हमसफ़र की अहमियत – डॉ बीना कुण्डलिया : Moral Stories in Hindi

रूपा ओ रूपा कहां हो पति राकेश की आवाज सुनकर रूपा दौड़ी आई हाँ बोलिए क्या हुआ..? अरे होना क्या तुम ध्यान नहीं रख सकती हो देखों मेरी इन दोनों कमीजों के बटन ही गायब हैं तुम यार करती ही क्या रहती हो दिनभर..?  सारे दिन तुम्हारा काम ही क्या है घर में ?  वो न कल, मुन्ना की तबीयत ठीक नहीं थी तो प्रेस वाला कपड़े दे गया देखना भूल गई वरना तो हर बार बटन वगैरा देख कर ही कपड़े अलमारी में रखती हूँ रूपा सकपका कर बोली,

 आप परेशान न होयें मैं अभी लगा देती हूँ बटन, दीजिए कमीज, रूपा ने हाथ आगे बढाया मगर राकेश बोला बस रहने भी दो दूसरी पहन कर चला जाता हूँ और उठाकर कमीजे वही बिस्तर में फैंक बड़बड़ाता कमरे से बाहर चला गया आज ऑफिस में प्रजेंटेशन है मगर तुमको कहां समझ आयेगा गंवार की गंवार ही हो पूरी, बैडरूम में जा दूसरी कमीज पहनने लगा ।

रूपा ने जल्दी से नाश्ता लगा दिया मगर राकेश इतना गुस्से में था कि नाश्ता किये बिना ही अपना बैग उठा दरवाजा खोल बहार चला गया रूपा पीछे पीछे भागी वो आवाज़ लगाती रह गई मगर तब तक वो मोटरसाइकिल स्टार्ट कर निकल गया था । रूपा निराश मन से वापस आ मुन्ना के पास बैठ गई। वो जानती थी राकेश का ग़ुस्सा वो बेचारी करे भी तो क्या..? उसका मन दुखी स्वर में कहने लगा राकेश को समझना चाहिए कितना छोटा बच्चा है हमारा रात भर जागकर उसको मैं ही देखती हूँ । कोई भी नहीं साथ उसके, जिसका सहारा मिल जाता । 

ऐसा नहीं की उसके ससुराल में कोई नहीं है सब ही है  सास ससुर दादी दादा ननद देवर जेठ जेठानी बच्चे भरा पूरा परिवार मगर सभी गांव के घर में थे । राकेश शहर की एक कम्पनी में नौकरी करता वो राकेश के साथ रहती राकेश स्वभाव गत गुस्से वाला बिना सोचे-विचारे क्रोधित हो जाता बच्चे को सम्भालना देख-रेख सभी रूपा की जिम्मेदारी राकेश को इससे कोई लेना-देना नहीं ससुराल में भी रूढ़िवादी माहौल पुराने रीति-रिवाज पूजा पाठ दादा दादी के रहते पर्दा करना होता सुबह नहा-धोकर ही रसोई घर में प्रवेश होता तो सासूमां ने कहा बच्चे के साथ गांव में परेशान हो जायेगी तो राकेश के साथ शहर भेज दिया ।

एक पत्नी क्या चाहती है उसका पति उसको सम्मान दे दूसरों के सामने दोस्तों के सामने इज्जत से पेश आये। मगर राकेश को अक्ल नहीं वो इज्जत तो दूर सबके सामने उसे झिड़क देता बुरा तो बहुत लगता रूपा को, मगर क्या करती सब सहना पड़ता उसे अनेक बार मन होता सब छोड़कर चली जाये मगर जाये तो कहां जाये। यहां कम से कम चैन की दो रोटी तो नसीब हो रही है उसको । वरना तो तानों को सुनने में ही जिन्दगी के अट्ठारह बर्ष कैसे बीते वो ही जानती है।

रूपा के माता-पिता तो उसके बचपन में ही परलोक सिधार गए थे। चाचा चाची ने देखभाल की माता पिता के न रहते भला कौन सगा हो सकता है.. बड़ी परेशानी की जिंदगी जी उसने एक बुआ थी साल में एक आध बार अपने घर बुला लेती लेकिन ऐसा लगता साल भर जमा किया काम रूपा के इन्तजार में स्वागत के लिए रखा हो। रजाई गद्दे चादरे झड़ाई बुहार धोकर सुखाकर तहकर रखना रसोई पौछना झाड़ना बुआ जितने दिन रखती सारा काम उसी से करवाती ।

 चाचा चाची ने इतना की उसे अनपढ़ तो नहीं रखा मगर ज्यादा पढ़ने भी नहीं दिया ले देकर बारहवीं तक शिक्षा दिलवा राकेश से विवाह कर दिया शौक तो बहुत था वो आगे पढ़े मगर चाची के आगे उसकी एक न चली। चाचा से कहती इसके माँ बाप खुद तो चले गये छोड़ गये इस बला को हमारे मथे ज्यादा पढ़ाने भेजा तो बहार की हवा लग जायेगी क्या भरोसा, भाग गई तो गाँव में थू थू हो जायेगी ? विवाह कर विदा करो इसे ।

वैसे तो राकेश सही था कोई अवगुण नहीं उसमें पर उसका व्यवहार रूपा को बड़ा अपरिचित सा लगता बेरूखा पन लिए हुए वो सुबह ऑफिस चला जाता रात तक लौटता रूपा धीरे धीरे घर के सभी काम करती रहती बाकी अपने बच्चे में व्यस्त ऐसे ही समय बीतता रहा ।

