“पारस, घर की इज्जत के लिए तुझे सुमेधा का हाथ थामना होगा। यह कोई नई बात नहीं है, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही हमारे खानदान की परंपरा है।” पारस के पिता कृष्ण जी ने आदेशात्मक स्वर में उससे कहा।
“हां पारस बेटा, इसमें न के लिए कोई स्थान नहीं है। तुझसे पूछा नहीं जा रहा, बल्कि बताया जा रहा है। इसलिए जितना जल्दी हो सके, स्वयं को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार कर ले।” पारस की मां विमला जी ने अपने पति से सहमति जताई।
दूसरी ओर, सुमेधा की मां पार्वती जी उसे फोन पर समझाती हैं, “सुमेधा बेटी, पिछले एक सप्ताह से तेरे साथ-साथ हम सब रो रहे हैं। अब ईश्वर के फैसले को तो बदला नहीं जा सकता। इसलिए आंसू पोंछ कर आगे के जीवन की सुध लेनी होगी। अभी तेरी उम्र ही क्या है! इसलिए पुनर्विवाह तो करना ही होगा। कहीं और बाहर करने से अच्छा है कि तू पारस को अपना ले।”
“पर मां….” सुमेधा को रोना आ रहा था। सुमेधा के पिता महेंद्र जी अपनी पत्नी के हाथ से फोन का रिसीवर लेकर बोले, “सुमेधा बेटा, पर-वर कुछ नहीं! होनी को तो आज तक कोई रोक नहीं पाया। पर ईश्वर का शुक्र है कि पारस का अभी विवाह नहीं हुआ है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि कृष्ण जी और विमला जी को अपने घर की इज्जत का ख्याल है। वरना पुरानी परंपराओं को मान्यता देने वाले सास-ससुर आजकल कहां मिलते हैं!”
वे सुमेधा को समझाते हुए आगे बोले, “पोता-पोती, चिराग और आरोही के प्रति उनका अटूट प्यार है। उनके बेटे सोमेश की निशानियाँ जो हैं, वे दोनों। इसलिए वे चाहते हैं कि तू पारस को अपना पति मानकर इसी घर में रह। इसे ईश्वर की कृपा मान, बेटा। भावुक नहीं, व्यवहारिक बन। सोमेश की तेरहवीं के दिन जब तुझसे पूछा जाएगा तो तेरी सिर्फ हां होनी चाहिए।”
फोन रखते ही सुमेधा की हिचकी बंध गई। एक सप्ताह पहले सुमेधा अपने आप को दुनिया की सबसे खुशनसीब इंसान समझती थी। उस दिन उसके बेटे चिराग का पहला जन्मदिन था, और घर में खुशी का माहौल था।
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कृष्ण जी और विमला जी ने अपने जीते जी पोते का जन्मदिन मनाने का सपना अपने दिलों में संजोकर रखा था। सुमेधा की आँखों में अपने बेटे के लिए प्यार और भविष्य की उम्मीदें थीं। वह सोच रही थी कि इस दिन को वह और उसका पति सोमेश मिलकर बहुत खास बनाएंगे। उन्होंने चिराग के जन्मदिन के लिए पहले दिन ही रंग-बिरंगे गुब्बारों से पूरे घर को सजा दिया था।
लेकिन जो कुछ होने वाला था, वह किसी ने भी नहीं सोचा था। जब सोमेश सुबह रोज़ की तरह मॉर्निंग वॉक पर गए थे, तो कुछ ही समय बाद, अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनके निधन की खबर आई। यह खबर सुनते ही सुमेधा की दुनिया उजड़ गई। एक पल में उसके जीवन की सारी खुशियाँ ध्वस्त हो गई। सोमेश की मृत्यु ने सुमेधा के ससुराल और मायके के दोनों परिवारों को पूरी तरह तोड़ दिया।
