कौशल्या देवी ने पति के गुजर जाने के बाद बड़ी कठिनाइयों से अपने बेटे नरेश को पढ़ा-लिखा कर बड़ा किया था। बेचारी पढ़ी लिखी तो थी नहीं,
जो उसे कोई नौकरी देता।उसे झाड़ू पोछा, बर्तन कटका का ही काम मिला। खुद अनपढ़ थी पर बेटे को पढ़ाना चाहती थी। कई बार सोच कर रो पड़ती थी कि देखो जरा, नाम तो नरेश है और किस्मत कैसी है।
नरेश पढ़ाई में एक सामान्य बच्चा था। उसके 75 से 80% नंबर आ जाते थे।बी ए करने के बाद उसे रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर की नौकरी मिल गई थी और रहने के लिए एक क्वार्टर भी। मां बेटा इसी तीस पैंतीस हजार में बहुत खुश थे।
एक टी वी और छोटा फ्रिज किस्त पर ले लिया था। कौशल्या देवी ने अपने मायके वाले गांव के एक रिश्तेदार की बेटी सुगना से नरेश की शादी तय कर दी थी। सुगना देखने में सांवली थी लेकिन उसके नैन नक्श बहुत तीखे थे। बड़ी-बड़ी काली आंखें, लंबे काले बालों की मोटी चोटी कमर तक लहराती थी।
पतली दुबली सुगना घर के कामों में माहिर थी। पढ़ने लिखने में उसका मन नहीं लगता था इसलिए सिर्फ दसवीं पास की थी। 19 साल की होते होते उसके सपने बहुत ऊंचे हो गए थे।
बड़े अरमानों के साथ कौशल्या गाजे बाजे के साथ नाचते गाते सुगना को बहू बनाकर ले आई। सुगना यह सोचकर बेहद खुश थी कि गांव से पीछा छूटा, अब मैं शहर में रहूंगी। तरह-तरह के ख्वाब सजाए वह दुल्हन बनकर आ गई। नरेश भी उसे पाकर बहुत खुश था। उसने 10 दिन की छुट्टी ले रखी थी।
उसे थोड़ा यात्रा भत्ता भी मिलता था इसीलिए शादी के बाद में घूमने जा रहे थे। नरेश मां को भी ले जाना चाहता था पर उन्होंने प्यार से मना कर दिया।
सुगना और नरेश गाजियाबाद से शिमला के लिए निकले। नरेश ने अपने हिसाब से एक साधारण होटल में कमरा बुक किया था। सुगना होटल और उसका कमरा देखकर नाक मुंह सिकोड़ने लगी। उसने तो फिल्मों में बड़े-बड़े आलीशान होटल देख कर उसे अपनी आंखों में बसा रखा था।
घूमते और खाते पीते समय भी वह हमेशा महंगी चीजें ऑर्डर करती थी और हर समय उसे कोल्डड्रिंक की जरूरत होती थी।
एक दिन माल रोड पर घूमते समय वह गर्म कपड़ों की शॉपिंग करने। के लिए जिद पर अड़ गई। नरेश ने कहा-“अभी नई-नई शादी हुई है, सब कुछ तो है तुम्हारे पास।”सुगना को नाराज़ होते देख कर नरेश ने उसे एक महंगा शॉल दिलवा दिया और एक साल सिंपल सा मां के लिए खरीदा।
चार दिन घूम कर वे लोग वापस आ गए। चार दिनों में वह समझ चुका था कि सुगना के सपने बहुत ऊंचे हैं जिनकी कोई सीमा रेखा नहीं है। चलोकोई बात नहीं, धीरे-धीरे जीवन की वास्तविकता समझ जाएगी और धरातल पर आ जाएगी। सुगना हर हफ्ते नरेश से घूमने ले जाने की जिद करती।
नरेश कभी घूमाने ले जाता, तो कभी टाल देता। क्योंकि वह बस में नहीं जाना चाहती थी। उसे हर समय ऑटो या टैक्सी में जाना होता था। एक बार घूमने जाने का मतलब 1000 ₹1500 की चपत। वह थोड़ी बहुत बचत करना चाहता था पर नहीं कर पा रहा था। उसकी डिमांड्स पूरी करने के लिए वह ओवरटाइम करने लगा था।
