घर दीवार से नहीं परिवार से बनता है -करुणा मालिक :

Moral Stories in Hindi

सुरभि की दादी ! इस साल झूला नहीं डलवाया क्या ?

हाय क्यूँ ना डलवाती भला ? तुमने ध्यान ना दिया ….रोज़ तो मोहल्ले के बच्चे शाम को झूलने आते हैं, मेला सा लग जाता है । हाँ…. हर साल सावन शुरू होने से दो-चार दिन पहले डलवा देती थी…. अबकि बार हरीश अकेला था तो कोई आदमी ही ना मिला , अब अकेले के बस की तो बात ना थी । 

सुरभि की तो पहली तीज है , आई तो होगी अपनी माँ के पास ? तुमसे मिलने ना आई ? सिंधारा आया कि नहीं? 

आ जाएगी मिलने भी , पूरा महीना यहीं है । आ जाएगा सिंधारा  भी ….. अभी तो सावन के आठ ही दिन गए हैं । तुमने भेज दी क्या लड़कियों की कोथली? 

ना … अभी तो ना भेजी । कई दिन से कह रही बहू को, कि बाज़ार जाकर बेटियों के लिए सूट-साड़ी ख़रीद ला पर आजकल कहे से कोई ना जाता , अपनी मर्ज़ी से जाएगी । अच्छा चलूँ …. मैं भी, बस देखने आई थी कि झूला डला या नहीं?

इतना कहकर उर्मिला जी की पड़ोसन सुंदरी चली गई । उर्मिला जी भी बाहर के बरामदे से उठकर अंदर कमरे में आकर बड़बड़ाने लगी —-

मैं अच्छी तरह जानूँ कि झूला देखने ना आई थी, घर की बात लेने आई थी । कभी पूछे कि सुरभि तो आ गई होगी , कभी यहाँ आएगी कि नहीं… सिंधारा आया कि नहीं । जब घर की दीवार में छेद हो जावे ना , तब सत्तर आँखें झाँकने लगे भीतर । 

अम्मा…. क्या हुआ? खुद से ही बातें कर रही हो ? , छोटी बहू सुमेधा बोली ।

उर्मिला जी ने बहू को सारी कहानी सुनाई ।

छोड़ो ना अम्मा…. ये बताओ कि आपने सुरभि को फ़ोन कर लिया था ना ? 

कहाँ किया ? ला दे नंबर मिला के , छोरी चार – पाँच दिन से आई बैठी , यूँ कहेगी कि मैंने तो आते ही फ़ोन किया और दादी ने मुड़के हाल भी ना पूछा ।

हाँ अम्मा…. ये लो बात कर लो । 

उर्मिला जी ने अपनी पोती सुरभि से बात की और सुमेधा से बोली —

सुमेधा! सुरभि का तो ज़रा भी मन नहीं लग रहा वहाँ…. कह रही थी कि चाचा के साथ आके ले जाओ , अकेली को मम्मी नहीं भेजेगी । बता ….. पहले दो घर करवा दिए अब बच्चों के आने-जाने पर भी रोक लगाएगी । यहाँ इस घर में जी घुटे था उसका …. हरीश! ओ हरीश…. बेटा , ऑफिस जाते-जाते नरेश की तरफ़ छोड़ दे मुझे…. सुरभि को ले आऊँ ।

शाम को उर्मिला जी अपनी पोती सुरभि को लेकर आई तो चार महीने पहले ब्याही गई पोती का चेहरा खिल गया । 

चाची ….. मेरा कितना मन कर रहा था आपसे मिलने का…

तो उसी दिन क्यों नहीं आई ? देवांश आए थे ना तुम्हें छोड़ने ? चाचा- चाची और दादी से मिलवाने भी नहीं लाई ? तुम भी कितना बदल गई हो ना सुरभि ।

नहीं चाची .. देवांश तो घंटे बाद ही चले गए थे । और रही मेरी … तो समझा करो ना …. मम्मी बोली कि पहले मेरे पास रह ले । , सुरभि ने चाची को मनाते हुए कहा ।

