–मार्च का महीना था। रात के लगभग 9 बज रहे थे । सर्दी विदा ले चुकी थी। अत: धीमी गति से पंखा चल रहा था।
नीरजा औंधी लेटी हुई अपनें पति देव के आने की राह देख रही थी। इस तरह कुछ बीते हुए बातों के बारे में सोचते हुए उसका मन अतीत में चला गया।
काॅलेज के दिनों में किस तरह से लड़कियां उसके नक्से – कदम पर चलती थीं, उसके मन का कटोरा आत्मविश्वास से लबालब रहता था।उसके घने लंबे बालों की चोटी कमर तक लटकती रहती थी ।उसकी नुकीली नांक और कमानदार भौंहों के नीचे नीली-नीली झील सी आँखे उसकी खुबसूरती के परिचायक हुआ करते थे। वो अपने माता-पिता की दुलारी थी ।
भारतीय संस्कृति में यह विडम्बना है कि लड़की को पराया धन कहा जाता है , अत: हर लड़की को विवाह करके ससुराल जाना पड़ता है। और इस परंपरा इस रिवाज इस संस्कृति पर हर भारतीय लड़कियों को गर्व है , क्योंकि वह एक अंजान घर अंजान लोगों के बीच अपनी परस्पर ब्यवहार कुशलता से सबके साथ सामंजस्य बनाना जानती है ।
लेकिन समाज की सोंच में आई विकृति के कारण उस अंजान घर या पराये घर में उसके तन और मन दोनों का श्रम और भावना के रूप में जमा पूंजी की तरह उपयोग किया जाता है। वह हर उचित-अनुचित बातों पर हामी भरने के लिए विवश रहती है।
अतीत के पन्ने उलटते हुए उसकी आँखें डबडबा गई ,गालों पर आंसू के दो मोती लुढक आये । नीरजा अपनें मन में बार-बार यह बात दोहराती रही कि विवाह होकर जिस घर में वह आई है वहां उसकी खुबसूरती, खूबी, कला, हुनर योग्यता सभी को आखिर क्यों नकारा गया!!!क्या शादी-ब्याह महज चार दिन की चांदनी होती है???
नीरजा मन ही मन बुदबुदाने लगी – मैं ऐसी अभागन हूँ कि मेरे लिए तो चार दिन भी नहीं सिर्फ दो दिन की चांदनी निकली । विवाह मेरे लिए ऐसी अंधेरी रात बन कर रह गई जिसमें परछाई भी नहीं दिखाई देती है।
इस तरह सोचते सोचते कब रात के बारह बज गये उसे पता ही नहीं रहा।
तभी मेन गेट के बजने की आहट उसे सुनाई दी । तब उसने खुद को सामान्य बनाया और ऊपर से हल्का रोष ,जितना उसके हिम्मत में था ,अपने पर ही व्यक्त किया । मगर अंतर्मन में पति के स्वागत की खुशी साफ़झलक रही थी ।उसने लड़खड़ाते शराबी पति को पति प्रदत्त हिम्मत से ही थोड़ा सा डांटने लगी उल्टे आक्रोश का भय मन में समाया हुआ था।
घर का दरवाज़ा खुलते ही पति महोदय बैठक कमरे में लगे दीवान पर धड़ से गिर गए । नीरजा ने कहा चलिए खाना खा लीजिए , लेकिन उनमें बैठ कर निकला मुंह में डालने की भी सुध नहीं थी । जैसे तैसे एक दो कौर खाए फिर भोजन से भरी थाल में ही हाँथ धो दिए ।
अब रात के लगभग एक बज रहे थे, नीरजा जल्दी जल्दी काम समेटी और अतीत के पन्ने तो बंद हो ही चुके थे, वर्तमान की काली छाया उसके बच्चों के भविष्य पर न पड़े इस डर से पति को सुलाई और खुद भी किसी भी तरह निद्रा में समा गई ।
क्योंकि भविष्य के प्रभात में उसे अपने होनहार दोनों लाडलों को स्कूल भेजना था , जिन्हें डाॅक्टर और इंजीनियर बनाने के सपने संजोती हुई वह वर्तमान की काली अंधेरी रात में भी मीठी नींद सो गई।
।।इति।।
-गोमती सिंह
कोरबा, छत्तीसगढ़