Moral stories in hindi : “जैसे ही माता (बूढ़ी औरत) ने हस्ताक्षर करके के लिए पैंन उठाया। उसके हाथ कांप रहे थे। मुझे लगा शायद उम्र की वजह से ऐसा हो रहा है। मैंने इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया। साथ में आए माता के भतीजे ने माता का हाथ पकड़ कर हस्ताक्षर करवा दिए। हस्ताक्षर करने के बाद माता के हाथ से पैंन छूट गया।
आंखों में आसूं आ गए। पर उन आंसूओ पर किसी का ध्यान नहीं था। भतीजे ने कागज़ उठाए और मकान खरीदने वाली पार्टी के साथ अंदर रजिस्ट्रार के दफ्तर में चला गया। मैंने मेरे साथ काम करने वाले लड़के को उनके साथ भेज दिया। अब मैं और माता अकेले थे। मैंने एक गिलास पानी लिया और माता के आगे कर दिया। माता ने गिलास से एक घूंट पानी पिया और गिलास रख दिया।
“माता जी आप ठीक हो? मैंने पूछा
माता ने सिर्फ हां में सिर हिलाया
“चाय मंगवाऊं आप के लिए?
“नहीं बेटा, मैं नाश्ता करके आई हूं।” माता की आवाज में भारीपन था।
मुझे समझ में आ गया था कि कुछ ना कुछ बात जरूर है। मगर मैं किस हक से पूछता।
मैं अपना काम करने लगा। पर मेरा ध्यान माता की तरफ ही था। मैंने देखा माता ने अपने छोटे से पर्स से रूमाल निकाल कर दो तीन बार आंखे साफ की। देखने में वह बहुत हताश और उदास लग रही थी। बीच बीच में आंखे उठा कर इधर उधर देख लेती।
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इतनी देर में माता का भतीजा आया। माता को अंदर फोटो के लिए ले जाना था।
पता नहीं मेरे मन में किया आया, मैने माता का हाथ पकड़ा और अंदर ले जाने लगा। जबकि अंदर मेरी कोई जरूरत नहीं थी।
अंदर दफ्तर जा कर देखा तो काम करवाने वालों की थोड़ी भीड़ लगी थी। मैंने अपनी जान पहचान का फायदा लेते हुए, काम जल्दी करवा दिया। और माता को अपने साथ ही वापस ले आया।
“बेटा बहुत बहुत धन्यवाद, तूने काम जल्दी करवा दिया।”
“माता जी बेटा भी बोल रहे हो और धन्यवाद भी कर रहे हो। दो दो बातें एक साथ नहीं चलेंगी।” मैंने मुस्करा कर कहा
जवाब में माता भी मुस्करा दी। माता को मुस्कराते देख मुझे बात आगे बढ़ाने का हौसला मिला। मुझे इतना तो पता था माता अमेरिका से आई है। मैने आगे पूछा
“माता जी कितनी छुट्टी पर आए हो?
“बेटा अब यहां कुछ नहीं है। चाहे कल ही चली जाऊं।” माता ठंडी आह भर कर बोली
“क्यू क्या सब रिश्तेदार अमेरिका में ही है?
“नहीं है इधर भी, पर जहां मेरा दिल था, मेरी जड़े थी, जहां आने का मन करता था, वो सब अपने हाथों से आज काट कर जा रहीं हूं।”
“मतलब आप अपने मकान की बात कर रहे हो?
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“हां, बहुत लगन से बनाया था। मेरे पति दूर नौकरी करते थे । पैसा पैसा जोड़ कर मैंने जगह खीरदी थी। फिर धीरे धीरे और बचत करके मैंने इसको बनवाना शुरू किया था। कुछ दोस्तों रिश्तेदारों की मदद से बन कर तैयार होने लगा। चार किलोमीटर दूर रहती थी इस मकान से। सुबह बच्चों को स्कूल भेज कर आ जाती थी यहां।
अपनी आखों के सामने तैयार करवाया था। शाम को सारी साफ सफाई करके जाती। जैसे जैसे बन रहा। मन में खुशी की लहर दौड़ दौड़ जाती थी। बनने के बाद मैंने एक एक चीज़ बड़ी चाव से खरीदी थी। धीरे धीरे सब दोस्तों रिश्तेदारो से ली सारी उधारी मैंने चुकता कर दी। उस रात बहुत अच्छी नींद आई थी मुझे। खुले खुले तीन कमरे, बड़ी सी रसोई और बाहर खुला आंगन…. बच्चे आंगन में ही खेलते रहते।
मैं सपनो में अपनी बहुओं और अपने नाती पोतों को आंगन में चलते फिरते देखती। मगर मन चाहा कहां मिलता है?
मेरे दोनों बेटे अमेरिका चले गए। और बेटी शादी करके अपने घर चली गई। अब वो भी अमेरिका में ही है।
बड़े बेटे ने बाहर ही अमेरिकन लड़की से शादी कर ली। छोटे बेटे की पत्नी इंडिया की है।
मैं कभी भी दोनों बहुओं को एक साथ इस आंगन में नही देख सकी। दोनों अलग अलग आती है। हफ्ते दो हफ्ते में वापस चली जाती है।
अब कुछ सालों से मैं और मेरे पति भी बड़े बेटे के पास अमेरिका रहते है। जहां घर में ताला लगा है। पहले हम पति पत्नी एक साल बाद आ जाते थे। पर अब मेरे पति बहुत बीमार है। सफर नहीं कर सकते। मैं भी ऐसे ही हूं, इस बार बड़ी मुश्किल से आई हूं। मगर लगता है। ये आखरी बार ही है। अब नहीं आ सकूंगी। इसलिए ये घर बेच कर जा रही हूं। मगर दिल चूर चूर हो रहा है…..।” इतना कह कर माता रोने लगी।
मैंने आगे हो कर माता को हौसला दिया। पर माता रोती रही।
मेरा खुद का मन भी भर आया था। कितना मुश्किल होता है। अपनी जड़ों से टूटना।
इतने में अंदर से सब काम हो गया। माता चली गई। पर मैं बहुत दिनों तक माता को भूल नहीं पाया। अपने घर को खो देने का जो दुख माता की आखों में था। मुझे आज भी अपने अंदर महसूस हो रहा था।
रजिन्दर कौर