जवाब – विजय शर्मा

“आज शाम को हो सके तो घर जल्दी आ जाना।” दफ्तर जाते समय उदय को शालिनी ने टोका तो वह आश्चर्य से भर उठा। उसने शालिनी की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा और ज्यो ही घड़ी पर नजर पड़ी अपना टिफिन उठाया और तेज तेज पेडल मारता अपनी साइकल पर चल पड़ा दफ्तर की तरफ ।

सारा दिन वह उधेड़बुन में लगा रहा- “आखिर शालिनी ने आज जल्दी आने को क्यों कहा ” उदय इन्कम टेक्स के दफ्तर में जूनियर क्लर्क था। घर की गाड़ी बमुश्किल खींचकर चल पाती थी। ख्वाइशो और मासिक वेतन के बीच तालमेल न बिठा पाने का उसे बड़ा मलाल रहता था।

मासिक वेतन ती यू खर्च हो जाता जैसे धूप को देख परछाई।।

उदय सारा दिन घड़ी की तरफ देख कर समय व्यतीत करता रहा। पाँच बजते ही टिफिन उठाकर आनन फानन में घर पहुँच गया। हाँ शालिनी अब जल्दी से बताओ क्या बात है ? क्या सरप्राइज देने वाली हो तुम मुझे ?

शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा सब्र करो थके हुए आए हो चाय पी लो फिर बात करेंगे। मै चाय बना कर ला रही हूँ यह कहते हुए शालिनी किचन की तरफ जाने लगी। उदय ने रूठते हुए स्वर में कहाँ “ओ शालिनी, मेरे सब्र का इम्तहान मत लो पहले जल्दी से कहो फिर सब काम करना ।

शालिनी बोली- “मै कई बरसों से देख रही थी तुम “एक्शन” के जूते खरीदने की इच्छा को हर बार दबा जाते थे। हर बार बजट फेल हो जाने की वजह से तुम मनमसोस कर रह जाते थे। मैंने इस बार ठंड` के पूरे सीजन में स्वेटर बुनने का काम करके पूरे अट्ठारह सौ रूपए जमा किए है। आज हम बाजार चलेंगे और तुम नए एक्शन के जूते पहनोगे। उदय बोला “ओह शालिनी तुम कितनी अच्छी हो, तुम मेरा कितना ख्याल रखती हो।”

उदय की लंबे समय से चली आ रही इच्छा आज पूरी होने वाली थी। दोनों प्रसन्न मन से बाजार गए। उदय ने एक्शन के जूते पहने फिर गोल मार्केट पर रुककर दोनों ने पानी पताशों का आनंद लेते हुए घर की ओर चल दिए।

रास्ते में शालिनी बोली – “उदय बहुत दिन से हम मंदिर नहीं गए क्यों न आज मंदिर होते हुए घर चले ” I

उदय बोला – “जैसी तुम्हारी मर्जी ।”



कुछ ही देर में दोनो मंदिर परिसर में पहुँच गए। मंदिर में श्रद्धालुओं का ताँता लगा हुआ था। मंगलवार के दिन विशेष भीड़ होती है। उदय और शालिनी भी दर्शनार्थियों की लाइन में लग गए।

दोनो जब दर्शन करके लौटे तो देखा उदय के नए जूते गायब। दोनों के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। सारी प्रसन्नता काफूर हो गई। शालिनी अफसोस करने लगी की उसने उदय को मंदिर चलने के लिए कहा ही क्यूँ ।

उदय थोड़ी देर तक आसपास जूते ढूंढता रहा लेकिन असफल ही रहा। मंदिर प्रबन्धक के पास जाकर उन्हें सारी बात बताई पर उनके कानो पर जूँ भी न रेंगी।

वह गुस्से में बड़बड़ाने लगा -” इतने बड़े मंदिर में कोई व्यवस्था नहीं है, जूते-चप्पल तक सुरक्षित नहीं। जेबकतरों का आतंक अलग।”

उदय शालिनी के पास जाकर मुँह लटकाकर खड़ा हो गया ।

शालिनी ने उदय के कानों में फुसफुसाते हुए कहा – “तुम भी किसी के जूते पहन लो और चले चलो।”

उदय ने कहा – “नहीं यह ठीक नहीं है।

शालिनी ने तनिक नाराजगी जताते हुए कहा – “तुम तो व्यर्थ ही सही-गलत के गणित में फँस रहे हो। जो भी जूते ठीक आ रहे हो पहन लो और चल पड़ो। “

उदय बोला- “नहीं नहीं यह नहीं हो सकता।”

शालिनी बोली – “क्यों नहीं हो सकता ?”

उदय ने धीरे से आहत स्वर में बोला – “हो सकता है, मैं जिसके जूते पहन जाऊँ उसकी बीवी ने भी स्वेटर बुनकर पैसे इकट्ठे किए हो और उसे जूते दिलाएँ हो।”

शालिनी निरूत्तर हो गई।

विजय शर्मा

स्वरचित

अप्रकाशित

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