उसे बहुत थकान रहने लगी थी और नींद पूरी नहीं हो पाती थी। थकान के कारण नरेश को कुछभी अच्छा नहीं लगता था। इस बात पर भी सुगना ताने मारती थी कि “तुम मुझसे बात नहीं करते हो, मुझसे प्यार नहीं करते हो, पहले से बदल गए हो।”
थोड़े दिनों बाद सुगना अपने भाई की शादी में जाने के लिए सोने के कंगन मांगने लगी और अपनेभाई को उपहार में देने के लिए सोने की चेन। नरेश की मां ने भी यह सुना। उन्होंने सुगना को समझाया ” बहू, हम इतना सब कुछ नहीं कर पाएंगे। अभी तुम एक हल्की-फुल्की चेन लेकर अपने भाई को उपहार में दे दो और जब पैसे होंगे तब हम तुम्हें कंगन दिलवा देंगे।”
नरेश-“सुगना, मां सही कह रही है। फ्रिजऔर टीवी की किस्त भी भरनी होती है और ऊपर से तुम स्कूटी खरीदनेके लिए भी जिद पर अड़ी हो। और सोना कितना महंगा है, हम नहीं कर पाएंगे।”
सुगना-“मायके कंगन पहन कर जाऊंगी, तो आपका ही नाम होगा।”
मां -“सुगना, शादी में पहले वाली चूड़ियां पहन कर जाना।”
सुगना-“नहीं, मायके में मेरी नाक फट जाएगी।”
नरेश-“सुगना ,तुम्हारे सपने तो अपार है, मैं तुम्हारी मांगों से तंग आ चुका हूं। किसी दिनड्यूटी पर जाऊंगा , तो देख लेना लौट कर नहीं आऊंगा। वरना जितना मैं कमाता हूं उसी में गुजारा करो।”
सुगना-“धमकी मत दो, ऐसे घर छोड़कर जाना आसान नहीं, एक दिन भी रह नहीं पाओगे।”
अगले दिन नरेश ड्यूटी से लौटकर नहीं आया। सुगना अपनी मस्ती में थी लेकिन मां बहुत चिंतित थी। मां सुगना को बिना बताए, रेलवे स्टेशन पहुंच गई और वहां नरेश को सोते हुए देखा। नरेश ने बताया कि सुगना को सही रास्ते पर लाने के लिए मुझे यह करना ही होगा। मां आप चिंता मत करना।
एक दिन बीता, 2 दिन बीते। मां बहुत चिंतित थी। अब तो सुगना को भी चिंता होने लगी थी। तभी किसी पड़ोसी ने कहा कि रेलवे ट्रैक पर किसी नौजवान की लाश मिली है। इतना सुनते ही सुगना पागलों की तरह नंगे पैर रेलवे स्टेशन की तरफ भागने लगी और पीछे-पीछे मां चिल्लाती हुई”सुगना, सुन तो सही, अरे रुक तो सही, मेरी बात सुन।”
लेकिन सुगना नहीं रुकी। उसने रेलवे स्टेशन पर पहुंच कर ही सांस ली। उसने देखा कि नरेश एक कुर्सी पर उदास बैठा है। उसे ठीक देखकर उसकी जान में जान आई। वह तुरंत उसके पैरों के पास बैठ गई और रो कर कहने लगी”मुझे माफ कर दो और घर चलो।
मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। बस तुम सलामत रहो, मुझे सब कुछ मिल जाएगा। मां जी, आप भी मुझे माफ कर दीजिए। नरेश ने आने से इनकार किया। लेकिन सुगना ने उसे अपनी कसम देकर मना लिया। तीनों वापस घर आ गए और सुगना भी जीवन की वास्तविकता के धरातल पर आ गई थी। वह समझ गई थी कि हर चीज की एक सीमा रेखा होती है फिर चाहे वह सपने हो या फिर खर्च करने की आदत।
स्वरचित अप्रकाशित
गीता वाधवानी
दिल्ली
#सीमा रेखा