हमारी याद – रमन शांडिल्य

“अरे! बेटा दीपू ! देखो कौन आया है , किसने डोर बैल बजाई है ।” दीपू आठवीं में हो गया है, मेरे कंधे से ऊपर जा चुका है, हां थोड़ा कमजोर जरूर है सेहत में भी, पढ़ाई में भी और घर के कामकाज में भी । मगर उसका सारा दिमाग और ध्यान फोन में जरूर लगता भी है और रमता भी है । ऑनलाइन विंडो शॉपिंग, gift ऑर्डर, ऑनलाइन गेम्स, चैटिंग ये सब उसकी पसंद वाले काम हैं ।

लेकिन अगर आप गलती से एक गिलास पानी मांग लो तो बंगले झांकने शुरू कर देता है । दस बार उसको कहने पर कभी कुछ करा भी लो तो उसको तुरंत सभी तरह के दर्द उभर आते हैं ।

मैं अभी दीपू की टालमटोली का इंतजार कर ही रहा था कि मेरी धर्मपत्नि मालिनी किचन से  चिल्लाई, “नहीं ! नहीं जाएगा दीपू गेट खोलने, तुम खुद जाओ । क्या पता कौन आया हो गेट पर । फिर दीपू को  क्या पता कि किस आदमी से क्या बात करनी है । छोड़ो फोन और खुद देखो कौन आया है ।

और हां ! अगर सोसाइटी की तरफ से आज शाम की पार्टी के लिए कोई मुझे इन्विटेशन देने आया हो तो उसको कह देना कि मैं जरूर पहुंच जाऊंगी ।”

मैं भीतर ही भीतर बड़-बड़ करता हुआ मेन गेट की तरफ बढ़ते हुए सोच रहा था कि बच्चों को कुछ सीखना चाहो तो माताओं की अपने बच्चों को लेकर असुरक्षा बीच आड़े आ जाती है । फिर जब बच्चे घर आए मेहमान और रिश्तेदारों को अभिवादन तक नहीं करते तो यही माताएं, जो अपने बच्चों को असुरक्षा के भाव के चलते चिपकाए रखती हैं,  सबसे पहले कहती सुनाई पड़ेंगी, “तुम्हारी औलाद है कुछ  सिखाया भी तो करो इनको । घर में कोई भी बाप इतना बड़ा अफसर नहीं होता जितने बड़े तुम बन जाते हो । बच्चों के साथ कब कैसे व्यवहार करना है पता ही नहीं ।”

खैर मैं गेट पर पहुंचते हुए सोच रहा था कि इस भरी दोपहरी में सोसाइटी से कोई रईसजादी इन्विटेशन देने तो शायद ही आई होगी ।

ऐसे में या तो कोई मांगने वाला या कोई बहुत  जरूरतमंद ही आया होगा ।

मैंने बड़े अनमने मन से दरवाजा खोला तो । पसीने में बुरी तरह लथपथ बाबू जी थे । अभी पिछले दिनों ही सत्तर बरस के हुए थे ।

लेकिन जिद्द इतनी कि चाहे मैं कितना भी कह लूं कि अब मेरे पास रह लिया करो, पांच कमरों के मकान को मैंने आपके और मां की सुविधा एवम् आराम के लिए  ही तो लिया था ।

मगर, नहीं । उनको तो उनकी तंग गली और पुराने मकान में ही रहना है ।

और तो और , मां का मन कुछ दिन हमारे पास रहने का करे भी तो मां को भी नहीं टिकने देते ।

अभी पिछली बार भी साइकिल पर आए पुराने घर से पांच किलोमीटर साइकिल चला कर केवल इसलिए कि मंदिर से जो प्रसाद मिला था – एक पेड़ा, वो मुझे खिलाना था ।



तब उस दिन भी मैंने बाबू जी को कहा था , “बाबू जी! अब आपके बेटे के पास बड़ी गाड़ी है, बड़ा रुतबा है अब

आप साइकिल चलाना छोड़ दो ।” मगर मानते ही नहीं, शायद इसलिए कि

बच्चे मां – बाप को हमेशा बच्चे ही दिखाई देते हैं ।

उस दिन भी बाबू जी ने मेरे आग्रह को बस यही कह कर टाल दिया था कि “बेटा तेरी गाड़ी से तो मेरी साइकिल अच्छी, मुझे चलता – फिरता रखती है  । और अब तो वैसे भी चले जाने का समय आ ही गया है, और रास्ता भी तो पूरा हो गया है, जीवन यात्रा ही तो है और यात्रा में घर जैसा सुख नहीं होता । बेटा अब हम मुसाहिर हैं, कब तक टिके रहेंगे इस खंडहर  सराय में । “

बाबू जी को देख मुझे यही लगता कि किस मिट्टी के बने हैं, हमें पढ़ाने के लिए हमेशा कर्ज में रहते थे मगर अब जब हमारा सामर्थ्य हुआ बाबू जी को कुछ आराम देने का, तो जरा सा भी मौका नहीं देते कि हम उनके हम पर कर्ज की एक पाई सूद भी हम उतार दें ।

हां!

