देवव्रत शास्त्री शहर में एक माध्यमिक विद्यालय में हिंदी के शिक्षक थे। उनको छात्र मास्साब कहकर संबोधित करते थे। वह अपने छात्रों से पुत्रवत स्नेह रखते थे और उनकी गल्तियों पर उन्हें डांटने के स्थान पर स्नेह पूर्वक समझाते। अपने छात्रों को पढ़ाने में बहुत मेहनत करते थे, जिसका ही परिणाम था कि उनके विद्यालय का रिजल्ट शत-प्रतिशत रहता था।
उन्हें बस एक ही चिंता सताती थी कि उनके पुत्र मनोज को अभी तक कोई नौकरी नहीं मिली थी जबकि वह अव्वल दर्जे से उत्तीर्ण स्नातक था और नौकरी पाने के लिए भगीरथ प्रयास भी कर चुका था।
चिंतामणी उन्हीं मास्साब का शिष्य रह चुका था और जब भी मास्साब रास्ते में मिल जाते तो उनके चरणस्पर्श किये बगैर नहीं रहता था, बदले में ढेरों आशीष पाता। एक दिन चिंतामणि अपनी धर्मपत्नी श्रीमती कामिनी के साथ कार में बैठ कर पास ही शहर में अपने मित्र से मिलने के लिए जा रहा था कि चिंतामणि की दृष्टि अचानक मास्साब पर पड़ गई, वह कुछ चिंता ग्रस्त थे।
चिंतामणि ने अपनी कार शास्त्री जी के आगे रोक दी थी और कार से उतर कर दोनों पति-पत्नी ने शास्त्री जी के चरणस्पर्श किये। शास्त्री जी ने उन दोनों को आशीर्वाद दिया। चिंतामणि ने उनसे चिंता का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि उनके पुत्र मनोज को अभी तक भी कोई नौकरी नहीं मिल पाई है,
जबकि वह अव्वल दर्जे से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण है साथ ही वह नौकरी के लिए भगीरथ प्रयास भी कर चुका है। मेरी सेवानिवृत्ति पर मिलने वाली पेंशन की सूक्ष्म राशि से घर का खर्च कैसे चलेगा ,यही मेरी चिंता का विषय है।
चिंतामणि ने शास्त्री जी से उनके पुत्र मनोज का बायोडाटा अपनी डायरी में नोट किया और कार में बैठ कर अपने गंतव्य की ओर रवाना हो गए। इस बात को काफी समय हो गया था और शास्त्री जी भी भूल चुके थे कि अचानक एक दिन उन्हें एक लिफाफा मिला जिसमें उनके पुत्र मनोज के नाम से एक प्राइवेट कंपनी में
सहायक प्रबंधक के पद पर नियुक्ति का पत्र था साथ ही एक छोटा सा , बहुत ही सुन्दर लिखाई में हस्त लिखित पत्र था जिसमें सारांश में लिखा हुआ था ” आदरणीय गुरुदेव के श्री चरणों में शिष्य चिंतामणि का प्रणाम।
आपके श्री चरणों में बैठ कर पाई गई शिक्षा और आपके आदर्श व मार्गदर्शन का ही फल है जो कि मुझे इतनी बड़ी कंपनी में एक बड़े ओहदे पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। अपने अकिंचन शिष्य चिंतामणि की ओर से श्री चरणों में एक छोटी-सी गुरु दक्षिणा समर्पित है।”
देव व्रत शास्त्री जी नियुक्ति पत्र को देखकर ही समझ गए थे कि उनके शिष्य चिंतामणि ने कौन सी गुरु दक्षिणा देकर उन्हें धन्य कर दिया था।
लेखक
विनय मोहन शर्मा
अलवर ,राजस्थान