इनके नहीं रहने पर मैंने अपने श्वसुर जी जिनको मैं, बाबू, बोलती थी,उनको अपने साथ अपने कार्यस्थल शहर ले चलने की तैयारी करने लगी, क्यों कि अब घर में कोई नहीं था, मैं अपने पिता जी से मिलने अपने मायके गई,, वो भी अकेले ही थे,भाई भाभी शहर में थे, कुछ कारण वश उनके साथ बाबूजी रहना नहीं चाहते थे, मैं उन्हें समझा बुझाकर अपने साथ ले आई,कि मैं स्कूल चली जाऊंगी,,आप रहेंगे तो मुझे और बाबू को सहारा मिल जाएगा,आप उन्हें चाय, पानी तो दे ही सकते हैं, उनकी थोड़ी देख भाल हो जायेगी, और मैं निश्चिंत रहूंगी,, और हम तीनों शहर आ गये,
, मेरे बाबूजी विटनरी डाक्टर थे, और मैं बचपन से ही देखती आ रहीं हूं कि संत महात्मा जैसे प्रकृति के थे, रिक्शे वाले,
पोस्ट मैन या अन्य कोई भी घर पर आता, उसकी आवाभगत में कोई कसर नहीं छोड़ते,, मां भी उनका पूरा साथ देती थी ,,
उन्हें गुस्सा तो आता था,पर केवल घर वालों पर,, बाहर कोई कुछ भी कह दे या उनका मजाक उड़ाये,हंस कर टाल देते,दो भाईयों और अम्माजी के चले जाने के बाद तो चाहे कोई कितना भी ऐसा वैसा बोल दे, वो बस मुस्कुरा कर रह जाते,, कभी कभी तो मुझे उन पर बहुत ग़ुस्सा आता,कि किसी भी ग़लत बात का वो ज़बाब क्यों नहीं देते,,
एक दिन मैं जब स्कूल में थी , मेरे किरायेदार ने मुझे फोन किया, मैडम, बाबू जी तो घर पर नहीं हैं, मैं बोली कि अरे, वहीं कहीं होंगे,या दुकान से सामान लेने गए होंगे,, नहीं, मैं आपको लेने स्कूल आता हूं, आपको घर आना है, मैं घर आई, इधर उधर देखा पूछा पर बाबू बोले, हमको नहीं मालुम,
मैंने भागकर भगवान का मंदिर झांका, वहां उनका शंख, मूर्ति और भी पूजा का सामान गायब था, मैं रोते हुए धड़ाम से नीचे गिर पड़ी,,हे भगवान, ये तो घर चले गए, सुबह तक तो ठीक थे, मैंने फ़ौरन फ़ोन लगाया,,कई बार लगाने पर फोन उठाया, मैंने रोते हुए कहा, कि बाबू जी ऐसा क्या हुआ, क्यों चले गए, वापस लौट आईये, कुछ देर की चुप्पी के बाद बोले, अपने बाबू से यानि श्वसुर जी से,पूछो, और मैं तो अब प्रतापगढ़ पहुंच गया हूं,अब मैं कभी नहीं आऊंगा,,
,, मैंने अपने श्वसुर से पूछा, बाबू, आपने उन्हें क्या कह दिया है,सच सच बताना,वो बोले,,कि बस यही तो कहा, हमारे घर में क्यों डेरा डाले हो, दिन में चार बार काफी पीते हो, और दूसरों को भी पिलाते हो, यहीं तो तुम्हारे बेटे बहू रहते हैं, वहां जाकर रहो, पेंशन पाते हो तो क्या मनमानी करोगे।।
मैं यह सुनकर सन्न रह गई,अब समझी,,कई बार मजाक मजाक में बाबू ने पिता जी का गांव वालों के सामने भी तिरस्कार किया था, सबके सामने श्वसुर जी बोले,, ये अपने बेटे के घर नहीं जाते,, यहां हमारे घर में पता नहीं क्यों रहते हैं।। वो चुपचाप सहन कर के रह गए थे, और मैं भी डांट देती थी, वो पिता जी ,जो गुस्सा करना ही भूल गए थे, शायद श्वसुर जी ने कोई ऐसी चुभती हुई बात कह दी थी,जो उनके आत्मसम्मान को घायल कर गई थी,उनका स्वाभिमान और आत्मसम्मान दोनों ही लहूलुहान हो गया था वो अपना तिरस्कार सहन नहीं कर सके और, मेरे बाबूजी बिना खाये पिये, तीन तीन बस बदल कर कैसे गये होंगे,ये सोच सोच कर मुझे रोना आ रहा था।
