हृदयहीन –    विभा गुप्ता  : Moral Stories in Hindi

  शकुन्तला जी ने अपने पति की तस्वीर के आगे दीपक जलाया तो आँखों से दो आँसू भी उनके गालों पर ढुलक गये।बोलीं,” आपके बिना ये मेरी पहली दीवाली है।सब कुछ सूना-सूना सा लग रहा है।आप कुछ साल और मेरे साथ रहते अगर…।अब अफ़सोस होता है कि मैं क्यूँ नहीं आपके अनबोलों को सुन पाई..क्यों नहीं आपकी आँखों की भाषा को मैं पढ़ पाई…।

        बस चार महीने पहले की ही तो बात है।शकुंतला जी के पति रामस्वरूप जी सुबह की सैर करके लौटे थे।थके हुए स्वर में उनसे बोले,” एक गिलास पानी पिलाना।” पानी लेकर आईं तो पति के चेहरे पर पसीने की बूँदें देखकर बोलीं,” आज कुछ ज़्यादा ही चल लिये हैं क्या..थके-थके से लग रहें हैं और पसीना भी आ रहा है।”

  ” कुछ अच्छा नहीं लग रहा था शकुंतला..इसीलिए आज बेंच पर ही बैठा हुआ था..अपना दयाल है ना…उसी के बेटे से बात करता रहा था..यहाँ तक वही छोड़ गया है।” पानी पीते हुए रामस्वरूप जी बोले।

  ” तो बस, अब आप आराम कीजिये..मैं अदरक वाली चाय बनाकर लाती हूँ..दोनों साथ में बैठकर पीते हैं..।” कहते हुए शकुंतला जी रसोईघर में चलीं गईं।उन्होंने गैस पर चाय का पानी चढ़ाने और चायपत्ती डालने के लिये डिब्बा खोल ही रहीं थीं कि उन्हें रामस्वरूप जी की चीख सुनाई दी,” शकुंतलाsssssssss।”

 ” आई…।”चाय का डिब्बा उनके हाथ से छूट गया..गैस का नाॅब बंद करके वे ड्राइंग रूम की ओर भागी।अपने दाहिने हाथ से सीने को जोड़-से भींचकर रामस्वरूप जी कराह रहें थें।उनके मुँह-से निकल गया,” ज़रूर कुछ उट-पटाँग खा लिये होंगे..जीभ पर कंट्रोल तो…।” रामस्वरूप जी ने हाथ से हाॅस्पीटल फ़ोन करने का संकेत किये तो वो सचेत हुईं और उनके मोबाइल फ़ोन से हाॅस्पीटल फ़ोन किया।एंबुलेंस में वो पति का हाथ थामे बैठी उन्हें सांत्वना देती जा रही थी,” मैं हूँ ना..आपको कुछ नहीं होगा..शायद कुछ बदहज़मी हो गई होगी..हाँ-हाँ..अंकुर और अराध्या बेटी को फ़ोन कर दी हूँ…आप कुछ मत सोचिये..।”

      डाॅक्टर ने रामस्वरूप जी चेकअप किया और शकुंतला जी को बोले,” दिल का दौरा पड़ा है..समय कम है..अपने बच्चों को बुला लीजिये..।”

     ” दिल का दौरा!…।” कमरे में जाकर पति का हाथ पकड़कर वो रो पड़ीं,” आपको तो मैं हृदयहीन कहती थी….फिर ये कैसे…।” रामस्वरूप जी ने उनकी तरफ़ अंतिम बार देखा और हमेशा के लिये अपनी आँखें बंद कर ली।उनकी छाती पर सिर रखकर शकुंतला जी फूट-फूटकर रोने लगी।

       विवाह के बाद जब शकुंतला जी ससुराल आईं तो सास-ससुर से उनकी खूब बातें होती थीं लेकिन जब अपने कमरे में आतीं तो उनके पति हाँ-हूँ में उन्हें जवाब देकर चुप हो जाते थे।एक सप्ताह बाद रामस्वरूप जी अपने कार्यस्थल पर चले गये और दो महीने बाद आकर पत्नी को भी अपने साथ ले गये।

