फैसला – आशा किरण : Moral stories in hindi

कोरोना की दूसरी लहर में जब  बॉस गिरफ्त में आए तब किसी ने यह सोचा तक न था कि वह जिंदगी से जंग हार जाएंगे.  उनके इस अकस्मात निधन का असर यह रहा कि ऑफिस पर सदा के लिए ताला लग गया. तब से ही घर पर हूं मैं.

 50 की उम्र में जहां लोग रिटायरमेंट प्लान करते हैं वहीं दूसरे ऑफिस में नौकरी करके फिर से अपनी काबिलियत दर्शाने की ना तो इच्छा है और ना ही हिम्मत. और, जब बच्चे भी कमाने लगे हो तब शायद जरूरत भी नहीं है. बहुत सारे शौक थे जो समय की कमी के कारण कभी पूरा नहीं कर पाई थी, बस उन्हें शौकों के साथ जिंदगी की दूसरी पारी खेलने की प्लानिंग थी मेरी.

 किंतु जिंदगी भी इम्तिहान लेने से कब चूकती है. ना उम्र देखती है ना मजबूरी. लॉकडाउन के शुरू में जब सब घर में थे तब तो सांस लेने तक की फुर्सत नहीं थी. घर के कामकाज के बीच अपने शौक के लिए समय निकालना चुनौती से कम कहां था भला,  पर फिर भी जितना जैसे संभव हुआ,  किया.

 समस्या तो शायद अब खड़ी हुई,  जब सब की गाड़ी कोरोना से पहले की तरह सामान्य रूप से चलने लगी है. बच्चे वर्क फ्रॉम होम की जगह वर्क फॉर होम की तर्ज पर दूसरे देश ही चले गए हैं. पति निखिल का भी ऑफिस सामान्य रूप से चलने लगा है.  वह दो दिन ऑफिस जाते हैं और बाकी दिन घर से ही काम करते हैं.  शायद ऑफिस के बहुत दूर शिफ्ट हो जाने के कारण आने जाने में होने वाली परेशानी को देखते हुए ही उनको यह सुविधा दे दी गई थी. इन सब के बीच तालमेल बैठाती  मैं, खुद को पिसा हुआ ही महसूस कर रही हूं. निखिल ऑफिस के कामों में इतना उलझे रहते हैं कि बात करने तक का समय नहीं मिलता और सच कहूं तो शायद हम दोनों का स्वभाव शुरू से ही अलग ही रहा है. वह बिल्कुल शांत रहना पसंद करते हैं और मैं हमेशा बकबक करना ही पसंद करती हूं. वह बंद बर्तन में रखें पानी की तरह है जो बाहर से जबरदस्ती अवरोध उत्पन्न होने पर ही हलचल महसूस करते और मैं कल-कल बहती नदी,  जो कभी रुकना ही पसंद नहीं करती.

 नदी के दो किनारे जैसे हैं हम,  जो साथ-साथ चलते जरूर रहे हैं पर शायद कभी विचारों से मिल नहीं पाए हैं. नौकरी  करते समय लोगों के साथ सारा दिन काम करते हुए,  बातें करते हुए,  कट जाता था पर अब कुछ महीनो से अवसाद शायद मुझे अपने  चुंगुल में जकड़ने में लगा है.

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सभी सहेलियों भी कामकाजी है, तो जाहिर सी बात है  वे भी ऑफिस और फिर ऑफिस के बाद घर,  दोनों ही जगह व्यस्त है.  किताबें पढ़ना,  पेंटिंग करना यूट्यूब से सिलाई कढ़ाई बुनाई इत्यादि के कई  सामान  बना बनाकर दूसरों को गिफ्ट करी थी मैंने.

 किंतु अब यह सब करना भी अकेलेपन के एहसास को खत्म नहीं कर पा रहे थे. लेकिन निखिल मेरी इस मनोदशा से अनजान ही थे. उनको घूमने फिरने का कोई शौक नही था, और  उनको अकेले छोड़ कर कुछ दिनों के लिए बाहर जाना मुझे सही नही लग रहा था.

दिन के दो  तीन घंटे कुछ ऐसा करना बहुत जरूरी था जिससे लोगों से मिलना जुलना भी हो और जीवन का कोई  उद्देश्य भी सार्थक हो. घर छोटा होने के कारण घर में कोई हॉबी क्लासेस या ट्यूशन लेना भी  संभव नहीं था क्योंकि उससे निखिल के काम में  विघ्न पड़ता. बच्चे आएंगे तो शोर गुल मचायेंगे ही, और निखिल भी शायद उसे परेशान हो मना ही कर दे.

एक सहेली ने अपने घर में हॉबी क्लासेस ली हुई थी. जब नौकरी करती थी तब वह बहुत बार बोलती थी कि अकेले रहने के कारण कई बार इतने बच्चों को संभालना  मुश्किल हो जाता है. उससे बात की कि अगर मैं दो-तीन घंटे किसी भी तरह से तुम्हारे काम आ सकूं तो शायद मेरे लिए भी अच्छा रहेगा.

 स्पष्ट तौर पर तो सहेली ने कुछ नहीं कहा लेकिन जब दो-चार महीने बीतने पर भी उसने कभी इस बारे मे रुचि नही दिखायी, तब मुझे समझ आया कि शायद वह चाहती ही नहीं कि उसके पास जा मैं कुछ भी करूं. शायद उसे यह  आशंका होगी कि कहीं ऐसा ना हो कि मैं उसके व्यवसाय को हड़पने की कोशिश  करूं,  चाहे बेशक मेरी यह मंशा नहीं हो किंतु उसे भी कैसे समझाऊं??

पार्ट टाइम नौकरी के अवसर कम और सारे दिन की नौकरी कर फिर से मैं घर और नौकरी के बीच पिसना नहीं चाहती,  किंतु समस्या यह है कि घर में भी समय काटना अब मुश्किल सा लगता जा रहा हैं.

याद आया अचानक वह संस्थान,  जहां कुछ वर्ष पहले बच्चों के पुराने कपड़े देने गई थी,  वहां गरीब घरों के बच्चों को फ्री में पढ़ाया जाता था और लड़कियों को सिलाई, कढ़ाई, मेहंदी जैसे कई कोर्सेज सिखाए जाते थे ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके. तब वही के प्रमुख ने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड दिया था जो मैंने अपने पर्स में संभाल कर रख लिया था .

#फैसला# ले लिया था मैंने.  प्रमुख जी को फ़ोन कर उनको अपना उदेश्य बताया जिसके लिए वह सहर्ष तैयार हो गए…दोपहर के दो तीन घंटे  प्रयाप्त थे जिससे घर भी सुचारु रूप से चलता रहता… और 

समय का सदुपयोग इससे अच्छा क्या होगा कि आप अपने बच्चों को पढ़ाते पढ़ाते उन बच्चों को भी पढ़ा सको  जो लाचारी के कारण पढ नहीं पा रहे हो , और बच्चों के सानिध्य में मुझ जैसे कल कल बहती नदी को भी   निर्विरोध बहते रहने का अवसर  मिलता रहेगा.

मौलिक व अप्रकाशित रचना 

लेखिका: आशा किरण

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