जाके पाँव न फटी बिवाई – नीलम सौरभ

‘चौधरी जी का बाड़ा’…यही नाम है हमारे शहर की पुरानी बस्ती के बीच बसे उस चॉल का। ‘यू’ आकार में बनी उस तीन मंजिला रिहायशी इमारत में 36 खोलियाँ हैं अर्थात 36 परिवारों का निवास स्थान है चौधरी बाड़ा। बाड़े के मालिक अवध नारायण चौधरी परिवार सहित पॉश इलाके के अपने बड़े बंगले में रहते हैं। महीने में दो-चार बार ही इधर का चक्कर लगाने आते हैं।

इस बाड़े के एक परिवार में तीन कन्याओं के बाद जन्मा हुआ बड़ा प्यारा बालक था भास्कर, जिसे उसके घरवालों द्वारा लाड़-दुलार से अब 5-6 साल का हो चुकने पर भी लल्ला कहकर पुकारा जाता था। वह अपने साथ ही रहने वाले दादा-दादी का प्राण प्यारा तो था ही, अपने माँ-बाप के लिए अपने भविष्य की एकमात्र आस था। बेटियों का क्या है, वे तो पराये घर की अमानत हैं…कन्यादान के पश्चात अपने-अपने घर की हो लेंगी…अपना वंश तो पुत्र से ही चलेगा, बुढ़ापे का सहारा बनेगा और..और…मृत्यु के बाद मुखाग्नि भी तो! इस परिवार की पीढ़ियों से चलती आ रही सोच अब भी क़ायम थी।

मासूम चेहरे वाले बच्चे भास्कर ने अपनी शरारतों और खुराफातों से सारे पड़ोसियों की नाक में दम करके रखा हुआ था उन दिनों। लोगों के प्यार से समझाने पर तो वह ध्यान ही नहीं देता और अगर कोई सख़्ती दिखाते उसे डाँटने-फटकारने की कोशिश करे, उसकी माँ और उससे बढ़कर उसकी दादीमाँ की भृकुटि टेढ़ी हो जाती। दोनों तत्काल महाभारत की मुद्रा में कमर कस कर उस व्यक्ति पर पिल पड़तीं।

____”अरे आप हमें बताया करो न कुछ होये तो…हम अपने लल्ला को समझा लेंगे। ऐसे डाँट-फटकार से बच्चे के कोमल मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?”

____”छोटा बच्चा है…बच्चे तो शरारत करते ही हैं… आपने नहीं की क्या अपने बचपन में!”

____”चलो आगे से नहीं करेगा कुछ… जरूर दूसरे किसी बच्चे ने इसे बहका दिया होगा, भोला है हमारा लल्ला तो!”

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____”ख़बरदार जो हमारे लल्ला के लिए एक भी अपशब्द बोला तो…ठठरी बाँध कर रख देंगे हम सबकी!”

ठेठ बुन्देलखण्डी में जब दादी अम्माँ शुरू होतीं, मुश्किल से चुप होतीं फिर। इस झंझट से बचने हेतु अधिकतर पड़ोसी ख़ुद ही सँभल कर रहने की सोचते। इन झगड़ालू माइयों से कौन उलझे, अपना ही मुँह ख़राब हो और मन भी।

भास्कर ने पत्थर मारकर अनगिनत खिड़कियों के शीशे तोड़े, चॉल में रहने वाली कई महिलाओं की मेहनत और लागत लगा कर बनाई और धूप में सुखायी गयी चीजें, यथा पापड़-बड़ियाँ, चिप्स आदि कई बार ख़राब कीं। किसी दूसरे बच्चे से कभी कोई झड़प हो जाये तो वह इतनी गंदी गालियाँ मुँह से निकालता कि सुनने वाले बड़े लोग खौफ़ खाकर ख़ुद अपने बच्चों को डाँट कर घर के अन्दर कर लेते।

मगर काश कि ऐसी छोटी-मोटी शैतानियाँ करके ही भास्कर रुकता। उसे पूरा अंदाज़ा था अपने कुछ ख़ास होने का। घरवालों की नासमझ शह पर उसका दुस्साहस आसमान छूने लगा था दिनों-दिन।

