बालों में झांकती चांदी की लड़ियाँ और चेहरे पर चश्मे का परदा। लग तो वही रही Mहैं? लेकिन पता नहीं, थोड़ा पशोपेश में था विनीत।
उन्होंने स्वागत किया सभी का, फिर औपचारिक बातें होने लगीं। बेटे के लिए लड़की देखने आए थे विनीत। तब उन्हें देखा था। नाम भी वही, तीन दशक बाद कोई दिल में रुका हुआ इंसान जितना याद रह जाता है उतनी ही यादें उनकी भी स्मृति के धूमिल पन्नों में रची हुई है।
बात जम गई तो दो बार और मुलाकात हुई। घर पर जब वो सबसे मिलने और हमारा घर देखने आए। दूसरी बार तब जब सब तय हो गया, तो एक छोटा सा आयोजन एक रस्म को पूरा करने, तब।
विनीत हर बार सोचता पूछूं? थोड़ा और जानकारी लूँ लेकिन लगता, क्या होगा जानकर भी। इतने सालों बाद जरूरी तो नहीं कि उनकी भी जिंदगी के बक्से में यादें सुरक्षित हों।
आज मधु ने कहा समधिन जी का फोन आया था, कह रही थीं कि अंशु के मामा जी की इक्छा है सगाई उनके शहर में की जाए। शादी के लिए बेशक वो यहां आ जाएंगे। बिना पिता की बेटी है, मामा ने ही पाल पोसकर बड़ा किया है तो इतना हक बनता है उनका भी।
विनीत ने खामोशी से सर हिला कर सहमति दे दी। उसका स्टंट लगा दिल तो उस शहर का सुनकर ही बुलेट की तेजी से भागने लगा था। अब थोड़ा और यकीन बढ़ गया था कि ये वही हैं।
कॉलेज की पढ़ाई के लिए एक कस्बे से निकल कर राजधानी में जाना सपने के पूरे होने जैसा था। जहां स्कूल कॉलेज का अर्थ ऐसा हो कि को एजुकेशन में भी क्लास में लड़कियां एक ओर बैठें और लड़के दूसरी ओर। क्लास के बाहर बात करने पर घर तक शिकायत पहुंच जाती। कॉलेज का नशा बस इतना ही कि क्लास से भागकर दोस्तो के साथ सुबह के शो में जेम्स बॉन्ड की फ़िल्म देख लो, या फिर थोड़ी दूर बहती नदी में डुबकियाँ लगा लो।
भव्य इमारतें, चौड़ी सड़कें और उन सड़कों पर बजाज के स्कूटर में सवार तीन तीन लड़कियाँ। ऐसा था पहला अनुभव रेलवे स्टेशन से बाहर आने पर। दिल ऐसा बाग बाग हुआ कि क्या कहें। कॉलेज क्या था, सपनो का मंदिर था जहां वो सब था जिसके सपने देखते थे।
जल्दी ही एक ग्रुप बन गया दोस्तों का। जिसमें कुछ लड़के कुछ लड़कियां।
एक दिन एक दोस्त के घर सब इकट्ठा थे तो इनका पदार्पण हुआ। हंसी मजाक अंताक्षरी के बीच परिचय हुआ और बस।
एक दिन कैंटीन में ऋतु ने कहा विनीत तुम्हें वो लड़की याद है जो मेरे घर पर मिली थी। वो मिलना चाहती है तुमसे। ऋतु की आंखों में शैतानी थी।
विनीत ने पूछा- क्यों?