सोमेश का छोटा भाई पारस अभी कुछ महीने पहले ही तो कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर सोमेश के साथ व्यवसाय संभालने लगा था। भाई तो उसके लिए माता-पिता से भी बढ़कर था। सोमेश का बेटा चिराग केवल एक साल का है, जिसे अभी कोई समझ नहीं है। और तीन साल की बेटी आरोही भी अभी बच्ची ही तो है, पर सबको रोता देख गुमसुम हो जाती है।
इतनी युवावस्था में ही बेटी सुमेधा विधवा हो जाती है, उसके मायके वालों का दर्द शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। चार साल ही तो उसके विवाह को हुए हैं। उन्हें दो बच्चों की मां बन चुकी अपनी बेटी की आगे की जिंदगी की चिंता सता रही है। इसलिए वे उसे सोमेश के छोटे भाई पारस को पति के रूप में स्वीकार करने की सलाह देते हैं।
लेकिन इसके लिए सुमेधा का मन तैयार नहीं है। सुमेधा को पता है कि पारस कॉलेज में उसकी सहपाठी रह चुकी शालिनी से प्यार करता है। सुमेधा को अच्छे से याद है कि उसके पति सोमेश ने अपने भाई पारस से वादा किया था कि वह शालिनी के साथ उसके विवाह के लिए माता-पिता को मना लेगा। ऐसे में सुमेधा स्वार्थी नहीं हो सकती।
दूसरी ओर, सोमेश को खो चुके उसके माता-पिता भी अपनी बहू सुमेधा को खोने से डरते हैं। चार साल में सुमेधा अपने गुणों और व्यवहार से उनकी बेटी से भी बढ़कर हो गई है। उन्हें डर है कि सुमेधा का कहीं और पुनर्विवाह हुआ तो उसके साथ-साथ उनके बेटे सोमेश की निशानियाँ, पोता-पोती चिराग और आरोही भी चले जाएंगे।
इसलिए वह अपने खानदान की परंपरा के अनुसार, घर की इज्ज़त के लिए अपने बेटे पारस को आदेश देते हैं कि वह सुमेधा को पत्नी के रूप में स्वीकार करे। भाई की मृत्यु से वह स्वयं आहत है और ऐसे में पारस को इस आदेश को मानने के सिवा कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा है। नैतिक जिम्मेदारी की वजह से भी और घर में अब तक चली आई बड़ों की बात का अक्षरशः पालन करने की परंपरा की वजह से भी।
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पारस बुरी तरह द्वंद्व में फंस चुका है। वैसे तो प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। फिर भी जब उनके खानदान में कभी किसी ने लव मैरिज नहीं की, क्योंकि पूरे खानदान में बिना किसी विरोध के बड़ों की आज्ञा मानने की परंपरा रही है, तो पारस इस चक्कर में कैसे पड़ गया! अपने भाई की वजह से! उसे भाई सोमेश ने वादा जो किया था कि वह उसके प्यार को अरेंज्ड मैरिज में बदल देगा।
अब भाई ही नहीं रहा। मानसिक रूप से टूटा हुआ पारस जाकर अपनी प्रेमिका शालिनी को सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराता है। इतना तो शालिनी पहले से ही जानती थी कि उनकी शादी सोमेश भैया के भरोसे है। समझदार शालिनी अपनी भावनाओं को नियंत्रित कर पारस को अपना कर्तव्य निभाने को कहती है। आंसुओं के साथ दोनों एक-दूसरे से विदा लेते हैं।
सोमेश की रस्म क्रिया से पहले दिन सुमेधा को फिर से समझाते हुए उसके माता-पिता उसे बच्चों की खातिर व्यवहारिक होकर निर्णय लेने को कहते हैं और उसे मजबूर करते हैं कि वह उनकी बात को नहीं टालेगी।