एक दिन पड़ोसी के किशोर बालक मोनू को लल्ला ने पर्दे की रॉड निकाल कर पूरी ताकत से मार दिया, जिससे उसके माथे से थोड़ा खून आ गया था। मोनू के पिता के शिक़ायत करने पर लल्ला की दादी उन्हें ही उल्टा लताड़ते हुए बोल कर निकल लीं,

____”हमारा लल्ला तो छोटा बच्चा है…नादान है…नासमझ है, लेकिन आप तो बड़े और समझदार हैं, अपने इतने बड़े मोड़े(लड़के) को समझा कर रखना चाहिए था न कि हमारे बच्चे के मुँह न लगे।…वह इससे बिना मतलब उलझ रहा था…इसीलिए इसने गुस्से के कारण हाथ में जो आया उससे मार दिया।”

मोनू के पिता को समझ में आ गया था कि इनसे बहस करना बेकार है। बेचारे अपना सा मुँह लेकर वापस आये और मन ही मन भुनभुनाते हुए अपने बेटे की मरहम-पट्टी की। अगले दिन से ही उन्होनें दूसरा कमरा ढूँढ़ना शुरू कर दिया। हर समय सिर पर लटकती तलवार के साये में रहने से भला थोड़ा-बहुत महँगा घर रहेगा, वे सोचने लगे थे।

और थोड़े दिनों बाद ही मकान-मालिक चौधरी जी के एक दूर के रिश्तेदार पुरुषोत्तम राय बाड़े के नये रहवासी बनकर आ गये जब लल्ला के बाजू वाली खोली खाली करके मोनू का परिवार दूसरे मोहल्ले चला गया। पुरुषोत्तम राय के घर में ढाई-तीन साल का एक नटखट और बहुत ही प्यारा बच्चा है, मनु। वह चंचल-चपल बालक मानों हवा का झोंका है, अपने घर में पलभर भी नहीं टिकता, दिन भर अपनी मंजिल की सभी खोलियों में घूमता-खाता फिरता रहता है। उसकी माँ मीरा व्यस्त कामों से ध्यान हटा कर बार-बार उसे ढूँढ़ कर लाती है और वह थोड़ी ही देर में फिर से गायब हो जाता है।

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एक दोपहर चॉल के बीचोंबीच स्थित बड़े दालान में एकाएक तेज शोर-शराबा उठ खड़ा हुआ। बहुत सारे रहवासी खोलियों से निकल कर अपनी छोटी-छोटी बाल्कनियों से नीचे झाँकने लगे। सबको नया नज़ारा कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

नीचे दालान में ज़मीन पर खून के धब्बे जहाँ-तहाँ दिख रहे थे। रोते हुए भास्कर का माथा हथेलियों से दबा कर खड़ी थीं उसकी दादी जिनके साथ उसकी माँ और पापा ने पूरा बाड़ा सर पर उठा कर रखा हुआ था, ____”बच्चे को संभाल कर नहीं रख सकते…मकान मालिक के रिश्तेदार होने का रौब झाड़ना चाहते हैं…अरे मुफ़त में नहीं रहते हम लोग यहाँ…सीधे-सादे हैं यहाँ के लोग जान कर महँगे किराये में रह रहे हैं…हाय-हाय…नासपीटे छोकरे ने क्या हाल करके रख दिया हमारे बच्चे का…कोढ़ फूटें हमारे बच्चे के सारे दुश्मनों को।”

इसी समय नन्हा मनु सबसे ऊपर की एक बाल्कनी से झाँकता हुआ खिलखिला रहा था। थोड़ा माज़रा समझ अपराधबोध से भरी मीरा उसे गोद में लेकर जब नीचे दालान में पहुँची, भास्कर की तीनों बहनों के साथ दूसरे घरों के कुछ बच्चों ने आँखों देखा जो हाल बताया, उससे पूरा मामला धीरे-धीरे साफ होने लगा।

प्यार से पुचकार कर पूछने पर मनु भी अपनी मीठी तोतली बोली में कह उठा था,

_____”लल्ला बइया गाली दे लहा था…हमको चिलहा लहा था…बन्दल का बच्चा बोल के…तो हमको भोत गुच्छा आ गया…ओल हमने ताइल छे माल दिया!”

