जीवन चक्र – नूतन योगेश सक्सेना 

 

हमेशा से सुनती आयी हूं कि पति – पत्नी जीवन रुपी गाडी के दो पहिए होते हैं, तो मेरे जीवन में ही ऐसा क्यों हुआ कि शैलेष ने बीच राह में ही अपना पहिया मेरे पहिए से अलग कर लिया…….सोच रही थी स्वाति ।

            आज से दस साल पहले उसकी और शैलेष की शादी हुई थी । भरा पूरा परिवार था ……..  दो ननद, दो देवर और स्वाति उस घर की बड़ी बहू बनकर गई थी । वह एक स्कूल में अध्यापिका थी, अपनी नौकरी के साथ ही उसने घर की सब जिम्मेदारी उठाई। 

         एक – एक करके उसके सब ननद -देवर की शादी हो गई, इन बीते दस सालों में पर घरवालों की यहां तक कि शैलेष की भी स्वाति से अपेक्षाएं कम नहीं हुईं। अपनी पूरी तनख्वाह शैलेष को सौंपकर वह खुद अपनी जरूरतों के लिए भी उसी के आगे हाथ फैलाती। इतना करके भी सास- ससुर व पति की नजर में वह कभी अच्छी बहू व पत्नी साबित नहीं हुई । 

          आज जब वह सोचती है तो पाती है कि उसको स्वयं को इतना भी दूसरों के हाथ की कठपुतली नहीं बना देना चाहिए था शुरू से‌‌ ही ।  विदाई के समय मां की दी हुई सीख कि, ” अब अपने परिवार को साथ लेकर ही चलना और वो ही तुम्हारा असली घर है ”  इतना उसके ऊपर हावी हो गई कि जिसने उसके आत्मसम्मान को भी कुचल दिया और वह केवल अपनी गृहस्थी बचाये रखने के लोभ में सब कुछ सही – गलत सब सहती गई ।

       शैलेष ने तो कभी उसे अपनी साथी , सहचरी माना ही नहीं । उसके लिए स्वाति केवल पैसा कमाने और उसके परिवार की सेवा के लिए लाई हुई कोई नौकरानी ही थी, जो पैसा मांगेगी नहीं कमायेगी । ना शैलेष और ना ही उसके सास ससुर घर के किसी मामले में उसकी राय लेते थे बल्कि उसे केवल ये बताया जाता था कि इतने पैसों की जरूरत होगी, निकलवा लेना अपने एकाउंट से । 

     पर अब स्वाति से ये सब सहन नहीं होता, अब उसके खुद के बच्चों के भी खर्चें हैं। जैसे ही उसने अपनी तनख्वाह अपने पास रखने और खुद खर्चा चलाने की बात कही, घर में मानो भूचाल आ गया। शैलेष ने उसे घर से निकल जाने का हुकुम सुना दिया ।

         लेकिन इस बार स्वाति ने भी तय कर लिया कि वह पीछे नहीं हटेगी और वह अपनी दोनों बेटियों के साथ अलग रहने चली गई और उसकी गृहस्थी की गाड़ी एक पहिए पर‌ ही चलने लगी । शैलेष को अपनी संतानों से भी कोई मोह‌ नहीं था क्योंकि वो बेटियां थीं । पर अब स्वाति के हृदय में आत्मसम्मान की लौ जागृत हो गई थी , जिससे कि वह अपनी और अपने बच्चों की जिंदगी सर ऊंचा करके जी सकती थी।

नूतन योगेश सक्सेना 

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