      रामस्वरूप जी के दफ़्तर चले जाने के बाद शकुंतला जी घर की साफ़-सफ़ाई और खाना बनाने में व्यस्त हो जातीं। फिर शाम को जब पति लौटते तो उनके साथ चाय पीती लेकिन दोनों के बीच बातें बहुत कम होती थीं।शकुंतला जी ही अपनी बात कहती और वो चुपचाप सुनते रहते।एकाध बार सिनेमा ले जाने को कहा तो रामस्वरूप जी टाल गये तो वो क्रोधित होकर बोलीं,” बात भी कम करते हैं और सिनेमा भी नहीं ले जाते..तो फिर शादी क्यों की..सभी अपने पति के साथ घूमने जातीं हैं..एक मैं ही..।” जवाब में रामस्वरूप जी बस मुस्कुरा देते जैसे कि उन्होंने सारे जवाब दे दिये हों।

      डेढ़ बरस बाद शकुंतला जी एक बेटे की माँ बन गई।उसके दो साल बाद एक प्यारी-सी बेटी भी उनकी गोद में आ गई।

     बेटे अंकुर का दसवाँ जन्मदिन था।अंकुर के सभी दोस्त आ चुके थे.. शकुंतला जी पति की राह देख रहीं थीं कि वो आये तो केक काटे।दफ़्तर से मालूम हुआ कि वो तो एक घंटा पहले ही जा चुके हैं तो फिर घर अभी तक क्यों नहीं आये..लापरवाही की भी हद होती है..।घड़ी की सुईयों को आगे बढ़ते देख उन्होंने केक कटवा दिया..।पार्टी खत्म होने के आधे-पौन घंटे बाद रामस्वरूप जी घर आये तो अंकुर ने ‘पापा’ कहकर नाराज़गी ज़ाहिर की।रामस्वरूप जी कुछ कह पाते तब तक में शकुंतला जी आ गईं। उन्होंने बेटे-बेटी को कमरे में भेज दिया और पति पर अपना सारा गुस्सा उतार दिया,” बच्चों की इच्छाओं की तो आपको ज़रा भी कद्र नहीं है..न हमें कभी सिनेमा दिखाया और ना ही कहीं घुमाने ले गये…तीज़-त्योहारों की खरीदारी में भी आप कंजूसी करने से बाज़ नहीं आते…साल में एक बार तो बच्चे का जन्मदिन आता है..उस दिन भी समय पर आना आपने उचित नहीं समझा..।बेटे का दिल तोड़कर आपको क्या मिला..।वैसे भी आपके पास दिल होगा तो तब न समझेंगे…।” अपने मन का सारा गुबार निकालकर शकुंतला जी ने पति के सामने खाने की थाली पटकी और बच्चों को लेकर सोने चली गईं।रामस्वरूप जी ने चुपचाप मुँह-हाथ धोकर खाना लिया और सोने चले गये।

     अगले दिन भी शकुन्तला जी मुँह फूला ही रहा लेकिन रामस्वरूप जी हमेशा की तरह ही उनसे बोले,” शकुंतला..ज़रा एक कप चाय तो पिलाना।” बस ऐसे ही रूठते-मनुहार करते और छोटी-बड़ी शिकायतों के साथ दोनों की ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ती रही।

        इंजीनियरिंग पास करके अंकुर नौकरी करने लगा।बेटी अराध्या भी सयानी हो गई थी।शकुंतला जी ने अपने ही एक परिचित के बेटे सिद्धार्थ के साथ उसका विवाह तय कर दिया और पति से विवाह का बजट दिखाती हुई बोलीं,” इतना खर्च तो आपको करना ही पड़ेगा…।” तब रामस्वरूप जी धीरे-से बोले,” देखो…अपने लिस्ट में पाँच-आठ-बारह- अठारह को हटा दो..इसकी जगह हम बेटी-दामाद को कुछ फिक्स करा देंगे…।” सुनकर वो आग बबूला हुईं, पति को ‘कंजूसी की हद होती है’ के ताने मारे और कह दिया कि सारा पैसा छाती पर लादकर ले जाना।