शायद तुम भा गए हो उसे। और ऋतु जोर से हंस पड़ी। विनीत झेंप गया। कस्बाई व्यवहार उसे खुलकर कुछ कहने की इजाजत भी नहीं दे रहा था। कल शाम को बुलाती हूं उसे कॉलेज के बाद, ठीक है ना? ऋतु ने पूछा और विनीत मुस्कुरा कर रह गया।
सारी रात जैसे पलकों के झूले में बीती विनीत की। जीवन की पहले पहल की आशिकी या प्रेम या फिर इसकी शुरुआत वाली फीलिंग। रात और सुबह फिर शाम, मानो समय ने लोहे के जूते पहन लिए हों और वो चल ही न पा रहा हो।
कॉलेज छूटा तो बाहर गार्डन में वो गुलाबी सलवार सूट पहने एक बैंच पर बैठी थी ऋतु के साथ। झेंपा, सकुचाया विनीत जैसे तैसे सामने जा खड़ा हुआ।
“हैलो! देखो कैसे शरमाया हुआ है दोस्त हमारा। ऋतु ने छेड़ा।”
वो भी सर झुकाए मुस्कुरा रही थीं। ऋतु ने अविलम्ब विदा ली और हम दोनों को छोड़ दिया परिचय बढ़ाने को।
बाहर चले कहीं?यहां सब देख रहे हैं। उसने कहा।
जी। विनीत जैसे हड़बड़ा गया।
गुलमोहर की डालियों से ढंकी सड़क पर दोनों ऐसे चल रहे थे जैसे सड़क पर बिखरे हुए फूल कुचल न जाएं।
मैं विनीता। ऋतु के पड़ोस में रहती हूँ। उसने अपना परिचय दिया।
मैं विनीत। ये इंजीनियरिंग का आखरी साल है मेरा।
सिमटे सकुचाये दो होने वाले प्रेमी ज्यादा बात कर पाते कि ऋतु आ टपकी।
चलें मैडम। देर हो रही है फिर कभी और मिल लेना। अब तो मिलना होता ही रहेगा। और उसका चिर परिचित ठहाका गूंज उठा।
विनीता के घर का माहौल कुछ ऐसा था कि बाहर निकलना मुश्किल था और विनीत का आखरी साल। पढ़ाई और भविष्य की चिंता भी। दोनों की मुलाकात तब ही होती जब सब ऋतु के घर जाते छुट्टी के दिन। देखना, मुस्कुराना, छटपटा के रह जाना, बस।
परीक्षा खत्म हुई फ़िल्म देखने का प्लान बना। विनीत ने ऋतु को मनाया की उसे लेकर आ जाये।
चाँदनी। रोमांटिक फ़िल्म, दोनों आजू बाजू की सीट पर और हाथों की हल्की हल्की छुवन पूरे समय। पता नहीं फ़िल्म अच्छी थी या साथ। नशा दोनों पर तारी था।
बाहर निकले तो ऋतु ने कहा विनीत तुम इसे घर तक छोड़ दोगे? मुझे कुछ काम है देर हो जाएगी।
अंधा क्या चाहे दो आंखें। कुछ देर का और साथ। विनीत को लग रहा था काश वक्त रुक जाए। सुन बुद्धू! ये पकड़ मौका देखकर दे देना उसे। ऋतु ने विनीत के हाथ में कुछ थमाया और ये जा वो जा।
कस्बाई संस्कार, ऑटो वाले का रह रह कर आईने से पीछे देखना और थोड़ा सा डर, विनीत को कुछ सूझ नहीं रहा था।
ध
जेब से उसने ऋतु का दिया पैकेट निकाला, उसमें हाथी दांत का बना कड़ा था, शंख चूड़ा कहते हैं जिसे।
हौले से विनीता के हाथ पकड़ पहना दिया और कुछ सूझा नहीं तो ऋषि कपूर वाला डायलॉग बोल पड़ा- “बोलो! हां या ना”।
रक्तिम चेहरा लिए विनीता ने जवाब दिया बाद में बोलूंगी। फिर बाकी का रास्ता खामोशी से हाथ में हाथ लिए कट गया। शायद न कुछ पूछने की जरूरत थी न ही कहने की।
घर पास आ गया था, ऑटो रुका और मद्धम कदमो से चली गयी। एक बार मुड़कर देखा जाते हुए मुस्कुरा कर।
