शशांक ने मां से कहा-“सौरभ की बहू को समझा दो कि अपने शरीर को अच्छी तरह से ढंक कर निकला करे। जवान और खुला शरीर बूढ़ी आंखों में भी गलत भावना भर देता है।”
इतना कहकर शशांक बाहर चला गया, परंतु मां का चेहरा तन गया। उसने तिरछी निगाहों से स्नेहा की ओर देखा जो सिर झुकाकर चावल चुन रही थी।
उस समय तो मां चुपचाप रह गयी लेकिन बाद में स्नेहा को अपने कमरे में बुलाकर कहा-“बहू औरत की इज्जत पग-पग पर सैकड़ों लोलुप आंखों के नीचे से गुजरती है। हर आदमी की आंखें औरत के कपड़े के भीतर झांकने की चेष्टा करती रहती हैं। कुछ हरकतें ऐसी होती हैं जिनसे आदमी के चरित्र की पहचान होती है। वैसे इसका कुछ अर्थ निकले या न निकले पर अकेले में आंचल का बार-बार बदन से गिर जाना कुछ दूसरे अर्थ भी देता है। मन की तरह शरीर पर भी नियंत्रण रखना सीखना चाहिए।”
“मम्मी जी बात ये………”-स्नेहा ने सफाई देनी चाही।
“मैं तुमसे कोई सफाई नहीं मांग रही हूं बहू, न ही तुम्हें दोषी ठहरा रही हूं, बल्कि अपने अनुभव से बता रही हूं कि औरत चाहे तो खुद ही अपने इज्जत को संभाल सकती है और ऐसे लोगों की नजरों से बचा भी सकती है।”
“ठीक है मम्मी जी, आगे से आपकी बातों का ध्यान रखूंगी”- स्नेहा ने कहा। तभी दरवाजे पर हुई दस्तक ने उनका ध्यान भंग किया। सौरभ के आ जाने से बातें वहीं खत्म हो गईं। पति के आने पर स्नेहा राहत महसूस कर रही थी।
अभी इस घटना को बीते चार–पांच दिन ही हुए थे की एक और विवाद ने
जन्म ले लिया। हुआ यूं कि स्नेहा स्लीवलेस गाउन पहने बाथरूम से निकल रही थी कि अचानक डाइनिंग हॉल में शशांक उससे टकरा गया। बेचारी स्नेहा फुर्ती से अपने कमरे में चली गई।
“मां…”
शशांक को एक और मौका मिल गया था-“मुझे छोटी बहू का व्यवहार ठीक नहीं लग रहा है।”
“अभी बच्ची है, अपने आप समझ आ जाएगी”–मां ने बात को खत्म करते हुए कहा।
“तुम बहुत भोली हो। पर यदि अभी से कंट्रोल नहीं किया गया तो परिवार की इज्जत पर बट्टा लग सकता है।”
मां ने शशांक को डपटते हुए कहा-“तुम कहना क्या चाहते हो?”
“स्नेहा को समझाओ, मर्यादा में रहना सीखे। इसके तौर-तरीके कुछ ठीक नहीं हैं।” स्नेहा दरवाजे के पास खड़ी होकर अपने जेठ और सास के बीच हो रही बातें सुन रही थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उससे ऐसी कौन सी गलती हुई है, जिससे उसकी सास और जेठ उसके चरित्र पर संदेह कर रहे हैं।
उन सारी बातों ने जैसे स्नेहा के चेहरे से हंसी छीन ली। हमेशा खुश रहने वाली स्नेहा बुझी-बुझी सी रहने लगी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अपनी व्यथा किससे कहे? जेठ उस पर अपरोक्ष रूप से लांछन लगा रहे थे और उसकी सास, जो कि एकदम पुराने ख्यालात की थी, उसे रोज औरत की मर्यादा का पाठ पढ़ाती रहती थी। एक बार तो उसके मन में आया कि वह सौरभ से सब कुछ बता दे, परंतु दोनों भाइयों में बेहद प्रेम था और वह प्रेम कहीं उसके कारण टूट कर बिखर न जाए, इसलिए वह चुप थी। वह अपनी मन की बात जेठानी स्वाति से भी कह कर क्या करती, उसके लिए तो उसका पति परमेश्वर था। रात में जब सौरभ कमरे में आए तो वह एक तरफ मुंह किए पलंग पर चुपचाप लेटी हुई थी।
सौरभ ने पूछा,“क्यों तुम्हारी तबीयत खराब है क्या?”