सुरभि आई तो थी केवल एक दिन के लिए पर अपने पुराने घर , मोहल्ले- पड़ोस और परिवार के बीच पहुँच कर नए घर में मम्मी- पापा के पास जाने का नाम ही नहीं लिया । यहाँ तक कि वह चचेरी हमउम्र दिव्या के कपड़े पहन कर काम चला रही थी  । मम्मी का बार-बार फ़ोन आता था पर वह कभी दादी से बात करवा देती , कभी खुद कोई बहाना बना देती । 

आज तो सुरभि का सिंधारा आने वाला था । सुरभि की मम्मी ने दादी को कहलवा दिया था—-

अम्मा… आपको आना पड़ेगा । मुझे तो पता ही नहीं कि क्या लेना- देना है । सुरभि के सास- ससुर और देवर सुबह ही पहुँच जाएँगे तो आप उनसे पहले आ जाना । 

सुरभि और दादी को आकर उसके पापा ले गए । उर्मिला जी की इच्छा थी कि कम से कम समधियों के सामने तो नरेश और राखी यह भ्रम बनाए रखें कि भले ही दो घर हो गए हों पर पूरा परिवार एक है । पर राखी ने तो झूठे मुँह भी देवर – देवरानी को आने की ना कही । 

जब शाम को सुरभि के ससुराल वाले जाने लगे तो सुरभि ने कहा—

मम्मी जी! हमारे पुराने घर होकर जाना प्लीज़, अगर आप बिना मिले चले गए तो  चाचा- चाची को अच्छा नहीं लगेगा ।

हाँ- हाँ बेटा , भला हमें क्या एतराज़ हो सकता है । मैं तो ख़ुद सोच रही थी कि तुम्हारे चाचा- चाची क्यों नहीं आए ? चलो , आधा घंटा वहाँ भी लगेगा बल्कि हम तो तुम्हारे सिंधारे में  चचेरे भाई-बहन के कपड़े – मिठाई भी लाएँ हैं। 

उर्मिला जी का मन खुश हो गया कि चलो समधियों को तो परिवार की क़ीमत का पता है । वे कहती नहीं थी पर जिस दिन बड़ी बहू राखी ने यह कहा था कि —

अम्मा! इस पिछड़े गंदे मोहल्ले में रखकर तो सुरभि का रिश्ता अच्छी जगह होने से रहा , जी घुटता है यहाँ “ , उर्मिला जी का मन टूट गया था ।

हाँ बहू , अब तो तेरा जी भी घुटेगा और मोहल्ला गंदा भी लगेगा । तब यहाँ सब कुछ ठीक था जब तुम दोनों पति- पत्नी अपने बच्चों को मेरे पास छोड़कर अपनी नौकरी पर चले गए थे । वो तो भगवान की दया रही कि  सुमेधा जैसी बहू मिली जिसने अपने और जेठ के बच्चों में कोई भेदभाव ना किया , नहीं तो ये बच्चे रास्ते से भटक गए होते । और सुन …. जहाँ भी तेरा मन हो , मकान बना लें पर याद रखना कि घर दीवार से नहीं परिवार से बनता है । 

उसके बाद महीने के भीतर ही बड़े बेटे नरेश ने शहर की बड़ी सोसायटी में विला ख़रीद लिया और वे पत्नी राखी तथा सुरभि के साथ चले गए । बेटा समीर  तो पहले ही पढ़ाई के लिए जर्मनी जा चुका था ।

उर्मिला जी ने सोचा था कि बहू – बेटा कम से कम औपचारिकता वश तो कहेंगे ही कि अम्मा तुम भी चलो पर उनकी तो आँखों का पानी मर चुका था । उर्मिला जी का मन तो करता था कि बहू- बेटे से बात भी ना करें पर सुरभि उनके कलेजे का टुकड़ा थी । राखी तो छह महीने की बच्ची को उनकी गोद में डालकर नौकरी पर चली गई थी । 

आज फिर से ससुराल वालों के साथ सुरभि दादी के साथ अपने घर आ गई थी । सुरभि के सास-ससुर और देवर को देखकर सुमेधा और हरीश का दिल खिल उठा था । ये सुमेधा और उर्मिला जी की परवरिश का ही नतीजा था कि सुरभि ने चाचा- चाची के घर लाकर अपने परिवार की एकजुटता का परिचय ससुराल वालों को दिया था । 

देखते ही देखते तीज आ गई । आज सुबह ही राखी ने सुरभि को फ़ोन करके कहा—

सुरभि… मैं और तुम्हारे पापा क्लब की तरफ़ से तीज समारोह में शामिल होने के लिए जयपुर जा रहे हैं, तुम भी चलोगी क्या ?