बस एक बार जब नई गाड़ी खरीदी थी तब कहा था, ” बेटा हरिद्वार गए बहुत दिन हो गए , तेरी मां कई बार उलहाना दे देती है ।”

उस दिन मुझे बड़ा सुकून मिला था उस यात्रा में उनके साथ ।

मगर हरिद्वार की उस यात्रा से वापस आने के बाद बाबू जी को फिर वही तंग गली, वही पुराना मकान और वही पुरानी साइकिल ही भायी हम नहीं ।

मैं अपने मन को टटोलते हुए खो चुका था खुद में ।

मैं भूल ही गया था कि मैं गेट पर खड़ा हूं ।

तभी बाबू जी की आवाज़ कानों में पड़ी तो मैं चौंका,

“अरे ! दिवाकर बेटा ।कहां खोए खोए से हो, ऑफिस में ज्यादा काम हो तो, ज्यादा काम करो, मगर बोझ समझ कर नहीं ।

और तबीयत ठीक नहीं है तो थोड़ा आराम करो ।  एक दो दिन घर में रहो, यार दोस्तों संग बातें करो , सब ठीक हो जाएगा ।”

बाबू जी शुरू हो गए थे, अब उनको कोई नहीं रोक सकता था । स्कूल में डंडा परेड के दिनों के शिक्षक थे । स्कूली बच्चों को अपने बच्चे समझ कर भाषण और डांट दोनों जी भर पिलाते थे ।

मैं कुछ उत्तर देता उससे पहले ही बोले,

“आज घर में भीतर आने के लिए नहीं कहोगे क्या ? अरे भाई ! आज दोपहर में आया हूं आराम करने के समय में तो मत सोचना कि दोबारा तवा चढ़ाना पड़ेगा बहुरानी को ।



दिवाकर बेटा ! आज तेरी दादी का श्राद्ध था तो तेरी मां के हाथ का खाना-वाना सब खा कर आया हूं । बहुरानी को बोल देता हूं कि तकलीफ न उठाए, कुछ बनाने की ।

आखिर बहुरानी को भी तो दिन में आराम चाहिए, सारा दिन लगी रहती होगी नौकर चाकरों के साथ । और आजकल कौन नौकर भरोसे का रह गया है ? बिना संभाले कोई काम नहीं करता । नौकरों पर नजर बना कर रखनी ही पड़ती है, तब जा कर घर घर सा लगता है साफ – सुथरा ।”

बाबू जी बोले जा रहे थे और मैं सुनता ।

तभी मैंने देखा कि बाबू जी के हाथ में बड़ा सा, झीने से कपड़े का थैला है, ठीक वैसा ही जैसा कभी मैं मेरी दूसरी क्लास में ले जाया करता था तख्ती डाल कर ।  मां ने ही सीला होगा किसी पुरानी चादर को काट कर ।  मुझे इस थैले में कोई फोटो फ्रेम सा दिखाई दे रहा था ।

घर के भीतर घुसते हुए, बाबू जी पूछ रहे थे बहुरानी दिखाई नहीं दे रही, और न ही दीपू ।

लेकिन मेरा सारा ध्यान थैले पर था ।

मैंने बाबू जी से पूछ ही लिया, “बाबू जी ये क्या ले आए आप ? किसी भक्त ने भगवान की तस्वीर बांटी हैं क्या मंदिर में ?

अरे बाबू जी! आप नाहक परेशान हुए इस तस्वीर को यहां तक, इस धूप में ला कर ।

आजकल भगवान की इस तरह की फ्रेम की हुई तस्वीर कोई नहीं लगाता घरों में । “

मेरे ये दो वाक्य सुन कर बाबू जी जरा सा मुस्कुराए जैसे ये कहना चाह रहे हों

कि बेटा , मुझे सब समझ आता है आजकल परिवेश और परवरिश, फैशन और टशन ।

फिर बाबू जी ने कह ही दिया “बेटा ! बुढ़ापे में मेरी आंखों की रोशनी जरूर कम हुई है मगर, मेरी मति नहीं ।

