“मां ,मैं आखरी बार कह रहा हूं, मैं सलोनी से ही शादी करूंगा। मुझे उसी से शादी करनी है करनी है करनी है, बस किसी और से नहीं।”आशीष ने गुस्से में कहा।
उसकी मां शारदा जी ने कहा-“मैं और तेरे पापा (राजन) इस शादी के खिलाफ हैं। तब भी क्या तू अपनी मर्जी चलाएगा। ना तो वह हमारी जाति की है और ना ही उसके मां बाप के पास हमें देने के लिए कुछ है। हमें वेलोग क्या देंगे, खुद ही वे लोग किराए के घर में रहते हैं और दो छोटी बेटियों और हैं।”
आशीष-“मां ,अगर वह लोग अमीर होते तब आपको जाति से कोई शिकायत नहीं होती। यह क्या बात हुई मां, यह तो सीधा-सीधा लालच हुआ। मां आपने तो मेरी बहनों की भी की शादी की है आपको तो समझना चाहिए।”
शारदा-वाह बेटा वाह, अब हम तुझे लालची दिख रहे हैं। तीनबेटियों को भर भर कर दहेज दिया है, तब क्या हम पर किसी ने दया दिखाई थी। अब तुम एक ही बैठे हो हमारे, तब क्या हम अपने मन की ना करें।”
आशीष-“मां मैं दहेज लेने के खिलाफ हूं। मैं अच्छा खासा कमाता हूं, जो आपको चाहिए मुझे कहिए मैं ला दूंगा। मान लो दहेज के लिए आप मेरी शादी किसी अमीर खानदान की लड़की से करवा देताहो और बाद में वह लड़की घमंडीनिकले और बड़ों का सम्मान ना करे, तब आप क्या करोगी?”
शारदा-“और यह सलोनी तेज निकली तो तू क्या करेगा?”
आशीष-“मां वह वैसी नहीं है, तभी तो कह रहा हूं।”
शारदा-“हां हां मुझे पता है, तू उसके प्यार में अंधा हो चुका है। न जाने कौनसा जादू कर दिया है जादूगरनी न। अभी से यह यह हाल है तो बाद में क्या होगा?”
आशीष गुस्से मे बाहर चला जाता है।
कुछ समय बीतने के बाद मात-पिता विवाहके लिए राजी हो जातेहैं क्योंकि आशीष किसी और से शादी करनेके लिए तैयार नहीं था।
सलोनी बंगाली और आशीष पंजाबी। सुखपूर्वक विवाह संपन्न हुआ। सलोनी के माता-पिता सिर्फ कंबल और कपड़े ही देसके। जिन्हें देखकर शारदाजी हर पल नाक भौं सिकोड़ती रहती थी हालांकि उनके पति राजन उन्हें बहुत समझाते थे। धीरे-धीरे सलोनीने पूरे घर का काम काज बहुत अच्छी तरह संभाल लिया। शारदा जीको बहुत आराम था। सलोनी ने पंजाबीखाना बनाना भी सीख लिया था और अपनी ननदों के आने पर उनको बंगाली व्यंजन भी बनाकर खिलाता थी। खासकर मिष्टीदही, रसगुल्ला, लुची, आलूरदम, बैंगुन भाजा, आलू भाजा सबको बहुत पसंद आता था। लेकिन फिर भी न जाने क्यों शारदाजी सलोनी से खुश नहीं थी।
एक दिन शारदाजी की छोटी बहन नंदा का हरिद्वार से फोन आया कि” मेरी बेटी सुकन्या की विवाह की तारीख तय हो गई है, सगाई में तो आप लोग आए नहीं लेकिन शादी में सबको जरूर आना है। मैं कल सुकन्या केपापा के साथ शादीका न्योता देने आ रही हूं।”
शारदा जी ने अपनी छोटी बहन से 2 दिन अपने यहां रुकने के लिए कहा। नंदा और उसके पति दो दिन उनके यहां रहे। सलोनी ने बहुत प्यार और सम्मान से उनका स्वागत किया। जाते-जाते नंदा शारदा जी को कह गई”बहुत किस्मत वाली हो दीदी जो ऐसी प्यारी बहू मिली है, शादी में इसे अपने साथ जरूरलाना।”
शारदा जी सलोनी को साथ ले जाना नहीं चाहती थी। खुद वह शादी में जाने को लेकर बहुत उत्साहित थी, लेकिन उनके उत्साह पर उसे समय पानी फिर गया जब अचानक आशीष के पापा की तबीयत बिगड़ गई। हालांकि बहुत देखरेख करने पर उनकी हालत सुधर गई थी लेकिन फिरभी यात्रा करने की स्थिति में नहीं थे। शारदा जी शादी में जरूर जाना चाहती थी और दूसरी तरफ पति की चिंता भी थी।
फिर यह तय किया गया कि आशीष और शारदा शादी में जाएंगे और सलोनी ससुरजी की देखभाल करेगी। शारदा जी की मन की बात पूरी हुई। आशीष और शारदा शादी से एक दिन पहले कार लेकर निकल गए।
इधर राजन जी सुबह अच्छे खासे ठीक-ठाक थे, लेकिन शाम होते-होते उन्हें घबराहट और बेचैनीहोने लगी। उन्होंने सलोनीसे कुछ नहीं बताया।
रात को खिचड़ी खाकर थोड़ा टहलने केबाद वह सोने के लिए चले गए। 1 घंटे बाद सलोनीने सोचा कि अगर पापा जी जाग रहे होंगे तो एक कप गर्म दूध दे आतीहूं।
सलोनी धीरे से दरवाजा खोल कर अंदर आई, तो उसकी चीख निकल गई। उसने देखा कि पापाजी फर्श पर गिरे हुए हैं और अपने दोनों हाथ अपने दिल पर रखकर तड़प रहे हैं। सलोनीने तुरंत उनको अपनी दोनों हथेलियां से दिल पर प्रेशर दिया यह प्राथमिक चिकित्सा उसने कई बार मोबाइल परदेखी थी। 10 मिनट के बाद राजन जी होशमें आए। सलोनी का सहारा लेकर अब वह कुर्सी पर बैठ गए। सलोनीने कहा-“पापाजी, आप जानबूझकर खांसते रहिए, इसका दिल पर अच्छा प्रभाव पड़ताहै।”
राजन जी खांसते रहे। तब तक सलोनी ने एंबुलेंस बुला ली थी। अस्पताल पहुंचते ही इलाज शुरूहो गया। अगले दिन डॉक्टर साहब ने राजन जी से कहा-“आपको जो प्राथमिक चिकित्सा आपकी बहू ने दी उसकी वजह से आपकी जान बच गई।”
राजन जी अब खतरे से बाहर थे। उधर जब सलोनी ने देखा कि अब विवाह हो चुका होगा, तब उसनेफोन करके आशीष को सारी बात बता दी। आशीष तुरंत मां के साथ वहां से निकल पड़ा। शारदा जीको जब पूरी बात पता लगी, तब उन्होंने सलोनी को गलेसे लगा लिया। सारे गिले शिकवे समाप्त हो चुके थे। अब शारदाजी बहू केखिलाफ नहीं बल्कि उसके साथ थी।
स्वरचित अप्रकाशित गीता वाधवानी दिल्ली