जब पहला पहला प्यार होता है तो उसका नशा भांग की तरह चढ़ता है। न होश रहता है न दुनिया की फिक्र। विनीत को लगता रोज मुलाकात हो लेकिन सम्भव न था। न मोबाईल फोन का अविष्कार हुआ नहीं था तब और चिट्ठी पत्री बहुत रिस्की तरीका था। घर या कॉलेज के बाहर खड़े रहना विनीत को छिछोरा पन लगता था।
दिन बीत रहे थे, ऋतु रोज ही हाल बता दिया करती विनीता का। कभी अपने घर के फोन से बात करवा दिया करती, पीसीओ में बैठकर बातें करना बड़ा अजीब लगता।
एक दिन ऋतु उसका एक पत्र लेकर आई।
गुलाब की खुशबू से महकता, कॉपी के एक पन्ने पर चंद पंक्तियां।
क्या सम्बोधन करूँ आपको। आपने उस दिन एक सवाल किया था। उसका जवाब देने का वक्त अभी सही नहीं है, इंतज़ार कीजिये थोड़ा। कैसे मिले हैं न हम? ना मिलना सम्भव होता है न ही बातें कर पाना। फोन पर भी बातें नहीं हो पाती। जल्द ही आप चले जाओगे, मुझे विश्वास है फिर जल्द आओगे, मेरे लिए। ऋतु आपको एक पता देगी जिसपर आप पत्र लिखना। आप का पता भी भेजना।
आपकी ट्रेनिंग बहुत अच्छी हो यही कामना।
नीचे ना आपकी, ना ही तुम्हारी
बस विनीता।
मन मसोस कर रह गया विनीत। कैसा हुआ है ये प्यार। या शायद ऐसा ही होता है? परीक्षा लेता है कहते हैं इश्क़। चलो देखते हैं कितनी लेता है।
पढ़ाई के बाद ट्रेनिंग के लिए शहर छोड़ना पड़ा। सारे दोस्त तितर बितर हो गए। कुछ से सम्बन्ध पत्रों के माध्यम से बने रहे कुछ जीवन की होड़ में खो गए।
ऋतु को वो बार बार पूछता विनीता ने कोई पता दिया। और वो हर बार नहीं में जवाब देती। फिर एक दिन बताया कि वो भी पढ़ाई के लिए बाहर चली गयी है।
फिर हारकर उसने पूछना छोड़ दिया। और रह गयी बस यादें। उसे हमेशा लगता कि काश हाँ या ना का जवाब मिल जाता।
नौकरी फिर शादी और फिर परिवार। जीवन का पहिया घूमता रहा और सफर चलता रहा। पर कहते हैं ना कि दुनिया गोल है। तो आज फिर वहीं आकर थम गया है सफ़र।
विनीत सोच रहा है सगाई के लिए जरूर जाएंगे अंशु के मामा के शहर। आखिर वो उसका भी तो शहर रहा है। उसे यकीन हो चला है कि ये वो ही विनीता है। उसने तब जवाब नहीं दिया था शायद किस्मत इस रूप में जवाब दिलाना चाहती थी।
विनीत ने मधु से कहा- “सुनो! समधन जी को फोन लगाओ ज़रा। बात करनी है।”
“समधन जी! लीजिये इनसे बात कीजिये। कुछ जरूरी बात करना चाहते हैं आपसे।”
हेलो! विनीत ने सम्हल कर शुरू किया। समधन जी, सगाई के लिए वहां आने के लिए हमारी तो हां है। लेकिन शादी के लिए आप सभी को यहां आना होगा। बोलिये, हाँ या ना? अनायास ही विनीत के मुंह से निकल पड़ा वही डायलॉग।
चंद लम्हों की खामोशी के बाद उधर से आवाज आई “जी! इस बार मेरी हाँ है।”
विनीत को लगा शायद ईश्वर ने इसी पल के लिए उस दिन के सवाल को अनुत्तरित रख दिया था। विनीता नहीं आ पाई इस घर में तो क्या हुआ। अब उसकी बेटी विनीत की बेटी बनकर तो आ रही है।
© संजय मृदुल
मौलिक एवम अप्रकाशित