फकीर – विनोद सिन्हा “सुदामा”

ऐसा कोई दिन नहीं होता था कि उस मस्जिद वाली गली से नहीं गुजरती थी मैं…

मेरे ऑफिस का रास्ता उसी गली से होकर गुजरता था और थोड़ा नजदीक भी पड़ता था इसलिए ऑफिस जाने के लिए अमूमन उसी रास्ते का उपयोग करती थी ..

मेरा रोज़ का आना जाना था इसलिए..गली के बहुत से लोग जानते और समझते थे…कभी किसी से किसी तरह का खतरा भी महसूस नहीं हुआ…मुझे

इसे आदत कहें या कुछ और मैं ऑफिस के लिए घर से जब भी निकलती थी…..उस मस्जिद के पास एक मिनट के लिए जरूर रूकती थी..

मस्जिद के बगल में ही एक छोटी सी मंदिर भी थी..

भगवान शिव की..

जिन्हे मैं रोज़ प्रणाम करती..

उजली सफेद मस्जिद और हल्का हरा मंदिर..

मस्जिद की सीढ़ियों पर भिखारियों का ताँता लगा रहता था..

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लेकिन मंदिर बिल्कुल शांत और खाली दिखता,जिसका कारण आज तक समझ नहीं पायी मैं कि मस्जिद में भीड़भाड़ और मंदिर सुनसान क्यूँ रहती है..

खैर ..मैं मंदिर की ओर चेहरा कर भगवान शिव को रोज प्रणाम करती ..एक नज़र मस्जिद की ओर देखती और आगे बढ जाती….

लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि मेरे पाँव वहां जम से गए मानों..  …

मंदिर की सीढि पर एक फकीर बैठा दिखा मुझे…नया नया आया था या मैं ही पहली बार देख रही थी उसे कह नहीं सकती..

लेकिन मस्जिद छोड़ उसे मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा देख थोड़ा आश्चर्य हो रहा था मुझे…

वजह जो भी हो…कहीं देरी न हो जाए

यह सोच…..मैं  अऑफिस आ गई..

दिन भर काम किया..

शाम को लौटते वक़्त देखा तो वह फकीर अब भी वहीं बैठा दिखा मुझे..

मैं उसे देखते हुए आगे बढ़ी…वह भी मुझे देख रहा था..

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फिर दूसरी सुबह तीसरी सुबह….अब हर रोज़ वह मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा दिखने लगा था

जाने कैसी कशिश थी जाने कैसा खिचाव था जब भी देखती उसे..एक सिहरन सी दौड़ जाती थी नस नस में..

ऐसा लगता मानों आते जाते घूर रहा हो मुझे..

मैं रोज़ की भाँति मंदिर की तरफ हाथ जोड़ प्रणाम करती और आगे बढ़ जाती…

उसने क्या समझा क्या जाना नहीं जानती लेकिन जब भी मुझे देखता दोनो हाथ जोड़ देता…


मैं भी उसे देखती और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाती..

देखते देखते कई दिन हो गए…

मेरा मंदिर प्रणाम और उसका मुझे हाथ जोड़ना एक नियमित क्रिया- प्रतिक्रिया हो गई..

लेकिन जाने क्यूँ आज ऑफिस आकर काम में बिल्कुल मन नही लग रहा था..लंच तक नहीं किया..था मैने..मन बार बार उस फकीर को ही सोच रहा था..उसका चेहरा उसकी आँखे रह रहकर मेरी आँखों के सामने आ जा रहे  थे…

कितना मिलता जुलता था……रूद्र से..

वही रंग वही कद काठी… वही आँखें..

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“रूद्र प्रताप”..एक रौबीला व्यक्तित्व ….

जिसे कभी दिलो जान से प्रेम किया था मैने .. जिससे मंगनी भी हुई थी मेरी..

लेकिन क्या हुआ कि बिना कहे बिना कुछ सुने…..जाने कहाँ गुम हो गया.बहुत खोजा बहुत ढूँढा पर कहीं कुछ  पता नहीं…चला..

लाख कोशिशों के बावजूद उसका नंबर कभी नहीं लगा..डारेक्ट्री तक में भी वह नंबर मौजूद नहीं था..

यहां तक उसके पिता का पुलिस विभाग में गहरी पैठ होकर भी कुछ भी पता नहीं कर सके थे रूद्र के बारे में..

फिर कुछ वर्ष हुए आर्या के पापा का ट्रांसफर इटावा से अलीनगर हो गया और मैं यहाँ चली आई..जहाँ खुद भी जॉब करने लगी…

मेरे सामने रूद्र का चेहरा उसके बीते कल का दर्द लिए उसकी परछाईं बन उसके आँखों के सामने खड़ा था..जो मुझे बेचैन कर रहा था..

