आगरा की व्यस्त गलियों के बीच, राजा मंडी में एक तीन मंज़िला पुराना लेकिन मजबूत घर था, जहां शर्मा परिवार कई पीढ़ियों से साथ रह रहा था।
घर की सबसे ऊपरी मंज़िल पर दादी-जी रहती थीं—सफेद बाल, मुस्कुराती आँखें और कहानियों का खजाना।
बीच वाली मंज़िल पर रमेश शर्मा, उनकी पत्नी काव्या और दो बच्चे—ध्रुव और रिया का बसेरा था।
नीचे की मंज़िल पर रमेश का छोटा भाई रजत अपनी पत्नी पूजा और नवजात बेटी सिया के साथ रहता था।
यह एक असली संयुक्त परिवार था, जिसमें खट्टे-मीठे पल साथ-साथ जिए जाते थे।
सुबह की शुरुआत अक्सर एकसाथ होती थी। रसोई से आती चाय की खुशबू, रिया का स्कूल के लिए जल्दी-जल्दी तैयार होना, ध्रुव का बैग खोजते हुए चिल्लाना, और दादी-जी का अखबार पढ़ते हुए गुनगुनाना — यह सब रोज का दृश्य था।
एक दिन स्कूल से लौटते हुए ध्रुव ने रमेश से पूछा,
“पापा, मेरे दोस्त ने कहा कि वो न्यूक्लियर फैमिली में रहता है। उसका खुद का बड़ा कमरा है, उसकी अपनी टीवी भी है! हमारे घर में तो सबको बाँटना पड़ता है!”
रमेश मुस्कुराए, और ध्रुव को पास बिठाते हुए बोले,
“बेटा, उसके पास एक कमरा है, लेकिन हमारे पास पूरा परिवार है। जहाँ प्यार बाँटा जाता है, वहीं असली अमीरी होती है। अपने लोग हर खुशी-दुख में साथ होते हैं, ये सबसे बड़ा कमरा है — दिल का कमरा।”
ध्रुव कुछ सोचते हुए चुप हो गया, मानो वह इस नए नजरिए को समझने की कोशिश कर रहा हो।
शाम को पूजा रसोई में हलवा बना रही थी। तभी दादी-जी धीरे-धीरे चलते हुए आईं और मुस्कुराते हुए बोलीं,
“बहू, ज़रा मुझे भी सिखा दो, आज के हलवे का राज क्या है?”
पूजा हँसकर बोली,
“माँजी, आप सिखाएँगी तो स्वाद दोगुना हो जाएगा!”
दोनों मिलकर हँसते-हँसते हलवा बनाती रहीं। उस दिन हलवे में सचमुच कुछ खास मिठास थी — अनुभव और ताजगी का मेल।
त्योहारों पर यह घर किसी मेले जैसा दिखता। दीवाली पर सब मिलकर झाड़ू-पोंछा करते, रंग-बिरंगी झालरें सजाते, और रात में दीयों की रौशनी से घर दमक उठता। होली पर ध्रुव और रिया एक-दूसरे पर रंग डालते हुए हँसी के फव्वारे छोड़ते। यहाँ तक कि ईद पर भी दादी-जी खुद ‘शीर खुरमा’ बनाने की फरमाइश करतीं और पूरे मोहल्ले को दावत दी जाती।
एक बार रजत को ऑफिस के सिलसिले में दो महीने के लिए मुंबई भेज दिया गया। पूजा, नवजात सिया को लेकर थोड़ी घबरा गई।
काव्या ने उसका कंधा थपथपाया और कहा,
“चिंता मत कर बहन, तू अकेली नहीं है। हम सब साथ हैं।”
सच में, बच्चों की पढ़ाई से लेकर किचन का बजट, सिया की देखभाल से लेकर पूजा के आराम तक, सबने मिलकर संभाला।
दिन बीतते गए। घर का माहौल पहले जैसा हँसता-खिलखिलाता रहा। लेकिन अचानक एक दिन दादी-जी की तबीयत बिगड़ गई।
सुबह वह चक्कर खाकर गिर पड़ीं। सब घबरा गए। रमेश ने फौरन एम्बुलेंस बुलवाई। बच्चे दहशत में थे, पूजा रो रही थी, काव्या ने सबको संभाला।
अस्पताल पहुँचने पर डॉक्टर ने चेकअप कर कहा,
“इन्हें समय पर लाया गया, परिवार का प्यार और साथ ही इनकी सबसे बड़ी दवा है।”
यह सुनकर सबकी आँखों में आँसू थे — राहत के आँसू। दादी को कुछ दिन निगरानी में रखने के बाद घर लाया गया।
घर पहुँचते ही दादी-जी ने सबको अपने पास बुलाया।
कमजोर आवाज़ में लेकिन गहरी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा,
“बचपन से लेकर अब तक मैंने दुनिया में बहुत कुछ देखा है। बड़े-बड़े महल भी देखे, बड़े-बड़े लोग भी। पर जो सुख एक छत के नीचे अपनों के साथ जीने में है, वह कहीं नहीं।”
फिर उन्होंने सबका हाथ पकड़कर कहा,
“वादे करो, चाहे जैसे भी हालात हों, यह घर, यह प्यार, ये साथ कभी नहीं टूटेगा।”
सभी ने एक साथ सिर हिलाया। ध्रुव और रिया ने दादी से गले लगकर कहा,
“दादी, हम हमेशा एकसाथ रहेंगे।”
उस दिन घर की दीवारें गवाह बनीं — कि संयुक्त परिवार केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक जीती-जागती भावना है, जो मुश्किलों में ढाल बनती है और खुशियों में चार चाँद लगाती है।
आज भी जब राजा मंडी से गुजरने वाला कोई शख्स शर्मा निवास के सामने से गुजरता है, तो सुन सकता है
कभी बच्चों की हँसी, कभी दादी की कहानियाँ, कभी रसोई से आती मसालों की खुशबू — और सबसे बढ़कर, उस परिवार की आत्मा की गुनगुनाहट,
“हम सब साथ हैं।”
सर्वथा अप्रकाशित एवं मौलिक रचना
लक्ष्मी कानोडिया
अनुपम एंक्लेव किशन घाट रोड,
खुर्जा