       बेटी विदा होकर ससुराल चली गई।साल भर बाद माँ की पसंद की हुई लड़की से अंकुर ने विवाह कर लिया।शकुंतला खुश थी कि बेटे-बहू आँखों के सामने हैं।वो भूल गईं थीं कि अब सास-ससुर वाले परिवार में बहुएँ रहना नहीं चाहतीं।दो-तीन महीने बाद ही सास-बहू में खटपट शुरु हो गई और फिर एक दिन अंकुर ने ही कह दिया,” माँ..यहाँ से ऑफ़िस दूर पड़ता है…सोचता हूँ कि ऑफ़िस के पास ही..।”

  ” साफ़ कह न कि तेरी पत्नी हमारे साथ नहीं रहना चाहती…।” 

   ” शकुंतला..शांत हो जाओ…बच्चों की खुशी में ही तो अपनी खुशी है..।”

 ” हाँ- हाँ..आप तो यही कहेंगे ही..माँ की ममता को आप क्या समझे…।

     रामस्वरूप जी कुछ नहीं बोले…अंकुर पत्नी संग दूसरी जगह शिफ़्ट हो गया।फ़ोन पर बात कर लेता..छुट्टी के दिन आकर माता-पिता से मिल भी लेता था।अराध्या दूसरे शहर में रहती थी परन्तु त्योहारों पर वो भी आ जाया करती थी।

     कुछ दिनों से रामस्वरूप जी अस्वस्थ रहने लगे थे..तब उन्होंने समय से छह महीने पहले रिटायरमेंट ले ली और पत्नी से बोले,” अब आराम से बैठकर तुमसे जी भरकर बातें करुँगा..।सेहत में सुधार हो जाये तो शकुंतला.. तब जहाँ कहो..वहाँ तुम्हें घुमाने ले जाऊँगा।” तब शकुंतला जी ने व्यंग्य किया,” आप तो बस रहने ही दीजिए..उम्र भर तो कंजूसी करके अपनी मनमानी करते करे..एक सिनेमा तक तो कभी दिखाया नहीं..अब घुमाने का ख्याली पुलाव..।”

     रामस्वरूप जी के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा तो वो कुछ दिनों से सुबह की सैर के लिये पार्क में जाने लगे।उस दिन सैर से लौटे तो उन्हें बेचैनी-सी महसूस होने लगी।पत्नी से पानी माँगे..शकुंतला जी चाय देने की सोची..तब तक में तो…।

    ” माँ…।” अंकुर की आवाज़ सुनकर वो बेटे के गले लगकर बोलीं,” देख ना..तेरे पापा मुझे अकेला छोड़कर चले गये…ये भी नहीं सोचे कि इनके बिना मैं कैसे…।” 

  ” माँ.. शांत हो जाइये…।” कहकर अंकुर ने पत्नी को उन्हें बाहर ले जाने को कहा और हाॅस्पीटल की सारी औपचारिकताएँ पूरी करने लगा।

        शाम तक में अराध्या भी अपने परिवार के साथ आ गई।बेटी को देखकर शकुंतला जी के आँसू फिर से बहने लगे।अंत्येष्टि और उसके बाद के सारे काज पूरे होने के बाद रिश्तेदार जाने लगे।अराध्या भी माँ को सांत्वना देकर चली गई।कुछ दिन बाद अंकुर भी बोला,” माँ…अब मैं भी चलूँगा…आता-जाता रहूँगा पर आप खुद भी अपना ख्याल रखियेगा..।और हाँ माँ…पापा की अलमारी में ये डायरी रखी थी…।” कहते हुए उसने एक नीली डायरी शकुंतला जी को थमा दी।

      कल तक यही घर रामस्वरूप जी के रहने से कितना गुलज़ार रहता था और आज एकाएक उनके चले जाने से कितना वीरान हो गया था।शकुंतला जी पति की तस्वीर को निहार रही थी, तभी उन्हें डायरी का ख्याल आया तो उसे खोलकर पढ़ने लगी, दिनांक-……, मेरी शकुंतला, सिनेमा न दिखाने पर तुम नाराज़ हो गई पर प्रिय..वहाँ जाकर तो तुम चुप रहती…मैं तो तुम्हारे हाथ की चाय पीते हुए तुम्हारी बातें सुनने का आनंद लेना चाहता था।