मैंने अपने श्वसुर जी को समझाया, बाबू,,वो तो पेंशन पाते हैं ना,सब पैसा मुझे दे देते हैं, क्या आपको चाय नाश्ता नहीं देते, कभी आपका अपमान किया है, एक नौकर की तरह आपकी सेवा करते हैं,आप दिन भर उनसे फरमाइश करते रहते हैं, अगर उनके बेटे बहू उन्हें नहीं रखना चाहते तो क्या ये उनका कसूर है, आप की किस्मत अच्छी है जो आप यहां मेरे पास अच्छे से घर के मालिक बन कर रह रहें हैं, किसी की आत्मा को इतना नहीं दुखाना चाहिए कि भगवान को भी उसकी पीड़ा सहन ना हो, और अब बैठिए अकेले , मैं तो सारा दिन स्कूल में रहूंगी, अब ना आपको कोई चाय पिलाने वाला है,ना टी वी में रामायण महाभारत दिखाने वाला है,जो बैठे बैठे हुकुम चलाते थे न,अब पता चलेगा,
बाबू बोले,, हां, हमसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई है, हम सच में गुस्से में बहुत कुछ बोले दिये हैं,उनको बुला दो,,अब कुछ नहीं कहूंगा,
मैंने पिता जी को बहुत फोन किया पर उन्होंने आने से स्पष्ट मना कर दिया, मेरे श्वसुर बहुत ही उदास और दुखी रहते थे, अब वो पछता रहे थे,पर मैं क्या कर सकती थी,
एक दिन सुबह अचानक मैं स्कूल से घर आई तो देखा कि दोनों समधी बाहर धूप में कुर्सी लगाये बैठे हैं और दोनों बातें करते खूब हंस रहे थे, मैं आंखें फाड़कर हैरत से देख रही थी, बाबू जी आप इतने सबेरे और कैसे,,
, श्वसुर जी बड़े गर्व से बोले। देखा,हम डाक्दर को बुला लिये ना, आप, वो कैसे,अरे, हम उ किरायेदार भैया से कहे कि तनी हमरे समधी का फोन लगावा, और हम इनसे कहे,डाक्दर,हमका तुम्हार बड़ी याद आती है,हम अकेले पागल की तरह बैठे रहते हैं,हम दोनों हाथ जोड़कर माफी मांग रहे हैं भैया,हम कान पकड़ रहें हैं,हम आपको कुछ नहीं कहेंगे,हम तोहरे बिना अकेल हो गये हैं,का अपने बड़े भैया समझ के माफ़ न कर दोगे, और हम फ़ोन पर ही रो पड़े, कहते कहते वो सच में रोने लगे, उनके साथ मेरी और बाबूजी की आंखों में भी आसूं आ गये,।।
पर बाबूजी आप कब चले जो इतने जल्दी पहुंच गए, बाबू जी बोले, बिट्टी,इनका फोन आया,हमारा मन पिघल गया, और हम तुरंत अपना झोला झंडा लेकर सड़क पर बैठ गए,रात में दो बजे बस प्रतापगढ़ की मिली फिर इलाहाबाद और फिर रीवा की बस,हम सुबह सुबह आ गये,,
बाबू जी का आत्म सम्मान श्वसुर जी ने अपनी सूझबूझ से और मीठी वाणी से वापस लौटा दिया और दोनों कई सालों तक बड़े प्रेम से दो सगे भाई जैसे रहे,
श्वसुर जी ने अपने समधी का तिरस्कार तो किया,पर जल्दी ही उनको अपनी ग़लती का अहसास हुआ,, आईंदा उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं की, जिसके कारण उनके समधी उनसे नाराज़ हो जायें।।
#तिरस्कार
सुषमा यादव, प्रतापगढ़, उ प्र
स्वरचित मौलिक,