स्नेहा ने कहा- “नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, बस नींद आ रही है।”
परंतु सौरभ समझ गया कि स्नेहा परेशान है। उसके मन में छिपे भाव चेहरे से साफ–साफ व्यक्त हो रहे थे। इतना उदास तो उसने स्नेहा को कभी नहीं देखा। उस समय सौरभ ने स्नेहा से कुछ भी कहना ठीक नहीं समझा।
अगले दिन रविवार था। सौरभ ने स्नेहा के साथ फिल्म देखने और बाहर घूमने का प्रोग्राम बनाया। सौरभ ने सोचा कि स्नेहा घर के अंदर की बंद दुनिया में रहते–रहते उब गई है, इसलिए उदास है। कॉफी हाउस में कॉफी पीते हुए अचानक सौरभ ने स्नेहा से उसके उदास रहने का कारण पूछा।
सौरभ ने कहा,“मुझे दो-चार दिन के लिए ऑफिस के काम से बाहर जाना है। जब तक तुम अपनी मन की बात नहीं बताओगी मैं निश्चिंत होकर नहीं जा पाऊंगा।” लेकिन जब स्नेहा ने सारी बात बताई तो सौरभ अवाक रह गया। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि स्नेहा जो कह रही है वह सच है। उसके भैया तो एक सुलझे हुए गंभीर आदमी हैं। वह अपने छोटे भाई की पत्नी पर ऐसा लांछन कैसे लगा सकते हैं?
अगले दिन सौरभ ऑफिस के काम से मुंबई चला गया। उसके जाते ही स्नेहा ने अपने जेठ के व्यवहार में अजीब सा परिवर्तन देखा। कल तक उसके चरित्र पर लांछन लगाने वाले शशांक ने दो दिनों के लिए ऑफिस से छुट्टी ले ली और अधिकांश समय स्नेहा के आसपास घूमने लगा। कभी वह किचन में कुछ लेने के बहाने आ जाता तो कभी ड्राइंग रूम में टी.वी. देखने के बहाने उसके कमरे की ओर नजरें टिकाए रखता। स्नेहा को शशांक की यह बदली मानसिकता समझ में नहीं आ रही थी।
अगले दिन सुबह अचानक मां की तबीयत खराब हो गई। उनके सीने में इतना तेज दर्द हुआ कि शशांक और स्वाति को मां को हॉस्पिटल लेकर जाना पड़ा। लगभग चार घंटे बाद शशांक अकेले घर लौटा और स्नेहा से चाय बनाने को कहा। स्नेहा जैसे ही टेबल पर चाय रखकर जाने लगी, शशांक ने उसका हाथ पकड़ लिया और अपनी तरफ खींचने लगा। पहले तो स्नेहा ने अपना हाथ छुड़ाने का प्रयास किया लेकिन जब शशांक ने उसका हाथ छोड़ने की बजाय शरीर को पकड़ने की कोशिश की तो स्नेहा ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ शशांक के गाल पर जड़ दिया। शशांक को कतई उम्मीद नहीं थी कि छुई-मुई सी दिखने वाली स्नेहा ऐसा रौद्र रूप ले सकती है। वह नीचे कालीन पर गिरा हुआ अभी संभलने की कोशिश कर ही रहा था कि स्नेहा ने उसकी छाती पर अपना पैर रख दिया और बोली-
“मेरे चरित्र पर लांछन लगाने वाले जेठ जी, तुम खुद कितने चरित्रवान हो यह तो मैं पहले ही दिन से समझ गई थी, जब तुमने डाइनिंग हॉल में करीब से जाते हुए मेरे शरीर को छूने की कोशिश की थी। तुमने अपने चरित्र को मुझ पर आरोपित कर मुझे घर में बदनाम करने की कोशिश की। मेरे चरित्र पर कीचड़ उछाला, जबकि तुम्हारा चरित्र ही गंदा और दागदार था।”
प्रियंका पाठक
संप्रति– असिस्टेंट प्रोफेसर,डी०बी०एस०डी०
डिग्री कॉलेज,गरखा,सारण,बिहार
सटीक कहानी ।