करवा चौथ की गहमा-गहमी में राधा कुछ ऐसा उलझी की पूछो मत। हाट-बाजार गहने कपड़े ।सोसायटी में सबसे सुंदर ,धनवान विशेष पिया की प्यारी साबित करने का होड़ मचा हुआ था।
आज सभी सखियां सामूहिक रुप से मेंहदी लगवा रही थी। एकसाथ गपशप भी हो जाती आपस में तैयारियों का जायजा भी लिया जाता और मेंहदी लगाने वालों की इकट्ठी कमाई भी हो जाती।
साधारण सी कपड़े की फैक्टरी थी ।उसमें मातहत परिवारों की स्त्रियां और कुछ साथ मनावै या नहीं करवा चौथ की पूजा इकट्ठे करतीं। कथा सुन चांद देख अपने-अपने घर जाकर व्रत खोलती।
“अरे मीरा नहीं आई, मेंहदी लगवाने “
कोई बुलाने गया. “यह क्या वह मुंह ढांपे लेटी हुई है.. चलो मेंहदी लगवा लो। “
“नहीं “
“आखिर क्यों चलो आओ”स्त्रियां उसे खींच लाई।
मीरा इस कालोनी में कुछ दिन पहले ही आई थी। असंतुष्ट स्वभाव की मीरा अपने पति से सदैव कोई न कोई मांग करती रहती। बाल-बच्चे थे नहीं। बात-बात पर झगड़ना उसकी फ़ितरत था। सीधा-सादा स्वाभिमानी पति के सीमित कमाई पर उसे भला-बुरा कहना मीरा की आदत बन चुकी थी।
आज भी उसने शर्त रखी थी “हीरों का हार लेकर आओगे तभी घर में घुसना। “
“मजाक है क्या इतना पैसा मैं कहाँ से लाउंगा। बड़ी मुश्किल से यह नौकरी हाथ लगी है! “
“मुझे इस करवाचौथ पर हीरों का हार चाहिये तो चाहिये! “
“धैर्य रखो आ जायेगा हीरों का हार भी। “पति ने चिरौरी की।
किंतु मीरा को तो बहाना चाहिए था रोती सुबकती बिस्तर पर पड़ गई। पति भूखा काम पर चला गया।
उसके जाने पर चटोरी मीरा ने हलवा बनाया और चट कर गई ।
दिन बीता रात आई। औरतों के साथ बातचीत मेंहदी लगवाने से उसका मन हल्का हो गया। पति की याद सताने लगी। करवाचौथ व्रत पर मीरा बेसब्री से पति का इंतजार करने लगी। रात बीत गई।
सुबह आंखें खुली पति अभी भी नहीं आया। फोन लगाने लगी नाट रिचेबुल बताने लगा।
मीरा बुझे मन से करवाचौथ की तैयारी करने लगी। उपवास भी रखा। मन में कहीं विश्वास भी उसका जोरु का गुलाम पति हीरे का हार लेकर ही लौटेगा।
सुबह से शाम हो गई। पति का कहीं अता-पता नहीं था। नहीं आना था सो नहीं आया। कालोनी की स्त्रियां अपने अपने सामर्थयानुसार दुल्हन के जोडो़ में तैयार होकर इकट्ठा होने लगी। बच्चों की धमाचौकड़ी से चहल-पहल बढ़ गया था।
किसी स्त्री के पास कीमती गहने-कपड़े न थे लेकिन पतियों की लंबी उम्र सुख-शांति के लिये व्रत रखने का अद्भुत चमक चेहरे पर था। वे अभाव में भी अतिप्रसन्न थी। उनके पति उनपर वारे-न्यारे हुये जा रहे थे। उनकी दाम्पत्य प्रेम ने मीरा के ओछे विचारों को जोर का झटका दिया।अगर मेरा पति ही घर नहीं आया तो मैं इन गहनों कपडो़ विलासिता का समान लेकर क्या करुंगी।
मैं सिर्फ गहनों कपड़ों के लिये पति की भावनाओं को ठेस पहुंचा खुश होती रही। सास-ससुर ससुराल को कभी अहमियत नहीं दी। समझती थी छल-प्रपंच त्रियाचरित्र से पति को वश करना ही सही है जबकि अपनी करनी से वह सबके नजरों से गिर चुकी थी। फिर भी उसका शरीफ पति सब बर्दाश्त कर निभाये जा रहा था। वह आत्मग्लानि से क्षुब्ध हो उठी।
“मैं भी कैसी मूर्खा हूं अपने निष्ठावान पुरुषोत्तम पति को बिना कारण कटु वचनों से छलनी करती हूं। अब पूजा का समय हो गया मैं स्त्रियों को कौन सा मुंह दिखाउंगी। क्या कहूंगी कि हीरे के हार के लिये पति को घर से निकाल दिया है। हे ईश्वर मेरी लाज रखो। मेरे पति की रक्षा करना!”
भूख-प्यास पश्चाताप उत्तेजना से वह मूर्छित गिर पड़ी। होश आया तो पति के बांहों में पाया, “साॅरी मैं हार नहीं ला पाया। “
अपने व्यवहार के लिये क्षमा मांगती मीरा बोल पड़ी. “मेरे सच्चे हीरों के हार आप हैं मैं बहक गई थी। “
फिर दोनों करवाचौथ मनाने चल पड़े ।पति का निस्तेज चेहरा खिल उठा । उसने प्यारी पत्नी को गले लगा लिया इस करवाचौथ ने उनकी अव्यवस्थित गृहस्थी में प्रेम विश्वास का उजाला भर दिया।
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