नहीं मम्मी, मैं तो शादी के बाद की पहली तीज अपने परिवार के साथ मनाना चाहती हूँ । और फिर दादी ने देवांश को भी बुलाया है । वहाँ से आने के बाद मुझे बता देना , मैं आ जाऊँगी ।

पर तक़रीबन चार घंटे बाद ही नरेश की गाड़ी घर के बड़े से आँगन में आकर रुकी । उर्मिला जी और हरीश बाहर ही थे । गाड़ी को देखते ही हरीश उसके पास पहुँचा ।

क्या हुआ भाई, सब ठीक तो है ना ? आप और भाभी तो सुबह ही जयपुर जाने के लिए निकले थे ।

हाँ यार…. रास्ते में एक जगह चाय पीने के लिए रुके । वहीं वॉशरूम में तुम्हारी भाभी को कुछ ठोकर सी लगी और उसका पैर मुड़ गया । पहले तो सोचा कि वैसे ही पैर मुड़ गया पर दस- पंद्रह मिनट में ही पैर सूज गया और यह तो दर्द से तड़प उठी । पास के क़स्बे में डॉक्टर के पास गए तो एक्स-रे में पता चला कि टखने की हड्डी टूट गई थी । अभी तो कच्चा प्लास्टर है । डॉ ० कैलाश को दिखाकर आए हैं, अब उन्होंने परसों बुलाया है । तो सोचा कि सुरभि को ले चलें क्योंकि राखी को ज़रूरत पड़ेगी ।

नरेश  … वहाँ सुरभि अकेली कैसे सँभालेंगी ? इसकी तबीयत कहाँ ठीक है? तीसरा महीना चल रहा है, कैसे सँभालेंगी ? राखी का शरीर भी भारी हो रखा । 

अम्मा… आप चलो । बिना निगरानी के नौकर भी ठीक से काम नहीं करते । , थोड़ा झिझकते हुए नरेश ने कहा ।

भाई … अगर आप और भाभी डेढ़- दो महीने यहाँ एडजेस्ट कर लें तो यहीं रुक जाएँ । सुमेधा और दिव्या दोनों भाभी को सँभाल लेंगी क्योंकि अम्मा की भी अब उम्र हो रही है ।

हाँ नरेश…. हरीश ठीक कह रहा है । आप ज़रूरत का सामान ले आइए । 

इतना कहकर राखी ने दिव्या की तरफ़ देखते हुए कहा—

बेटा , थोड़ा सा सहारा दो और मुझे मेरे कमरे में ले चलो । 

कमरे में अपने बेड के चारों तरफ़ खड़े परिवार के सदस्यों को देखकर राखी ने सास की तरफ़ देखकर कहा—

अम्मा, आप सही कहती थी कि घर दीवार से नहीं परिवार से होता है । मैं ही ईंट – पत्थरों को घर समझ बैठी थी पर एक न एक दिन वक़्त सबको समझा ही देता है । 

बड़े बेटे- बहू की आँखों में शर्मिंदगी देखकर उर्मिला जी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव उभर आए और जब दो महीने बाद राखी ने वापस लौटते समय सुमेधा और दिव्या को गले लगाते हुए कहा—

सुमेधा, हफ़्ते में एक बार ज़रूर चक्कर लगा दिया करो , तो उर्मिला जी के दिल से अपनी बहू के लिए आशीर्वाद के शब्द स्वयं ही निकल पड़े । 

आशीर्वाद # घर दीवार से नहीं परिवार से बनता है ।#

करुणा मालिक 

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