कल पितृ दिवस था । पापा को याद करते फिर आँखे भर आई उसकी।जब भी उनको याद करती एक टीस मन में कसक के रह जाती ।एक ही आवाज निकलती उसके मन से “पापा मुझे माफ कर दो आपके अंतिम समय में आपके पास रहकर कुछ समय क्यों नहीं बिता सकी ।
माना कि घर की जिम्मेदारियां थी लेकिन उन जिम्मेदारियों को पूरा न कर पाने का वो अपराध बोध तो न होता जो अब ले कर जी रही है वह।” काश उसने आखिरी समय उनके साथ बिता लिया होता!! अपने पापा के साथ ।
उसके जीवन में आने वाले दोंनो महत्वपूर्ण पुरूषों का व्यक्तित्व ,स्वभाव बिल्कुल ही पृथक था । उसके जीवन के सबसे पहले पुरूष उसके पापा इतने केयरिंग ,इतने लविंग इतने इमोशनल जहान का सारा प्यार जैसे समेट के उस पर उड़ेल देते ।
मम्मी कभी कभी खीझ जाती पापा के अतिशय अतिरंजित लाड़ प्यार से क्योंकि उनकी डाँट उसको बुरी लगती ।पापा के आने पर रूठी रहती कि मम्मी ने डाँटा ,पापा फँस जाते न तो लाडो को रूठा हुआ देख सकते न ही पत्नी की क्रोध का शिकार होने का जज्बा ।
मम्मी का भी प्यार कम नहीं था लेकिन संतुलित जैसा कि माँ का होता है बच्चों के लिए लेकिन पापा का अलग ही था ।वह सही मायनों में ही पापा की परी थी। बचपन में ही माता पिता का साया सर से उठ जाने पर एक अभिशापित बच्चे का जीवन जिया था पापा ने ।
विवाहित बहन ने पाला जरूर लेकिन एक बोझ की तरह । घर का नौकर और अपने बच्चों के केयर टेकर बनाकर भी उन्हें एक प्रताडित जिन्दगी ही मिली पता नहीं कैसे टाट पट्टी वाले स्कूल जाकर भी अपने आप को ऐसे मुकाम पर पहुँचा दिया जिससे देखने वाले दंग रह गए।
अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर सरकारी नौकरी भी मिल गई और पहली तनख्वाह मिलने पर बहुत सालों बाद भर पेट खाना खाया ऐसा कहते थे वो ।
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जिन्दगी में किसी का प्यार मिल नहीं सका ,शादी हुई तो विचार पत्नी से अधिक मेल नहीं खाए ,लड़के लड़को की तरह ही कभी बात मानी, कभी की मनमानी वाले ,एक बेटी ही थी सब बात मानने वाली ,प्यार करने वाली ,पापा के आगे पीछे घूमने वाली तो उन्होंने भी अपने सारे रिश्तों की धुरी उसे ही बना दिया ।
पापा का बेहद लगाव सबकी नजरों में आ ही जाता ।जाने अनजाने वह इसी कारण भाईयों के ईर्ष्या का कारण बनती जा रही थी ।अपने रिश्तेदारों के भी डाह के केन्द्र में रहती।उसे याद है जब उसे टाइफायड हो गया था और वह लगभग बीस दिन बिस्तर पर ही रही ।
मई जून की चिलचिलाती धूप में लंच टाइम में वो साईकिल से केवल उसे देखने आते थे जबकि शाम को छै बजे छुट्टी हो भी जाती थी ,तब भी।तब ये बातें कितनी साधारण लगतीं थी क्योंकि इसी तरह की आदत पड़ गई थी उसे लेकिन शादी के बाद पता चला कि पुरूष उनसे बिलकुल अलग भी होते हैं ।
पति तो बिल्कुल ही केयरिंग नहीं मिले उसे ।पहले पहले अजीब भी लगता लेकिन बीमारी में तो खल के रह जाता ।प्रेग्नेंसी के दौरान उल्टियों की अत्यधिक शिकायत की वजह से खाना पीना बिल्कुल दुश्वार हो गया था ।
सारा दिन निराहार बीत जाता और महाशय आकर एक दो बार कहते बस कि कुछ खा लो ,फल ले लो लेकिन वो चिन्ता ,वो केयर ,वो बैचेनी जिसकी उसे बचपन से आदत थी ,उसका तो लेशमात्र भी नहीं दिखता ।
और भी कभी बीमार हो जाती तो डाॅक्टर के पास जबरदस्ती ले जाने की बजाए यही कहते कि “हिम्मत न हो तो खाना न बनाना बाजार से ले आऊँगा” और बस कर्तव्य की इतिश्री हो जाती लेकिन अब क्या करे हर पुरूष पापा तो नहीं हो सकता ना।
पापा से ही उसको साहित्यिक पुस्तके पढ़ने और लिखने के संस्कार मिले थे।वहाँ की एक प्रतिष्ठित लाइब्रेरी में उसका रजिस्ट्रेशन करा दिया था ,वहीं से प्रेमचन्द ,शरतचन्द्र ,अमृता प्रीतम,मन्नू भंडारी मालती जोशी ,कमलेश्वर आदि सभी के उपन्यास ,कहानियाँ चाट डालीं थीं।
पढ़ते पढ़ते लिखने का भी शौक हिलोरें लेने लगा । अगर कभी एक कविता भी लिखती तो पापा गर्व से फूले नहीं समाते देखो “मेरी बच्ची ने खुद लिखा “।
उसे याद है कि शादी के बाद जब उसकी पहली कहानी मैगजीन में छपी और उसने फोन पर पापा को बताया तो उन्होंने भगवान जी को भोग लगाया बहुत-बहुत शुभकामनायें दीं और भावुकता में रो भी पड़े ।
जब उनसे साक्षात मिली थी तो उन्होंने पहली कहानी के शगुन के तौर पर ग्यारह सौ रूपए भी दिए थे और पतिदेव का तो साहित्य या लिखने पढ़ने से दूर दूर तक वास्ता नहीं था ।उन्होंने देखा और शाबासी दी लेकिन कहानी पढ़ी नहीं ।खटक के रह गया उसको लेकिन क्या करे हर पुरूष पापा तो नहीं हो सकता ना।
उसे याद है जब भी वह मायके जाती,पापा वहाँ की हर जगह की खाने पीने की चीजों को ला लाकर उसे जबरदस्ती मान मनुहार से खिलाते हर दम चहकते रहते लेकिन जब पति का फोन आ जाता कि अमुक दिन लेने आ रहा हूँ तो ऐसे मलिन क्लांत हो जाते मानो उज्जवलित आकाश पर काले मेघ छा गए हों ।
छोड़ने आते तो चलती ट्रेन के साथ साथ तक रोते जाते जबरदस्ती उनका हाथ छुड़वाना पड़ता खिड़की से । डिब्बे की सब महिलाएँ सुबक उठती ,रश्क करतीं और जब यहाँ से जाती तो पति बाय कह कर हाथ हिला देते स्टेशन पर , मन में कहीं कुछ टूटता ,किरचता लेकिन क्या करें हर पुरूष पिता तो नहीं हो सकता ना।
पूनम अरोड़ा
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