बेटा ! दिवाकर ! आज

मुझे यही दर्द है कि आदमी जब संपन्न एवम् खुश होता है तो भगवान को भूल जाता है । फिर आदमी अपने घर की दीवार पर भी भगवान को जगह नहीं देता । और बेटा मैं तो महसूस कर रहा हूं कि आजकल संतान का अपने मां – बाप के लिए भी कमोबेश यही रवैया होता जा रहा है ।

बच्चे बड़ों की कोई बात सुनना ही पसंद नहीं करते ।बच्चों को कुछ भी समझाओ उन्हें वही बात उबाऊ भाषण लगती है ।

तो बेटा! ऐसे में जब जीते-जी ही कोई बड़े बूढ़ों की बात नहीं सुनना चाहता तो पूर्वजों के श्राद्ध कौन निकालेगा ? कौन याद करेगा उन्हें, और उनकी बातों को ।

बेटा !  इसलिए आज मैं इस थैले में किसी भगवान की तस्वीर नहीं, बल्कि तेरी मां और मेरी थोड़ी बड़ी सी तस्वीर फोटो फ्रेम करवा कर तुम्हें  देने आया हूं ताकि तुम इसे घर की दीवार पर न सही, घर के स्टोर में तो रख ही लो । “

ये कहते हुए बाबू जी का गला रूंधता जा रहा था और आंखे पसीजती । मैं



बाबू जी को सुनता जा रहा था, आखिर अब मैं भी दो बच्चों का बाप था , मेरी भी मेरे बच्चों से कुछ उम्मीदें जगने, बुझने लगीं थी ।

मैं सब समझ रहा था ।

बाबू जी बोले ,”

बेटा तुम्हारी पीढ़ी को तो हम फिर भी डांट डपट कर कुछ संस्कार दे पाए, मगर तुम्हारी पीढ़ी के बाद की संताने तो परिवार से नहीं सोशल मीडिया के परिवेश से संस्कार सीख रही हैं ।

बेटा ! दिवाकर, ये सोच कर बहुत दुःख होता है कि

तुम्हारे घर की दीवारों पर

हमारी तस्वीरों को और तुम्हारी संतानों के दिल की दीवारों पर तुम्हारी तस्वीरों को जगह नहीं मिलेगी ।

बाबू जी अभी भी अपनी आंखों की नमी को इतनी छूट नहीं दे रहे थे कि वो विचारों के साथ साथ बहना शुरू कर दें। मगर मैं भीतर ही भीतर सुबक रहा था, मैं चाह रहा था कि मेरे साथ साथ हर आदमी उनके शब्द सुने, मगर घर के ड्राइंगरूम में मेरे अलावा कोई था ही नहीं ।

बाबू जी बोले रहे थे,” दिवाकर ! बस यही सोच कर मैं ये तस्वीर फोटो फ्रेम में जड़वा लाया कि हमारे जाने के बाद जब तुम्हारे बच्चे घर की साफ सफाई करवाएं तो उनको तुम्हारे स्टोर से  हमारी ये तस्वीर मिलें, तो तब वो कम से कम एक बार तो तुम से पूछें कि दादा – दादी की तस्वीर

रखनी है या फिर दे दें कबाड़ी को ?

बेटा ! उस दिन तुम्हें हमारी याद जरूर आए

बस  इसलिए, मैंने सोचा कि मैं खुद ही तेरी मां और मेरी फ्रेम की हुई एक बड़ी सी तस्वीर तुम्हें दूं ।

बेटा, दिवाकर ! अब मैं चलता हूं सांसारिक यात्रा का ये भी एक पड़ाव ही था, आज पार कर लिया ।

अच्छा बेटा अब तेरे मोबाइल पर वो गाना लगा “संसार है इक नदिया दुःख सुख दो किनारे हैं न जाने कहां जाएं हम बहते धारे हैं ।”

मैं गाना मोबाइल पर लगा

बाथरूम में चला गया, मेरा कलेजा फटा जा रहा था,

बाबू जी की तरह कंट्रोल नही कर पा रहा था डबडबाई आंखों पर ।

बाथरूम में मेरी आंखें ओवरहेड शावर की तरह हजार हजार बूंद कर बह रही थी और बाबू जी गाना सुनने के साथ साथ ये भी सुनना चाह रहे थे कि मां-बाबू जी ही हमारी असली जड़ हैं, असली नींव हैं लौकिक हो कर भी और पारलौकिक हो कर भी ।

गाना खत्म हुआ । बाबू जी चले गए, अपनी यादों की, अपनी बातों की एक बड़ी सी तिजौरी मुझे अपनी फोटो फ्रेम की हुई तस्वीर के रूप में थमा कर ।

रमन शांडिल्य

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