हमारे रिश्ते के बीच में पैसे की दीवार आ गयी  – किरन विश्वकर्मा

प्रकाश जी का जब विवाह राधा जी से हुआ तब उनके पिता एक साधारण से व्यापारी थे और प्रकाश जी उनके साथ व्यापार मे हाथ बंटाया करते थे। धीरे-धीरे बिजनेस की बागडोर प्रकाश जी के हाथों में आ गयी। प्रकाश जी दिन रात मेहनत करके बिजनेस को आगे बढ़ाने में लगे रहते। प्रकाश जी की मेहनत रंग लाने लगी। कुछ समय पश्चात वह शहर के बहुत बड़े उद्योगपति बन गए। उन्होंने पुराने घर को छोड़कर नया घर बनवा लिया। घर क्या पूरी कोठी थी जो कि प्रकाश कोठी के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। 

चार पैसे क्या आये कि अब वह संबंध भी अपने से बराबर वालों से ही रखना पसंद करते।

वहीं उनकी पत्नी राधा जी सीधी-सादी महिला थी। उनका मायका गाँव का था और यहाँ की तरह वो लोग इतने सम्पन्न भी नही थे। प्रकाश जी ने कभी राधा जी के मायके वालों को पसंद नही किया और न ही राधा जी को कभी वहाँ जाने दिया। बस साल में एक बार राधा जी के भाई विजय जी रक्षाबंधन में आते। राधा जी से राखी बंधवाते और लौट जाते। परंतु अब प्रकाश जी को साल में एक बार विजय जी का उन के घर पर आना वो भी पसंद नही आता। 

आज रक्षाबंधन था। घर में बहुत ही चहल-पहल थी। राधा जी सभी की आवभगत में लगी थी किन्तु बार-बार उनकी नजरे मुख्य दरवाजे पर चली जाती। मन ही मन बहुत बेसब्री से अपने भैया का इन्तजार कर रही थी। बाहर बारिश होते देखकर वह सोचने लगी कि अब शायद भैया नही आयेंगे।

“अरे छुटकी बहुत देर हो गयी ला जरा जल्दी से राखी बांध दे।” विजय जी ने आते ही कहा!!

विजय जी के पैरो में कीचड़ लगा हुआ था। पर राधा जी से राखी बंधवाने की जल्दी में उन्होंने अपने पैरों की तरफ ध्यान नही दिया। 

मुख्य दरवाजे से लेकर बैठक तक कीचड़ ही कीचड़ फर्श पर लगा हुआ था। यह देख प्रकाश जी विजय जी को बहुत डांट- फटकार लगाते हैं।

अपना इतना अपमान होते देखकर वह मन ही मन में बहुत दुखी होते हैं और राधा जी से राखी बंधवाकर वापस चले जाते हैं। राधा जी बहुत ही रोती है किन्तु उन्हे पता था कि कुछ कहने-सुनने का कोई फायदा नही है। इसलिये वह प्रकाश जी से कुछ भी नही कहती हैं।

कुछ दिन बाद डाकिया चिट्ठी दे जाता है। अपने भैया का नाम देखकर वह खोलकर पढ़ने लगती हैं।


मेरी प्यारी छुटकी

                                  मैं अब तुम्हारे घर नही आ पाउँगा।

कभी नही सोचा था कि एक समय ऐसा आयेगा कि मैं अपनी छुटकी को देखने और मिलने को तरस जाऊँगा। 

तुम्हे याद है न जब हम लोग पाठशाला पढ़ने जाते थे और बारिश के मौसम में बारिश होने के कारण चारों तरफ पानी भर जाता था। 

चारों तरफ पानी भरा होने की वजह से मैं तुम्हे अपनी पीठ पर बिठा कर ले जाता था ताकि तुम्हारे पैरों पर कीचड़ न लगे। वो वट वृक्ष जहाँ बड़े और बुजुर्गों की चौपाल लगती थी…. हम लोग वहाँ कितना खेलते थे…. जब माँ हम लोगों की घर जाने में देर हो जाने की वजह से पिटायी करने आती थी तो मैं तुम्हे बचाकर तुम्हारे हिस्से की मार भी मै खुद ही खा लेता था। नवरात्रों में जब मंसा देवी के मंदिर में मेला लगता था तब मैं अपने पैसे भी तुम्हे दे देता था ताकि तुम अपने पसंद की चीजें खरीद सको और वो गुड़ याद है न जब ताजा बनकर आता था तब हम दोनों मिलकर खूब खाते थे। तुम्हे जो-जो पसंद है वो सब मैं लाया हूँ उस झोले में। मुझे नही पता था कि एक समय ऐसा आयेगा कि हम लोग मिलने और बातें करने के लिए तरस जायेंगे। तुम रक्षाबंधन पर डाक से राखी भिजवा देना। मैं यहाँ बिटिया से बंधवा लूँगा। मै नही चाहता हूँ कि भाई-बहन के प्यार की डोर टूट जाये।