हुआ यह था कि इमारत की ऊपरी मंज़िल के एक कोने पर टूटी टाइल्स और रेत का छोटा ढेर पड़ा हुआ था जो थोड़े समय पहले कुछ खोलियों के स्नानगृहों की मरम्मत के बाद निकला था। छोटे-बड़े बच्चे अक्सर उस कोने की खाली जगह पर खेलते रहते। मनु भी वहीं खेलते हुए नीचे झाँक रहा था उस समय जब उससे निचली मंज़िल में अपनी खोली के सामने खड़े भास्कर ने ऊपर उसकी ओर देख कर ‘देखो, देखो बन्दर का बच्चा झाँक रहा है’ कहकर चिढ़ाना शुरू किया। मनु गुस्से में टाइल्स का एक टुकड़ा लिये सीढ़ियों से भाग कर जब नीचे आया, भास्कर दूसरी सीढ़ियाँ उतर नीचे दालान में पहुँच गया था। उसे लग रहा था कि अब मनु फिर से जब सीढ़ियाँ उतर उसके पीछे भागेगा तो वह दूसरी ओर से ऊपर चढ़ कर उसे छकाता रहेगा। मगर मनु ने उसका पीछा किया ही नहीं, वहीं बाल्कनी से टाइल्स का वह टुकड़ा भास्कर पर खींच कर दे मारा था जो संयोगवश निशाने पर जा लगा था और बेचारे लल्ला का सर फूट गया था।

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इस शोर-शराबे और आरोप-प्रत्यारोपों के बीच मनु के पापा दौड़ कर बाहर नुक्कड़ के पास वाले क्लिनिक के एक डॉक्टर को मिन्नतें करके साथ लिवा लाये थे, जिन्होंने भास्कर के चोट की जाँच की और आश्वस्त किया कि खून जरूर बहुत निकला है लेकिन कोई खतरे वाली बात नहीं है। उन्होंने चोट पर दवा लगा कर पट्टी बाँध दी और फिर दो इंजेक्शन लगा कर कुछ दवाइयाँ और बहुत सारी हिदायतें देकर वे चले गये।

उनके जाते ही भास्कर की नादानियों से अधिक उसके घर के बड़ों के बचकाने व्यवहार से पीड़ित कई पड़ोसियों ने एकजुट होकर वहीं दालान में एक पंचायत बुला ली। वहाँ थोड़ी देर तक आपस में राय-मशवरा, सुलह-सफाई और समझाइश चलती रही। एक निष्कर्ष के साथ पंचायत बर्खास्त हो गयी, जिसका सार था,




‘जाके पाँव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर परायी!’

अगले दिन से ही वहाँ के माहौल में एक करिश्माई बदलाव दिखने लगा है। अब भास्कर की शरारतें कम होती जा रही हैं। बीच-बीच में उसके घर के बड़ों द्वारा उसे फटकारे जाने की आवाज़ें भी आती रहती हैं जिन्हें सुन कर पड़ोसियों के चेहरे पर राहत भरी मुस्कान आ जाती है। उसकी निरीह सी दिखने वाली तीनों बहनें भी अब ख़ुश दिखाई देती हैं। बाड़े की स्त्रियाँ अब निश्चिंत होकर छत और बाल्कनियों पर पापड़-बड़ियाँ सुखाती हैं, लालमिर्च और आलू के चिप्स सुखाती हैं, अचार के मर्तबान धूप में रखती हैं।

हाँ, इस क्रान्तिकारी परिवर्तन के सूत्रधार मनु महोदय पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। वह अब भी उतना ही नटखट है और पहले की तरह ही अपनी मनमोहिनी बाल-लीलाओं से सबको रिझाता रहता है। उसकी देवकी मैया मीरा अब भी दिन में उसे कई बार ढूँढ़ती है और हर बार वह ऊपर-नीचे की किसी खोली में अपनी किसी न किसी यशोदा मैया के पास मिलता है, हँसता-खिलखिलाता हुआ…कुछ न कुछ खाता हुआ।

————————–*समाप्त*————————

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

 

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

 

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