एक समय था जब घंटो घंटों साथ बैठे बातें करते रहते थे हम दोनों..कई बार तो मैं प्रेममग्न रूद्र की बाहों में देर तक इसतरह खोयी रहती कि खुद के होश नहीं रहती..

हाँ इतना था कि हम दोनों ने ही कभी अपनी सीमा नहीं लांघी…

आज मन ही नहीं लग रहा था किसी काम में…बस उस फकीर को सोचती और उसमें रूद्र को खोजती रही..

फिर जाने क्यूँ  शाम को ऑफिस से लौटते वक़्त मेरे पाँव स्वतः मंदिर की सीढ़ियों की ओर बढ़ गए..जहाँ वह बैठा था..

हालांकि डर भी लग रहा था….मुझे उससे

फिर भी न चाहकर भी जाने किस मोहवश उसकी तरफ़ खींची जा रही थी…मैं

थोड़ी पास गई तो..

हाथ जोड़े लगातार मुझे देखे जा रहा था..

फटा चिटा लबादा ओढ़े….कई दिनों से  नहाया नहीं था ..लगता

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उसकी देह से आती बदबू नाक से होकर फेफरे तक को बींध रही थी..

उसके बिखरे बिखरे बाल उसकी बेतरतीबी की गवाही दे रहे थे…..

इक अजीब सी गहराई थी उसकी आँखों में…

दर्द आँखों के हर कोर से रिस रहा था..

जाने क्या था कि मैं रोक नहीं पायी खुद को…

पूछ ही बैठी…

आते जाते रोज देखती हूँ…

अभी ज्यादा उम्र भी नहीं हुई हट्टेकठ्ठे  दिखते हो…फिर यह फकीरों सा हाल क्यूँ बना रखा है..

पहले तो वह खामोश रहा..फिर मेरे बार बार पूछने पर 

उसने बड़ी धीमी आवाज..में उत्तर दिया..

वक़्त का शिकार बना हूँ…

मैंने कहा कोई काम करना चाहिए…

क्या भीख मांगना अच्छा काम है..?

कुछ दूसरा काम क्यूँ नहीं करते…?

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उसने अनमने ढंग से  कांधा हिलाया और दूसरी और यानी मस्जिद की ओर ताकने लगा..उसकी नज़रे किसी को ढूँढती प्रतीत हो रही थी..

फिर अचानक मुड़ा और भर्राई आवाज में कहा ..

कई दिनों से भूखा हूँ.

मुझ भूखे बेचारे पर दया कीजिए..

कुछ खाने को दे देजिए..

ऐसा महसूस हुआ कि वो आवाज बदलने की कोशिश कर रहा हो…

खैर उदारता की वजह से मैने बैग म़े रखा लंच निकाल कर उसे देना चाहा…जिसे मैंने दिन में ऑफिस में नहीं खाया था..

उसने अपने फटे चिटे झोले..जिसपर एक बगोना नूमा बर्तन रखा था उठाकर आगे बढा दिया..

मैने सारा लंच उसकी  बर्तन में डाल दिया..

साथ का पानी बोतल भी उसके बगल रख दिया..

वह झटपट ऐसे खाने लगा…मानो कोई छीन न ले..

फिर जाने क्या हुआ मस्जिद की ओर देख खुद व खुद बुदबुदाने लगा …

नहीं… यह नहीं हो सकता…कत्तई नहीं..


मैं भी मस्जिद की ओर देखने लगी..

मुझे उसका व्यवहार बड़ा अजीब लग रहा था.

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उसकी आँखे काफी गंभीर दिख रही थी और कुछ बोलती बोलती सी भी लग रही थी ,किसी से कुछ कहना चाह रही थी पर क्या और किससे मैं समझ नहीं पा रही थी…

खाते खाते मैने उससे उसका नाम पूछा…

कोई जवाब नहीं..

वह कहाँ का रहने वाला है

क्या कभी इटावा गया है..?

बस मौन…..कोई जवाब नहीं…

मैंने फिर पूछा..

किसी की मुहब्बत में चोट खाए लगता..

उसका जवाब मुझे रोमांचित कर गया..

काफी शायराने आवाज़ में जवाब दिया था उसने..

डूबकर मुहब्बत मे कब कोई कहाँ उबर पाता है..

चाहता वो जितना निकलना और डूब जाता है

कौन थी वह…..मैने पूछा..

वह फिर चुप रहा..कोई जवाब नहीं…

बस मुझे देखे जा रहा था..आँखें भींगी भींगी सी लगी न जाने कितनी आशाएं छुपी थी उसकी धुँधली धुँधलीआँखों में…एक पढ़ने की कोशिश करती दूसरी उभर आती..

बाद बहुत कोशिश की पर वह चुप ही रहा..

उसको कुछ बोलता नहीं देख मैं उसे उसके हाल पर छोड़ घर वापस आ गई..