दिनांक….., शकुंतला..पति-पत्नी का रिश्ता कोई नुमाईश की चीज़ नहीं है, उसे तो आत्मा से महसूस किया जाता है।

दिनांक..शकुंतला, तुमने ठीक कहा कि मैं कंजूस हूँ लेकिन अपने लिये…तुम्हारे और बच्चों की ख़्वाहिशों को पूरी करने का मैंने पूरा प्रयास किया है।मेरी दुनिया तुमलोगों से शुरु होकर तुम लोगों पर ही खत्म हो जाती है।अपनी सीमित आय को घूमने में खर्च करता तो अंकुर की पढ़ाई में कठिनाई आती..हाथ पसारना मुझे पसंद नहीं…ये तुम जानती हो।

  दिनांक…अंकुर के जन्मदिन पर मैं ऑफ़िस से निकल ही रहा था कि रामदीन के घर से फ़ोन आ गया कि उसका बेटा गिर गया है।बस मैं उसे ही मोटरसाइकिल पर बैठाकर अस्पताल चला गया।यही बात कहना चाह रहा था लेकिन…।मेरी गलती थी कि पहले तुम्हें बताया नहीं..सो तुम्हारा गुस्सा करना उचित था।

 दिनांक…तुम्हारे भाई की शादी थी…मैं नहीं आ सका क्योंकि एक दिन पहले ही मुझे पहला हार्ट-अटैक आया था..रामदीन मेरे साथ ही रहा था।तुम बड़े उत्साह से शादी में गई हुई थी..बताकर तुम्हें दुखी नहीं करना चाहता था…बच्चों का भी मन दुखी हो जाता।शकुंतला..तुम्हारा गुस्सा मुझे मंजूर है लेकिन तुम्हारे चेहरे पर उदासी नहीं…।” 

” हे भगवान! ये मुझसे क्या अपराध हो गया।मैं अपने ही पति को….।” शकुंतला जी की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे।रोते-रोते वो आगे पढ़ने लगी, दिनांक…शकुंतला..अराध्या के विवाह में बेशक मैंने दिखावा नहीं किया लेकिन बेटी-दामाद के नाम एक निश्चित रकम फिक्स कर दी है..तुम खुश हो ना..।

  दिनांक…शकुंतला..अस्वस्थता में मुझे तुम्हारी फ़िक्र होने लगी थी, इसलिए कुछ एफडी करवा दी है..तुम्हें कभी तकलीफ़ नहीं होगी।

 दिनांक….आज बहुत अच्छा लग रहा है..ये देखो..टिकटें ले आया हूँ..हरिद्वार की…अब तुम्हारी सारी शिकायतें दूर हो जायेगी..।शकुंतला जी की नज़र टिकट पर पड़ी…उस पर अगले महीने की तारीख थी… वो फूट-फूटकर रो पड़ी।उन्हें रह-रहकर अफ़सोस हो रहा था कि काश! वो अपने पति की मौन शब्दों को पढ़ लेती…उनके समर्पण को समझ पाती..।पति को हृदयहीन कहती रहीं लेकिन सच तो यह है कि दिल उन्हीं के पास नहीं है…होता तो  पति के मन की बात को न जान लेती…।अपने पति की दुश्मन तो वो खुद बन बैठी..मेरे देवता..मुझे क्षमा करना…।

      पिछली दीवाली पर आप मेरे साथ थे और आज…।

” मालकिन…बाहर दीये जला दूँ या..।” उनके नौकर ने पूछा तो शकुंतला जी की तंद्रा टूटी।धीरे-से बोलीं,” एकाध जला दे….।” फिर अपने पति की तस्वीर को निहारना लगीं जैसे कह रहीं हों, आपके बिना अब कैसी दीवाली….।

                           विभा गुप्ता 

# अफ़सोस        स्वरचित, बैंगलुरु 

            महिलाएँ अक्सर अपने पति को कहतीं हैं कि आपके पास दिल नहीं हैं पर ये सच नहीं हैं।आँकड़े बताते हैं कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों को हृदयाघात अधिक होता है।पति को भी दर्द होता है , बस वो कह नहीं पाते हैं।उनकी मौन भाषा को समझे ताकि वो दीर्घायु रहे..शकुंतला जी की तरह अफ़सोस न करना पड़े।

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