हां यही प्यार है – डा.मधु आंधीवाल

नीलाक्षी हां यही तो नाम है उसका पर सब उसे नीला के नाम से ही पुकारते थे क्योंकि उसकी आंखें नीली थी । रंग गोरा आँखे नीली बाल भी हल्के सुनहरी । पूरे साल बस एक ही बात का इन्तजार रहता कि कब छुट्टियाँ हो और वह नानी के गांव जाये ।  नीला को गांव में केवल प्रतुल के साथ ही खेलना अच्छा लगता था । प्रतुल भी शहर में रहता रहता था वह भी दादी दादा के पास आता था । दोनों की बाल्यवस्था दुनिया की बातों से अनजान बागों में पेड़ो के पीछे लुकाछिपी खेलते खेलते कब यौवनावस्था में पहुंच गयी पता ही ना चला ।

      आज बहुत समय बाद नीला गाँव जा रही थी । उसके जेहन में रह रह कर प्रतुल की छवि आ जाती पर फिर वह सोचती कि पता नहीं प्रतुल मिलेगा भी या नहीं कैसा लगता होगा देखने में ।   नीला को तो यह भी पता नहीं था कि प्रतुल कहां है वह तो शायद उसे पहचाने का भी नहीं । अचानक ट्रेन में उसके पास एक युवक आकर बोला मैडम शायद आप मेरी सीट पर बैठ गयी हैं नीला एकदम से तैश में आकर बोली अरे आपकी सीट लेकर क्या मै कहीं जा रही हूँ हां मेरे पास रिजर्वेशन नहीं है। वह उठ कर ट्रेन की गैलरी में खड़ी हो गयी । चार घन्टे का सफर 

था । प्रतुल ने उससे कहा भी चलिये आप बैठ जाइये पर उसने अनसुनी कर दी । वह खड़ी खड़ी प्रतुल के बिषय में ही सोचती रही । वह अपने आप से पूछ रही थी क्यों ऐसा होता है क्या ये प्यार है वह भी एक तरफा । जब स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो देखा सामने से नानू और प्रतुल के दादू आरहे हैं । प्रतुल उसे धकियाता गाड़ी से कूदा और दादू से लिपट गया । नानू उसे आवाज दे रहे थे नीला नीचे उतर गाड़ी चल देगी पर वह तो प्रतुल में ही खो गयी । जब प्रतुल के दादू ने कहा अरे क्या ये नीला बिटिया है नानू ने कहा हां बहुत दिन बाद आई है इसलिये तुम पहचान नहीं पाये । प्रतुल उसको बड़े  प्यार से बड़ी चाहत से निहार रहा था । गाड़ी चलने को हुई प्रतुल ने उसे हाथ पकड़ कर खींचा । उसे रह रह कर गाना याद आ रहा था ” क्या यही प्यार हैं हां यही प्यार है ” ।

स्व रचित

डा.मधु आंधीवाल

अलीगढ़

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