” क्या दे दिया तेरी मां ने आज तुझे ??” पलक के हाथों में थैला देखकर सुधा जी ने चश्में के नीचे से झांकते हुए पूछ लिया।
हिचकते हुए पलक ने थैले में से निकालकर एक साड़ी अपनी सास सुधा जी के सामने रख दी। साड़ी को उलट पुलट कर देखते ही सुधा जी की त्योरियां चढ़ गईं ,” ये साड़ी तो पहनी हुई लग रही है!! तेरी मां ने क्या इस बार पुरानी साड़ी दे दी तुझे ??? “
” जी…. मां जी.. वो … मां की ये साड़ी मुझे बहुत अच्छी लगती थी तो इस बार मां ने ये साड़ी मुझे हीं दे दी।”
” अच्छा .. तो अब इतने बुरे दिन आ गए हमारे जो अपनी मायके की उतरन पहनेगी तूं!! अरे तुझे तो अकल नहीं लेकिन तेरी मां को तो सोचना चाहिए था ना बेटी तो उतरन देने से पहले ….. आज साड़ियां दे दी कल को तेरे बच्चों के लिए तेरे भतीजे भतीजी के पुराने कपड़े भी दे देगी। खबरदार जो ये उतरन दोबारा इस घर में लाई है तो…” कड़कते हुए सुधा जी बोलीं।
पलक सहम कर रह गई। दरअसल आजकल पलक की मां की तबियत नासाज रहने लगी थी तो पलक अक्सर थोड़ी देर के लिए मां से मिलने अपने मायके चली जाती थी। अब ऐसे समय में मां और भाभी कुछ देना चाहतीं तो पलक खुद हीं मना कर देती थी। कहती, ” मैं तो सिर्फ मां से मिलने आ जाती हूं इसलिए प्लीज़ आपलोग ये लेना – देना मत किया करो। खुशी का माहौल हो तो मुझे भी कुछ लेना अच्छा लगता है लेकिन इस वक्त आपलोगों पर बेवजह का बोझ डालना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।”
इस बार जब वो अपने मायके मां से मिलने गई तो मां की अलमारी में टंगी गुलाबी बनारसी साड़ी देख कर बोल उठी,
” मां तुम्हारी ये साड़ी मुझे बहुत अच्छी लगती है । जब तुम इसे पहनती थी तो सच में बहुत सुंदर लगती थी। ये साड़ी आपको नानी ने दी थी ना … !! “
” हां बेटा, लेकिन अब कहां मैं ये साड़ी पहनूंगी … तुझे पसंद है तो तूं ले जा… मेरी निशानी समझकर ….”
मां की बात सुनकर पलक भावुक हो उठी, ” ऐसा क्यों बोल रही हो मां.. देखना तुम ठीक हो जाओगी ….” कहते हुए पलक अपनी मां के गले से लगकर बिलख पड़ी।
उसे भी अंदेशा था कि अब मां ज्यादा दिन नहीं निकालने वाली।
वापस आते वक्त मां ने पलक के थैले में वो साड़ी डाल दी। लेकिन जिस साड़ी को पलक मां की निशानी समझ कर लाई थी वो उसकी सास को सिर्फ उतरन नजर आ रही थी। पलक का मन खिन्न हो गया था। उसने ठान लिया था कि अब वो कभी अपनी मां की कोई चीज ले कर नहीं आएगी । जहां सिर्फ पैसों का मोल है भावनाओं का नहीं वहां कुछ लाने का क्या फायदा।
कुछ दिनों बाद हीं पलक की मां चल बसी। पूरे परिवार में शोक का माहौल था। पलक भी तेरहवीं तक अपने मायके में ही थी। तेरहवीं के दिन पलक के पति और सास ससुर भी पलक के मायके गए थे। सारा काम निपटने के बाद पलक जब विदा होकर वापस ससुराल जाने लगी तो पलक की भाभी मां की अलमारी से निकालकर मां के कंगन पलक को देते हुए बोली , ” दीदी, मां ने कहा था कि ये कंगन पलक को दे देना । आप इस घर की बेटी हैं इसलिए आपका हक भी बनता है ….”
पलक की आंखें छलक आईं । खुद को संयत करते हुए वो बोली, ” नहीं भाभी , मां नहीं तो क्या हुआ.. अब आप सब से हीं मेरा मायका है। आप सब तो हैं मेरे साथ फिर मुझे किसी निशानी की क्या जरूरत है। ये कंगन आप पहन लो क्योंकि मां की छवि अब मुझे आपमें हीं नजर आएगी।”
कहते हुए पलक ने वो कंगन अपनी भाभी के हाथों में पहना दिए। पास खड़ी पलक की सास और पति भी देख रहे थे लेकिन कुछ कह नहीं पाए।
सास को तो पलक पर बहुत गुस्सा आ रहा था। घर आते हीं पलक की सास उसपर बिफर पड़ी, ” भला इस वक्त भी कोई मना करता है लेने से ?? इस वक्त तो बेटियों को देने से मां की आत्मा को शांति मिलती है !! जब अपने मन से वो दे रहे थे तो क्या जरूरत थी मना करने की … बाकी के सारे गहने तो उस भाभी के पास हीं तो रहने थे। ,,
आज पलक के मन का दर्द शब्द बनकर होंठों से निकल पड़े, ” क्यों मां जी ?? मैं भला मां की उतरन इस घर में कैसे ले आती!!! आपने हीं तो कहा था कि आईंदा कभी मायके से उतरन लेकर मत आना … वो साड़ी तो मां ने मुश्किल से दो चार बार पहनी थी लेकिन वो कंगन तो मां हमेशा पहने रखती थीं… फिर वो उतरे हुए कंगन मैं कैसे ले आती मां जी !!! ,,
बोल कर आंखों में आंसू लिए पलक अपने कमरे की तरफ बढ़ गई और सास निरुत्तर सी देखती रह गई । लेकिन मन हीं मन बड़बड़ाती रहीं ,” भला गहने भी कभी उतरन होते हैं ..!! मुझे क्या … खुद हीं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारे तो मारे … बेवकूफ कहीं की… ,,
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