लेकिन सुमेधा किसी की न सुनकर अपनी अंतरात्मा की सुनती है। वह अच्छे से जानती है कि दो छोटे बच्चों के साथ उसका आगे का जीवन बहुत मुश्किल होगा। पर अपने लिए पारस को विवश करना उसे मंजूर नहीं है। ईश्वर में आस्था रखते हुए, वह अपने मन में अपने पति के द्वारा पारस को दिए गए वादे को निभाने का प्रण लेती है।
अगले दिन सुमेधा सबके बीच में यह कहकर पारस को पति के रूप में स्वीकार करने से इंकार कर देती है, “मैं अपने सब बड़ों से माफ़ी चाहती हूं। मैंने पारस को हमेशा अपने छोटे भाई के रूप में देखा है। स्वयं को उसकी बहन माना है। किसी को भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मैं और मेरे दोनों बच्चे इसी घर में रहेंगे। मुझे पारस पर पूरा भरोसा है कि वह मुझे अपनी बहन मानकर मेरा और मेरे बच्चों का पूरा ध्यान रखेगा।”
अब किसी के पास कहने को कुछ नहीं बचता है। पर पारस के दिल में अपनी भाभी सुमेधा की इज्जत कई गुणा बढ़ जाती है। अपने पति की बरसी के बाद सुमेधा पारस और शालिनी की शादी करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वे दोनों हमेशा ही सुमेधा के प्रति कृतज्ञता महसूस करते हैं और मिलकर सुमेधा और उसके बच्चों के प्रति पूरी जिम्मेदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं।
सुमेधा भी बड़ी बहन की तरह पारस और शालिनी का हर कदम पर मार्गदर्शन करती है। वह व्यवसाय में भी पारस को पूरा सहयोग देती है। सुमेधा के सास-ससुर तो उसके निर्णय पर वारी जाते हैं। सबकी आपसी समझ, विश्वास और सहयोग रिश्तों को सुदृढ़ कर #घर की इज्ज़त बढ़ाने में योगदान देते हैं।
समय के साथ शालिनी एक प्यारी सी बेटी मुस्कान को जन्म देती है। तीनों बच्चे अच्छे वातावरण में पढ़-लिख कर बड़े होते हैं। आरोही शक्ल-सूरत से तो साधारण होती है, लेकिन अपनी मां सुमेधा की तरह साहसी और आत्मविश्वासी होती है। विमला जी तो कभी-कभी चिंतित भी होती हैं कि उनकी पोती का रिश्ता अच्छे घर में हो तो जाएगा ना!
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ईश्वर की कृपा से समयानुसार सब काम तो होते ही हैं। आरोही की संभ्रांत घर-परिवार में शादी भी होती है और वह अपने ससुराल में सबकी चहेती भी होती है।
एक बार कुछ दिन मायके रहने आई, सबके बीच बैठी आरोही गपशप के दौरान कहती है, “मेरे ससुराल में सबका मानना है कि आंतरिक सुंदरता हमेशा बाहरी सुंदरता से अधिक प्रभावशाली होती है। जब वे सब लोग पहली बार हमारे घर आए तो उन्होंने हमारे घर को आंतरिक रूप से सुंदर पाया। विशेषकर चाचा-चाची का मम्मी के प्रति आदर-सम्मान उनके मन को छू गया। ऐसे घर की बच्ची अवश्य ही संस्कारी होगी और हमारे घर की इज्ज़त में चार चांद लगाएगी, ऐसे भाव उनके मन में आए, जो मेरी शादी का आधार बने।”
ये सब जानकर सुमेधा प्यार से पारस और शालिनी को निहारने लगी और उसे वर्षों पहले लिए गए अपने फैसले पर गर्व होने लगा।
सच ही तो है कि विवश होकर अनिच्छा से निभाई गई परंपराओं की बजाय एक दूसरे की भावनाओं को समझकर, आपसी समझ और सम्मान से सुदृढ़ हुई नींव पर #घर की इज्जत मजबूती से टिकी होती है।
– सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
साप्ताहिक विषय: #घर की इज्जत