फर्क –  ऋतु अग्रवाल

  सूरज अपनी ढलान पर था। शाम का धुँधलका गहराने लगा। एक जोरदार अंगड़ाई लेकर गायत्री झटके से उठी। एक स्मित सी मुस्कान उसके अधरों पर तैर गई। आज सत्येंद्र नाराज होकर शोरूम गए थे।वही पुरानी बहस, गायत्री बच्चा गोद लेना चाहती थी पर सत्येंद्र को यह ना मंजूर था। कमी गायत्री में ही थी। परिवार ने उसका इलाज भी बहुत कराया पर शायद अपना बच्चा तकदीर में नहीं था। सत्येंद्र ने इस बात पर कभी गायत्री को कुछ नहीं कहा था बल्कि हमेशा उस पर अपना प्यार और स्नेह ही लुटाया था।

       “अब कभी कुछ नहीं बोलूँगी इस विषय पर” सोचकर गायत्री ने अपने खुले बालों का जूड़ा बनाया और किचन में आ गई।

      “अरे, राजो! आ गई तू, चल जल्दी से बर्तन साफ कर दे और हाँ,जरा मेरा इटैलियन डिनर सेट निकाल देना और डिनर टेबल लगवा देना और हाँ,सुन तुझे अलग से पैसे दूँगी मैं।”गायत्री अपनी रौ में बोले जा रही थी। राजो की चुप्पी ने जैसे गायत्री की सोच को विराम लगा दिया। राजो का उतर मुँह देखकर गायत्री समझ तो गई पूरी बात पर फिर भी बिना पूछे रह नहीं पाई।

      ” क्या हुआ तुझे?”

     राजो तो भरी बैठी थी,” क्या दीदी, वही रोज का बवाल मेरा मर्द नशा करके आता है और फिर वही मारपीट।” राजो की पीठ पर पड़े निशान सारी कहानी कह गए। गायत्री चुप रह गई। क्या कहें? इन छोटे लोगों का तो रोज का काम है।

       “जल्दी से डिनर बना कर तैयार हो जाऊँगी। आज सत्येंद्र की पसंद की साड़ी पहनूँगी” यह सोचकर तैयार होकर माथे पर लाल बिंदी लगाई तो आईने में खुद को देकर ठगी रह गई गायत्री। उफ!सत्येंद्र सही बोलते हैं,लाल बिंदी में तुम बिल्कुल देवी लगती हो।



            डोरबेल बजते ही गायत्री दरवाजा खोलने भागी सत्येंद्र को दरवाजे पर इंतजार करना कतई पसंद नहीं था। दरवाजा खोलते ही गंदा,बदबूदार भभका गायत्री को अचंभित कर गया। 

       “ये क्या? आज सत्येंद्र शराब पीकर आए हैं।” सत्येंद्र सीधा बेडरूम में घुस गए। गायत्री पीछे पीछे भागी। सत्येंद्र बैग पटक कर बेड पर पसर गए।

       “सत्येंद्र,ये क्या? आपने आज शराब पी है”कहकर गायत्री ने जैसे ही सत्येंद्र का कंधा पकड़ा, सत्येंद्र की कहर बरसाती लाल लाल आँखें देखकर गायत्री सहम गई।

     “हट साली,बदज़ात, बाँझ कहीं की। एक बच्चा तो जन नहीं सकती, ये सज धज कर किसको रिझा रही है।” सत्येंद्र के ये शब्द गायत्री के कान में सीसा सा घोल गए। एक बुत की भाँति किंकर्तव्यविमूढ़ सी वह खड़ी रह गई।

        अगर दीवार का सहारा ना ले लिया होता तो शायद अभी तक फर्श पर बेहोश पड़ी होती। गायत्री की रुलाई फूट पड़ी पर हमेशा उसके आँसू पोंछने वाले सत्येंद्र तो बेसुध पड़े थे।

       कोई रोने की आवाज ना सुन ले इसलिए गायत्री ने मुँह में साड़ी का पल्ला ठूँस लिया। “क्या फर्क है मुझ में और राजो में? ना, बहुत बड़ा फर्क है। वह चिल्ला चिल्ला कर अपना दर्द सबको बता सकती है और मैं?

      सोचते-सोचते गायत्री का दिमाग सुन्न होने लगा और वो वही फर्श पर गिरकर सुबकती रही पूरी रात।

      

      स्वरचित 

      ऋतु अग्रवाल

      मेरठ

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!