झोला – विनय कुमार मिश्रा

आज साफ सफाई में आलमारी से बाउजी का वही पुराना झोला मिला जो वे अपने साथ दफ्तर ले जाते थे। कुछ चिठ्ठियां थीं जो नाना, नानी, दादाजी, और माँ की लिखी हुई और कुछ डायरी के पन्ने, जो उनके पुराने हिसाब किताब के थे। उन पन्नों में दो चार आने से लेकर दो चार सौ रुपये तक के हिसाब किताब थें। ललन की दुकान से सौ दो सौ का किराना सामान, दादाजी की दवाई, माँ की साड़ी, हम बच्चों के कपड़े, मिठाई..तो कभी दो चार रुपये के खिलौने। खिलौने और मिठाई की पर्ची देख..मेरे होठों पर  मुस्कान और आँखों में नमी एक साथ उतर आई।

यूं तो बाउजी हमसे ज्यादा बोलते बतियाते नहीं थे, पर दफ्तर से उनके आने का इंतजार खूब रहता था। गली में घुसते ही उनकी साइकिल की घंटी सुन हम चौकन्ने हो जाते थे। अस्त व्यस्त घर को अपने हिसाब से व्यवस्थित कर हम पढ़ाई की टेबल पर किताबें खोल बैठ जाया करते थे और फिर कनखियों से उन्हें ही देखा करते थे। वे झोला रखते और पसीने से लथपथ कुर्ते को खूंटी पर टांगते, इतने में हम तीनों भाई बहनों की आँखें बराबर झोले पर ही टिकी रहती। पर हम में से किसी में हिम्मत नहीं होती कि हम झोले तक पहुंच पाते। हम उत्सुकता वश माँ के पानी लाने का इंतजार करते और जब माँ आती तो

“आज..पढ़ाई लिखाई तो किया है ना तीनों ने?” बाउजी का पहला सवाल यही रहता था

“हां.. आज तो बदमाशी भी नहीं किया तीनो ने”

माँ दिनभर के हमारे बदमाशियों पर पर्दे डाल देती। पर बाउजी तो बाउजी थे

“अरे कभी किताब..सीधा भी पकड़ा कर..” मेरी कान पकड़ लेते तो बाकी के दोनों भाई बहन खिलखिला उठते

“ई घुटना कइसे छिल गया है..तुम तो कह रही थी..कि कोई बदमाशी नहीं हुई.. कइसे सम्भालती हो दिनभर इन्हें..”

“अरे इन्हें छोड़िए..आप थक गए होंगे, पानी पीजिए मैं चाय लाती हूँ”

बाउजी गंभीर मुद्रा में सामने कुर्सी पर बैठे रहते, और हमारी नज़र कभी झोले पर तो कभी बाउजी पर ही रहती। कुछ देर होने पर बाउजी तब खुद ही बोल देते




“आज..कुछो..ले नहीं पाया तुमलोगों के लिए.. इस इतवार को ..मिठाई जरूर ले आएंगे..”

हम निराश हो जाते..पर बाउजी की उस समय की मनोदशा की कल्पना तब नहीं कर पाते थे हम। बड़ी मुश्किल से उन्होंने हमें पढ़ाया लिखाया.. आज मेरी उम्र खुद पचास साल से अधिक है, माँ रही नहीं.. बाउजी बीमार हैं..एकदम सुस्त पड़े रहते हैं। बच्चे बाहर रहने लगे हैं, घर में या तो टीवी चलता है या मोबाइल.. संवाद ना के बराबर है।

इस झोले ने आज मुझे, इस परिवार के उन स्वर्णिम दिनों में ले आया है, जब पैसों की तंगी और हमारे छोटे छोटे सपनों के बीच एक परिवार की हँसी खुशी भी थी। कभी खाली लौटे इस झोले में इक पिता की मजबूरी दिखती थी तो कभी मिठाइयों से भरे इसी झोले में इक पिता का सामर्थ्य।

इस पुराने झोले ने मुझे कुछ नया सोचने पर मजबूर कर दिया। मैंने इस झोले में बाउजी के पसंद की सोनपापड़ी रखी और धीरे से सो रहे बाउजी के कमरे में गया

“बाउजी! सो रहे हैं.. क्या?’

मैंने शायद महीनों बाद बाउजी को इस तरह से आवाज दी थी, वो तुरंत उठ बैठे

“का बात है बबुआ..?”

मैं उन्ही का झोला टांगे उनके सामने खड़ा था

“सोनपापड़ी है.. खाएंगे..?

वो मुझे एकटक से देखते रहे

“पर..शुगर..बढ़ा हुआ है..बहू आ जायेगी..तो?..अच्छा लाओ..एगो ले ले” बाउजी ने हिचकते हुए कहा..तो हँसी आ गई, मैंने बाउजी की ही तरह शर्त रखी

“पर आपको..सुबह सुबह साथ टहलने चलना पड़ेगा”

“अरे पहले खिलाओ तो..सबेरे ना चलना है.”

दरवाजे पर पत्नी खड़ी थी..जिसे देख ना मैं सोनपापड़ी छुपा सका और ना आंसू ..!

विनय कुमार मिश्रा

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