रत्ना देवी की उम्र हो चली थी। अपने सत्तर बसंत में बीस तो वैधव्य में गुजारा।
चार बेटों,तीन बेटियों की माँ थी।
पति की मृत्यु के पश्चात बेटों ने बँटवारे में छोड़ा तो सिर्फ रत्ना देवी को।
कोई अपने हिस्से में ज्यादा लेना नहीं चाहता था।पुरी ईमानदारी बरती थी उनलोगों ने।
बेचारी!.. उसी शहर में बसी एक बेटी ने अपने यहाँ आसरा दिया।
कुछ दिन तो सब ठीक रहा..लेकिन जब कोई सामान पुराना हो जाता है तो उसके लिए जगह कम पड़ने लगती है या फिट नही बैठती।
कुछ ऐसा ही हाल रत्ना देवी के साथ हो रहा था। चार बातें सुने बिना न सूरज निकलता और ना रात ढलती।
अपने सारे दैनिक कार्य वह स्वयं करती….बाकी बचे समय में ईश्वर का ध्यान करती।
दिनभर मुहल्ले भर में घूम-घूम हाल -चाल ले लिया करती।
किसी ने चाय-पानी करा दी तो किसी ने कभी कुछ खिला दिया।
सबकी काकी रतना काकी थी।
विशेष पूजा की इच्छा लिए…अपने वृद्धा पेंशन में मिलने वाली पैसों से सारा सामान खरीद लाई थी।
तड़के ही उठकर पूजा-पाठ के लिए फूल तोड़ लाई थी। सारे इंतजाम करके पंडित को भी बुला लिया।
अब पूजा शुरु होने ही वाली थी कि रत्ना देवी गश खाकर गिर पड़ी।
सुबह ही तो थोड़ी हुल-हुज्जत में किसी ने कह दिया था….मरती भी नहीं बुढ़िया।
रोज तो लड़ पड़ती थी….पर आज मुस्कुरा कर रह गई।
मानो आभास हो आया था कि अब टिकट कट चुकी।
गश खाकर क्या गिरी..बस चल ही दी,किसी को कोई मौका ही नहीं दिया।
बेटों ने सुना तो दौड़ते हुए आए और रत्ना देवी की लाश को इस तरह उठाकर ले गए मानो परलोक से वापस ही ले आएं। आज बेटों ने जितनी जल्दबाजी दिखाई थी अपना हक दिखाने में,काश पहले किया होता जिसके लिए वह जीवित रहते रोज तड़पा करती थी।
सपना चन्द्रा