घाट में भारी भीड़ में तुम्हारी मांग में भरा सिंदूर दूर से दमक रहा था। छट पूजा की शाम का इंतज़ार हर साल रहता है। तुम हर साल इन दिनों घर आती हो।
तुम्हारी तस्वीरें देखता रहता हूँ सोशल मीडिया में अक़्सर। वहां मैं तुम्हारा मित्र तो नहीं हूं मैं, वहां क्या अब तो मैं अजनबी ही हूं तुम्हारे लिए। मुम्बई में रहने वाली तुम। मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली, जिसका अपना फ्लैट, गाड़ी सब कुछ है वहां। यही सब तो चाहती थी तुम, आसमान में उड़ना।
हमेशा तुम्हारी बातें अक्सर केरियर को लेकर ही होती। “यार यहां के कॉलेज से इंजीनियरिंग करके क्या हो जाएगा? मुझे आगे पढ़ने के लिए आईआईटी जाना है। वहां से निकले तो कोई ना कोई बड़ी कम्पनी ले जाती है। फिर लाइफ सेट।” मैं मुस्कुराकर खामोश रह जाता। मेरी मंजिल, रास्ता सब इसी शहर में था।
पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण सम्भव ही नहीं था कि बाहर जाने के ख़्वाब देखूं, यही बहुत था कि इंजीनियरिंग पढ़ने की इजाज़त मिल गयी थी मुझे। तुम्हारे साथ रहने की चाह थी बस फिर जो भी पढ़ाई करनी पड़ती मुझे मंजूर था।
बचपन की दोस्ती अक्सर मोहब्बत में बदल ही जाती है। लेकिन यहां मामला अलग ही था। मैं जानता था तुम्हारी ख्वाहिशें तुम्हें रुकने नहीं देंगी और मेरी बेड़ियां मैं काट सकूं इतना साहस नहीं मुझमें।
फिर ना मैंने कुछ बोला ना ही तुमने कुछ सुना। जो नजरों, अहसास में व्यक्त होता रहा उसका गला दोनों घोंटते रहे। एक समय के बाद जरूरी नहीं होता शब्दों में कहना, प्रेम की महक यूँ ही बिखरने लगती है, जितना दबाया जाए उसे उतना ही फैलता है ये।
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परिवार, आस पड़ोस में दबे जुबान में चर्चा होती पर हम दोनों नजरअंदाज करते। सुबह कॉलेज जाने से लेकर शाम कोचिंग तक साथ रहने से ये अफवाहें तो फैलनी ही थीं। उसपर न तुम्हारी कोई खास सहेली न मेरा कोई दोस्त। जो भी थे हम दोनों ही।
फिर वही हुआ एक दिन। तुम उड़ गई पंखों को खोल कर, और मैं प्रयास करने लगा कि कोई ठौर मिल जाये मुझे भी। किस्मत शायद अच्छी थी कि सरकारी नौकरी मिल गयी। शायद तुम्हारे जाने के बाद ये लगा कि तुम्हारे बिना भी अस्तित्व है मेरा। कुछ बन कर दिखाना है। तुम जैसे न बन पाऊं लेकिन इतना तो बन जाऊं की कभी मिलें तो बताने में शर्म न आये।
तुम यहां से जाकर यूँ भूली मुझे जैसे कृष्ण भूल गए थे अपना गांव। न कभी फोन न कभी ईमेल। नम्बर भी बदल लिया था तुमने। कभी आती भी तो कोई खबर न होती मुझे। एक छोटे से शहर से निकल कर वहां नए नए लोग मिले होंगे, नई दोस्ती हुई होगी, पढ़ाई का तनाव अलग से। मैंने कई लोगों को देखा था ऐसा करते, तुम कोई पहली नहीं थी। बड़े शहर जाकर लोगों को अपना शहर पिछड़ा लगने लगता है और लोग दकियानूसी।
एक दिन तुम्हारी शादी का कार्ड आया घर पर पापा के नाम से। धक से हुआ दिल। ये क्या हुआ? कब हुआ? तुमने हाँ कहने के पहले क्या मुझे याद किया होगा? हजारों सवाल जहन में उठे फिर झाग से बैठ गए। जिस इंसान को तुम भूल ही गयी हो उसकी याद क्यों आएगी भला। कार्ड में देखा शादी लड़के वालों के शहर में होनी थी। गनीमत है, मैंने सोचा।
ये एकतरफा इश्क़ सबसे जानलेवा मर्ज होता है। इसका मरीज़ न जीता है न मौत आती है उसे। जैसे ऑक्सीजन लगा हुआ हो और सांस चल रही हो। कभी धड़कन बढ़ जाएगी तो कभी नब्ज़ डूबने लगेगी। न किसी से कुछ कहना बस मन ही मन में घुटते रहना। ज्यादा से ज्यादा डायरी भर लेना या कविताएं कर लेना।
मेरे पीछे भाई बहनों की जिम्मेदारी थी, उनको निभाते रह गया मैं। खुद के लिए कुछ करने की सोच भी नहीं पाया। अब जाकर जब सब ठीक हुआ है तो लगता है अकेलापन और तुम दो ही साथी हो मेरे। अब मन भी नहीं होता घर बसाएं। जिस दिल में मरघट बन जाता है वहां फिर कोई इमारत नहीं बन पाती। जबरदस्ती बना भी दो तो मनहूसियत छाई रहती है वहां। तो बेहतर है कि उसे वैसा ही रहने दिया जाए।
तुम हर साल दीवाली के बाद यहां आती हो। और मैं पूरा साल राह देखता हूँ इस वक्त का। मेरे मन में अब भी वही छवि है तुम्हारी, दो चोटी वाली, हल्के रंगों वाले सलवार सूट में, बिना मेकप। पूजा पर जब तुम नदी के घाट पर आती हो तो अलग ही नजर आती हो। गहरी लिपिस्टिक, हल्का सा मेकप,चटक गहरे रंग की साड़ी में तुम। और मांग में दमकता हुआ सिंदूर।
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मैं नदी किनारे सुरक्षा व्यवस्था वाली टीम में अपनी ड्यूटी बजाता तुम्हें देखता हूं। तुम नजर भी नहीं डालती इस तरफ। तुमने भी तो कभी किसी से पूछा होगा मेरे बारे में किसी से? कभी खोज खबर ली होगी? मुझे सर्च किया होगा सोशल मीडिया में? बचपन के साथ की कमी महसूस तो हुई होगी किसी पल? बस उतना ही पर्याप्त है मेरे लिए।
खुश रहना हमेशा। खूब तरक्की करना। मेरे मन में यही आ रहा है तुम्हारे लिए। डूबते सूरज के साथ अंधकार छा रहा है तुम तल्लीनता से आंखें बंद किये अंजुरी से जल अर्पण कर रही हो और मैं तुम्हें अपना प्रेम।
©संजय मृदुल
#आत्मसम्मान