घमंड

तारा बहू बनकर हवेली में आ गयी। उसे हवेली के तौर तरीके, नौकर- नौकरानियों को देखकर घबराहट होने लगी। बिन माँ की गरीब घर की बेटी, भाइयों ने एक दुहाजु से शादी कर अमीर घराने से रिश्ता जोड़ लिया। भरा-पूरा परिवार था।

पागल सौत, उसकी दो- दो बेटियाँ, सास- ससुर, ननद, जेठ-जेठानी, देवर सभी थे। जेठानी बड़े घर की एकलौटी बेटी थी। बहुत बड़े जमीन- जायदाद की मालकिन थी। जहाँ सबकी सोच खत्म होती थी वहाँ उसकी सोच शुरू होती थी।

आठ महीना मायके रहती थी तो चार महीना ससुराल। जितना दिन यहाँ रहती थी तारा को हर दिन एक अग्नि परीक्षा देनी पड़ती थी। जिसने कभी अपने मायके मेवा को चखा तक नहीं था वो भला मेवा का हलुआ बनाना क्या जाने।

सासु माँ के सहयोग से परीक्षा में सफल होती गयी। जेठानी के सामने तो सास- ससुर की भी बोलती बंद रहती थी, क्योंकि मायके से नहीं आने की धमकी तैयार रहती थी।

पैसे वाली पत्नी की गुलामी तो पति को करनी ही पडेगी, जब श्रम का दामन छोड़ दिया हो।बेटा तो घरजमाई बन ही गया था, पर जितने दिन भी रहता था माँ भर नजर देख तो पाती थी। ———

तारा अपने स्वभाव और सेवा-भाव से सबका मन जीत लिया था। दिन बितते गये। देवर की शादी हुई और वो अपनी पत्नी को लेकर शहर चला गया। जेठानी बारह साल में आठ बेटों की माँ बन गयी। तारा को सिर्फ दो ही बेटा हुआ।

उसका पति पढ़ा -लिखा एक ऑफिसर था। हालाकि पति की नौकरी का विरोध उनके पिता ने किया था। इतनी अधिक जमीन जायदाद को कौन सम्भालेगा? पर सबकी रुचि अलग-अलग है। ——————

अब- तक तारा अपनी जेठानी से भीखमंगे घर की बेटी का ताना सुनती थी, अब आठ बेटों के सामने दो की क्या  बिसात? जितने हाथ उतनी कमाई। उनका कहना था कि-

यदि एक-दो नालायक भी निकल जायेगा तो बाकि तो कमाई करेगा। 

जब दो ही रहेगा तो एक चोर और एक बदमाश निकल जायेगा। अक्सर ऐसा होता है। अपनी देवरानी की शुभचिंतक बन कहती भी थी।

“छोटी, हमें तुम्हारी बड़ी चिन्ता है। देवर जी दो ही बच्चे पर नसबंदी करा लिए। पता नहीं आगे तुम्हारा क्या होगा।”

बेचारी तारा कभी पति के फैसले से खुश होती और कभी जेठानी की बातें सुन चिन्तित हो जाती थी। चिन्ता इस बात की नहीं थी कि हमें दो ही है, बल्की चिन्ता थी कि ताई होकर  ऐसी बातें क्यों कहती हैं।——

धीरे- धीरे वक्त करवट बदलता गया। जेठ जी को गांजे की लत लग गयी थी। जमीन बिकने लगा और खर्च बढ़ने लगा। आठ बच्चों की परवरिश करना इतना आसान नहीं था जब कि कमाई का जरिया कुछ नहीं था।

खजाना जितना भी हो बैठकर खाने से एक-न-एक दिन खत्म होगा ही। रहन-सहन में भी कोई परिवर्तन नहीं। आमदनी अठ्ठनी खर्चा रूपईया और घमंड उतना ही।

देखते- देखते जेठानी के मायके की आधी जमीन बिक गयी। आस- पड़ोस, चाचा के परिवार से रिश्ते खराब होते गये। पिता तो पहले ही चले गये थे अब माँ भी चली गयी। अब वह मायके से उचट चुकी थी।

अतः बची जमीन- जायदाद को बेच कर अपने छोटे- छोटे बच्चों के साथ ससुराल आकर रहने लगी। अभी पास में पैसे थे, तो उसकी गर्मी थी ही। अतः आते ही सास- ससुर के सामने ये प्रस्ताव रखा कि हमें हमारा हिस्सा दे घर का बँटवारा कर दिया जाए। सासु माँ ने बहुत कोशिश की समझाने के लिए।

इधर तारा मन-ही-मन खुश हो रही थी कि अब कटु वचन सुनना नहीं पड़ेगा। बहुत मजबूरी में पिता ने बँटवारा कर दिया, लेकिन समाज के सामने काफी शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे। घर से बाहर निकलना बंद कर दिए थे। खेती का काम मैनेजर सम्भालता था। इसतरह एक साल के अन्दर ही चल बसे।

तारा भी अब अपने पति के पास रहना चाहती थी। बच्चे स्कूली पढ़ाई पूरी कर लिए थे। आगे की पढ़ायी के लिए वे भी शहर जा रहे थे, लेकिन सासु माँ को छोड़ वो कैसे जा सकती थी? सासु माँ अपने पति के घर से ही उनके पास जाना चाहती थी। जिन्दगी का क्या भरोसा? वो अपना घर छोड़ कहीं नहीं जाती थी।———–

इधर जेठानी का बेटा भी पिता के नक्शे कदम पर चलना शुरू कर दिया। माँ ने एक बार डाँट लगयी तो घर छोड़ भाग गया।

गांजे के सेवन से पति भी असमय चल बसे। दूसरा बेटा स्कूली शिक्षा खत्म होते ही माँ के साथ गृहस्थी सम्भाल लिया। दिनों- दिनो स्थिति बद् से बद्तर होती गयी। घर चलाना मुश्किल हो गया और यहाँ की जमीन भी बिकने लगी। सभी बच्चे मनमानी करने लगे, लेकिन जीवन की नैया चल रही थी।——–

इधर सासु माँ की तबियत खराब रहने लगी और एक दिन तारा को छोड़ पति के पास चली गयी। अब तारा अपने पति के साथ शहर रहने चली गयी।———–

तीन साल बाद जेठानी तारा के पास अपना इलाज कराने आई। वो दामा की मरीज हो चुकी थी।

तारा ने उनका इलाज तो करवा दिया, लेकिन दबी जुबान कह भी दिया।

” संस्कारी एक संतान भी दस के बराबर होता है।”

जेठानी ने हाँ में सिर हिला दिया और गाँव जाने वाली बस में सवार हो गयी।

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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