लेकिन रात भर सो नहीं पाई..बार बार उस फकीर को ही सोचती…रही

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“रूद्र को सोच टीस का हर रंग भरने लगा था..अब मेरे मन में…

अगली  सुबह ऑफिस जाने के लिए घर से जल्दी निकली मैं..ताकि फिर बात कर सकूँ उससे..

मस्जिद के पास पहुँची तो देखा वह फकीर आज़ मंदिर छोड़ मस्जिद की सीढ़ियों तरफ़ खड़ा था..मुझे देख रोज की भाँति हाथ भी नहीं जोड़े थे आज..जब तक मैं उस तक पहुँचती जाने किधर गुम हो गया..इधर उधर देखा कहीं नज़र नहीं आया…थोड़ी देर रूकी भी.पर…हाथ सिफ़र ही लगी..

फिर मैं ऑफिस आ गई..

शाम को लौटते वक़्त देखा तो मस्जिद के आस पास ढेर सारे कमांडोज भरे पड़े हैं..किसी को आने जाने की मनाही है…मुझे भी रोक दिया गया…पता चला काफी दिनों से कुछ आतंकी उस मस्जिद के के पीछे वाले घर को अपना ठिकाना बनाए हुए थे…और उस पवित्र मंदिर और मस्जिद के आड़ में अपने गलत मंसूबों को अंजाम देने की कोशिश में थे..जिन्हें आज़ पकड़ लिया गया था…..और उनके मंसूबो को ध्वस्त कर दिया गया था..

मैं अचंभित विस्मित कभी मंदीर की ओर देखती तो कभी मस्जिद की ओर…

ऐसे समय में भी मेरी नज़रे उस फकीर को ढूँढ ही रही थी..पर वो कहीं नहीं दिख रहा था न तो मंदिर की सीढ़ियों पर न ही मस्जिद की सीढ़ियों पर..

मैं डरी सहमी दूसरे रास्ते घर आ गई…

मम्मी पापा कहीं गए थे शायद दरवाजे पर ताला लगा पड़ा था..

आक्सर होता था कि वो ताला लगाकर कहीं चले जाते थे…

मेरे पास दूसरी चाबी थी..सोचा अंदर जा कर पापा को फोन करती हूँ…कहाँ गए हैं..

लेकिन मैंने अभी दरवाजा खोला ही था कि वह फकीर जाने किधर से आया और मुझे दबोच घर में घुस गया..मैं चिल्लाती इससे पहले उसने मेरे मुह को अपने मजबूत पंजो से बंद कर दिया…ताकि मैं कोई आवाज न कर सकूँ…

मैं उसके हाँथ छुड़ाने की जितनी कोशिश करती् उसकी गिरफ्त मुझपर उतनी ही बढती जाती….

जब उसे लगा मैं कुछ नहीं बोलूँगी उसने अपंनी पकड़ थोड़ी ढिली की..

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उस फकीर न मुझे उंगली से चुप रहने का इशारा किया…और अपने चेहरे से अपनी नकली दाढ़ी, नकली बाल निकालने लगा..

अगले ही पल मेरे आशचर्य का ठिकाना न रहा…

मेरे सामने उस फकीर के रूप में मेरा रुद्र खड़ा था..

मैं दौड़कर रूद्र के सीने से लिपट गई…


कहाँ था इतने दिन क्यूँ छोड़ भागा मुझे..

क्यूँ धोखा दिया…क्यूँ तड़पाया क्यूँ सताया इतना…जाने कितने सवाल कितने प्रश्न दागे मैंने..

पर कुछ कहे बिन शांतचित्त बस मुझे सीने से लगाए रखा…

मैं भी उसकी गर्म बाँहों में समाती गई…

आज उसके शरीर की गमक…रोमांचित कर रहा था मुझे…

मुझे बाँहों में लिए ही..उसने बताया कि वह रॉ का अंडर कवर एजेंट है और एक मिशन पर था जिसे पूरा करने के लिए उसे मुझसे दूर जाना पड़ा…यहाँ तक अपनी पहचान भी छुपानी पड़ी मुझसे…

और आज़ जो  मंदिर मस्जिद के पास किस्सा हुआ वह भी उसी मिशन का हिस्सा था…

उसने बताया कि उसने मुझे पहले ही दिन देख लिया था..पर सच जाहिर नहीं होने दिया और अंजान बना रहा…

वर्षों की प्यास …क्षण भर में एक मीठे एहसास में बदल गई

मेरा रूद्र वर्षों बाद मेरी बाहों में था…और मैं उसकी मजबूत आगोश में..

सारा दर्द सावन भादो बन आँखों से छलक रहा था…मानों मेरे अंदर कोई ग्लेशियर पिघल रहा हो..

विनोद सिन्हा “सुदामा”

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