ गई। बाहर का नजारा देख उन सबकी प्रश्नवाचक निगाहें उनकी ओर उठ गईं। अवनी पर तो मानो घड़ों पानी गिर गया। शर्मिन्दगी के मारे वह उनसे नजरें भी नहीं मिला पा रहीं थीं। चिंता हो रही थी कि घर पर बच्चे अकेले हैं। सौरभ जी घर पर होंगे या नहीं। उसकी कोठी जहाँ वह खड़ी थी उस मेजबान घर से कुछ ही कदमों की दूरी पर थी।
वह सोच रही थी कि अब इस हार का क्या करूं।पहन कर घर भी नहीं जा सकती थी और इतना मँहगा किसी को रखने के लिए देने की हिम्मत भी नहीं थी। थोड़ी देर पहले जो हार उसकी सम्पन्नता का सबब था अब वही गले की फांस बन गया था। अब क्या करें। उसने मेजवान छवी जी से उस हार को रखने के लिए कहा उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि पुलिस पूछेगी कहाँ गईं थीं तब मेरे घर का नाम आयेगा और वे मेरे घर की भी तलाशी ले सकते हैं ।
दो तीन से और कहा तो वे बोलीं कि इतनी महंगी चीज की हम जिम्मेदारी नहीं ले सकते ।रुपा खडी सब सुन रही थी, वह बोली मेम साहब हम गरीब छोटे लोग हैं यदि आपको विश्वास हो तो मुझे दे दीजिए में आपकी अमानत सम्हाल कर रखूंगी। पुलिस के जाते ही आपको सौंप दूंगी।
अवनी जी घबराहट में बोली हाँ-हाँ क्यों नहीं ले तू सम्हाल कर रख ले रुपा। रुपा को हार दे वे शर्मिन्दगी से सिर झुकाए अपने घर की ओर चल दीं।
रुपा ने उसे अपने साड़ी के पल्लू में बाँधकर कमर में खोंस लिया।
अवनी जी के जाने के बाद पीछे शुरू हुई बातें। एक बोली देखा न कितना इतराती थी अब आया ऊंट पहाड के नीचे। दूसरी बोली बुरे काम का बुरा नतीजा ।
तीसरी बोली में तो यही सोचती थी कि मेरे पति भी सौरभ जी की बराबर पोस्ट पर हैं पर हम तो सम्पन्नता नहीं रख पाते। सब अपनी अपनी तरह से विचार प्रकट कर रहीं थीं। चुप बैठीं थीं काल्पना जी ओर जान्वी जी। कल्पना जी सोच रहीं थीं कि करवाचौथ वाले दिन मैंने करण जी (पति) पर कितना गुस्सा किया जब वे मेरे लिए महंगा गिफ्ट नहीं लाए।
पर उन्होंने शांति से कितनी बड़ी बात कही थी कि कल्पना तुम चाहे व्रत करो या न करो मुझे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता किन्तु मेरी सामर्थ्य नहीं है महगां उपहार खरीदने की। व्रत तो तुम इसलिए करती हो कि तुम मुझसे प्यार करती हो। प्यार किसी मंहगी गिफ्ट का मोहताज नहीं होता।
मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ जिसे जताने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। महंगे गिफ्ट खरीदने के लिए कोई भी गलत काम नहीं करूंगा जिसके कारण मुझे अपने जमीर से समझौता करना पड़े, कल्पना जी सोच रहीं थीं करण जी कितने सही थेऔर में उन्हें गलत समझ रही थी। उन्हें अपने पति पर फख्र हो रहा था।
दूसरी जान्वी जी मैंने अपने पति आकाश जी को छोटे मकान के लिए कितना कुछ सुनाया। अवनी जी की कोठी देखकर हमेशा मन में हीन भावना आ जाती थी,तब वे कितने धैर्य से मुझे समझाते जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाना चाहिए, नहीं तो मुसीबत में पडते देर नहीं लगती।
जान्वी तुम्हीं बताओ मुझे जितनी तनख्वाह मिलती है तुम्हारे हाथ पर रख देता हूं,तुम्हीं खर्च करती हो कितनी बचत होती है जो हम कोठी बनवा पायें। जो है उसमें सन्तोष करो सिर पर छत तो है न। गलत काम से कमाया पैसा कभी भी धोखा दे सकता है। इसलिए कभी भी मुझसे ऐसे काम की उम्मीद मत रखना ।
जान्वी जी सोच रहीं थीं कि अवनी जी की कोठी देखकर हमेशा हीनता की भावना आ जाती थी किन्तु आज पता चला उस कोठी की नींव ही गलत थी। ऐसा दिखावा भी किस काम का, उन्हें अपने पति की सोच पर गर्व हो रहा था ।छवि जी बोलीं आप सब लोग खाना खायें तैयार है , किन्तु सबका मन खराब हो चुका था ।
तभी प्रभाजी बोलीं ऐसा दिखावा भी किस काम का जो कभी भी शर्म से गर्दन झुका दे। अवनी जी अपनी सम्पन्ता का कितना ढिंढोरा पीटती थीं आज उसी सम्पन्नता ने उन पर घडों पानी पड़वा दिया। पता नहीं अब वे और उनका परिवार कैसी स्थिती का सामना कर रहा होगा। खाना खा कर मन में विभिन्न प्रकार के विचारों का मंथन करते वे सब विदा हो गईं।
शिव कुमारी शुक्ला