रूपा के साथ वाले फ्लैट में एक वृद्ध दम्पति रहते अक्सर रूपा आते जाते मुस्कुरा देती उनसे बोल लेती एक दिन वृद्ध महिला रूपा के पास कुछ मदद मांगने आती है वो उनकी मदद खुशी खुशी कर देती है । वृद्धा रूपा को बताती उनके कोई संतान नहीं है हम दोनों विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे पहले विश्विद्यालय कैम्पस में ही रहते थे। अवकाश प्राप्त हुए तो फिर ये फ्लैट खरीद लिया अब हम यहीं रहते हैं। रूपा कहती, आन्टी आप का समय कैसे कटता अकेले, वृद्धा कहती बेटा अकेले कहां…? बालकनी में थोड़े फूल पोधै लगा रखे बच्चों की तरह देखभाल करते हम उनकी समय कैसे बीतता पता ही नहीं चलता । 

  कभी कभी कुछ परिचित प्रोफेसर मित्र कभी अपने पुराने प्रिय विद्यार्थियों का आना-जाना हो जाता है। धीरे धीरे रूपा और वृद्ध दम्पति में अच्छा लगाव हो जाता है उसको उनका अपनापन एक मजबूत रिश्ते में बांध देता है। रूपा अपनी सभी खुशी, परेशानी उनको बताने लगती है। वो रूपा को समझाते बेटा इंसान की इज्जत खुद उसके हाथ में होती है।

  “ इज्जत कमाना जितना मुश्किल उसे गंवाना उतना ही आसान होता है “ । 

तुमको भी इज्जत तभी मिलेगी जब तुम अपना सम्मान खुद करोगी । 

बेटा राकेश तुम्हारी अहमियत नहीं समझता तुम्हारी इज्जत नहीं करता लेकिन फिर भी तुम उसे पूरा सम्मान देती हो तुम्हारा यह व्यवहार वर्ताव एक दिन उसे अहसास करायेगा वह एक दिन समझ जायेगा खुद की इज्जत के लिए दूसरे को पर्सनल स्पेस देना समझना चाहिए एक दिन उसे अपनी ग़लती पर पछतावा होगा।

वृद्धा रूपा से कहती बेटी जीवन में जितनी समस्यायें है उनके उतने समाधान भी है…तुम कुछ शौक रखती हो या कुछ काम में माहिर हो । रूपा बताती है वो सिलाई-कढ़ाई जानती है गाँव में सीखी थी उसने अड़ोस-पड़ोस के लोगों के कपड़े भी सिल दिया करती थी। वो कहती हैं तुम आगे और सीखों । रूपा मुन्ना की और देख कहती आन्टी इसके साथ मुश्किल होगा । वृद्धा कहती इसकी चिंता मत करो हम है यह हमारा खिलौना रहेगा इसके साथ हमारा भी जी बहल जाया करेगा । 

वृद्धा पास के सरकारी ट्रेनिंग सेंटर में रूपा का दाखिला करवा देती है । रूपा के काम से खुश वहां की प्रिंसिपल उसे वहीं सैन्टर में नियुक्त कर लेती है। समय के रहते रूपा के व्यक्तित्व में सुधार होने लगता है। उसमें सकारात्मक, आकर्षक बदलाव आने लगते हैं। उसमें अपनी ताकत, कमजोरियों को पहचानने की शक्ति आ जाती है। फिर वो और अधिक सीखने अपने ज्ञान को बढ़ाने के प्रयास में लग जाती है। वैसे भी जब व्यक्तित्व में विकास होता तो निखरना सम्भव ही होता है। रूपा की सहनशीलता रंग लाने लगती है।

“ इंसान को खुद से प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए खुद को पहले से बेहतर बनाने के चाह होनी चाहिए हम अपने आप में दूसरों से अलग है यही विविधता हमें दूसरों से अलग बनाती है “ ।

राकेश रूपा में होने वाले परिवर्तन को महसूस करने लगता है। वो चुम्बक की तरह उसकी तरफ खिंचता चला जाता है। उसे रूपा के गुण उसका महत्व समझ आने लगता है। 

 “ वैसे भी बाहरी सौन्दर्य की बजाय व्यक्ति के आन्तरिक गुण अधिक वरीयता पाते हैं “ । 

राकेश को अपनी कमियों का अहसास होने लगता है। वो उनको दूर करने का प्रयास में लग जाता है। रात को ऑफिस से लौटकर मुन्रा को भी खिलाता, संभालता उसके व्यवहार में बदलाव देख वृद्ध दम्पति बहुत खुश होते हैं । रूपा वृद्ध दंपति में माता-पिता के दर्शन करने लगती है और वृद्ध दम्पति रूपा और उसके बच्चे में अपने बच्चों के, राकेश भी उनका साथ पाकर बहुत खुश रहने लगता है । 

वृद्ध उनको समझाते हैं कहते है अपनों के खोने का डर जीवन के और क्षेत्रों में मन नहीं लगने देता वो चाहे जीवन साथी के खोने का डर हो या और किसी दूसरे रिश्ते का ..

कभी कभी दृष्टिकोण और मत अलग-अलग होने के कारण मतभेद मनमिटाव उत्पन्न हो जाते हैं जब एक साथ रहते तो विश्वास और स्नेह का रिश्ता जरुरी है । और उससे भी जरूरी हमसफ़र की अहमियत को समझना एक अच्छा जीवन साथी जीवन में प्रेम, सहयोग, विश्वास बनाए रखने में मदद करता है। सपनों को साकार करने, खुशहाल जीवन जीने में मदद करता है। 

राकेश कहते हैं- मैं आज हमसफ़र की अहमियत को अच्छे से समझ चुका हूँ ..चलो अब मैं अच्छी सी चाय बना कर लाता हूँ आप सब पीने के लिए तैयार रहिए। रूपा और वृद्ध दंपति के चेहरे पर विजयी मुस्कान नजर आने लगती है ।

  लेखिका डॉ बीना कुण्डलिया

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