तुम्हारा भैया।

चिट्ठी पढ़ कर राधा जी बहुत रोती हैं तभी उन्हे याद आता है कि वो सामान तो रसोई के कोने में अभी भी रखा हुआ है वह झोले को खोलती हैं।

भुना चना, सत्तू,  ताजा गुड़, पेड़े और माँ के हाथों का बना आम का अचार और आम पापड़ तो उसे बहुत पसंद था। आम पापड़ में तो वह किसी का भी हिस्सा लगने न देती थी। उसे याद आता है कि सुबह-सुबह माँ जब पराठे बनाती थी तो वह आम के अचार के साथ तीन-चार पराठें तो खा ही जाती थी। ये कैसी विवशता है जहाँ भाई-बहन के प्यार के बीच में अमीरी और गरीबी आ रही है।

वह विवश हो मन ही मन कह उठती है कि कभी कभी कैसी परिस्थितियाँ कैसी आ जाती हैं कि न तो वह अपने मन से कभी मायके जा सकती है और न ही उसके भैया यहाँ आ सकते हैं और

कहते-कहते उसकी आँखों से आँसू गिरने लगते हैं। तभी कार के हार्न की आवाज को सुनकर वह अपने आँसू पोंछकर प्रकाश जी के लिये चाय बनाने चली जाती हैं।



एक वर्ष पश्चात प्रकाश जी को बिजनेस में बहुत बड़ा घाटा होता है और दुकान के साथ-साथ कोठी भी बिक जाती है। प्रकाश जी असहाय से खड़े होकर कोठी को बिकते हुए देख रहे थे। उनका पैसा देखकर जिन लोगों ने उनसे संबंध बनाये थे आज उनके इस मुसीबत के समय में कोई भी उनके साथ नही था। यहाँ तक कि उनके परिवार में भी किसी ने उनका साथ नही दिया। 

प्रकाश जी किराये के मकान में रहने लगते है। आज उनके घमंड ने उन्हे कहीं का नही छोड़ा, आज न उनके पास पैसे थे और न ही रिश्ते। 

कुछ दिन बाद फिर रक्षा बंधन आने वाला होता है, राधा जी चुपके से अपने भाई को चिट्ठी में सारी बातें लिखकर अपने भैया को भेज देती हैं। 

आज राधा जी हाथों में रक्षा कलावा लिए बार-बार दरवाजे पर फिर से देखती रहती हैं उन्हे मन में कहीं न कहीं विश्वास है कि उनके भैया जरूर आयेंगे। 

तभी विजय जी आते हैं….प्रकाश जी को सांत्वना देते हुए कहते हैं कि मेरे एक मित्र का घर खाली है आप लोग वहाँ चलिये वो तो विदेश में रहता है…. जब तक आप की परीस्थित सही न हो जाय तब तक आप लोग वहीं पर रहिये और ये कुछ रुपयों का इंतजाम मैने खेत बेचकर किया है और बाकी व्यवस्था भी कर दी है।

यह सुनकर प्रकाश जी बहुत शर्मिंदा होते हैं और विजय जी से माफी मांगने लगते हैं।

ला छुटकी राखी बांध दे…. विजय जी कहते हैं… तो झट से राधा जी अपने हाथ मे पकड़ कर रखा हुआ कलावा भैया की कलाई पर बांध देती हैं। 

मै पैसों के घमंड में रिश्तों के महत्व को भूल गया था। अब

मै तुम दोनों को मिलने से नही रोकूँगा। मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई… प्रकाश जी माफी मांगते हुए बोलते हैं। 

सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नही कहते क्यों छुटकी…. यह कह विजय जी सब लोगों को मित्र के घर लेकर चल देते हैं।

धन्यवाद

किरन विश्वकर्मा

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